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Whether our Universe will continue to expand? Kartapurush ep36

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Dec 7, 2023

  • In Kartapurush ep36, we read that the universe has been created by the dynamic conscious power of the Lord. This Power induces movement which gives rise to our universe.

  • The question is what will be the final outcome of this movement in the universe. Whether our universe will continue to expand for an eternity or there will be a period of contraction also?

  • As per the physicists, the time will come when our universe will begin to contract which gradually will ensure the demise of the universe. Thus, as per the physicists, this Mayic universe is a doomed universe.

  • Vedanta concurs with the physicists that our universe is not eternal but the view of the Vedantist about the fate of the universe is not nihilistic. What may be the reason?

The text aims to provide readers with a deeper understanding of the universe's fate and its ultimate meaning. Here's how it can help:

It addresses fundamental questions about the universe:

  • The text explores the question of whether the universe will continue to expand indefinitely or eventually undergo contraction.

  • It presents both scientific and Vedantic perspectives on the universe's fate, offering a broader understanding of this complex issue.

It challenges the notion of a doomed universe:

  • While acknowledging the scientific view of a contracting and ultimately ending universe, the text offers a Vedantic perspective that transcends nihilism.

  • This challenges readers to consider the possibility of a deeper meaning and purpose beyond the physical lifespan of the universe.

It encourages introspection and contemplation:

  • By raising questions about the universe's fate and its place within a larger reality, the text encourages readers to reflect on their own existence and purpose.

  • This introspective process can lead to a deeper understanding of oneself and one's place in the universe.

It provides a gateway to further exploration:

  • The text invites readers to delve deeper into Vedanta philosophy for a more comprehensive understanding of its perspective on the universe's fate and ultimate meaning.

  • This provides an opportunity for ongoing learning and exploration of complex spiritual concepts.

Overall, the text serves as a thought-provoking exploration of the universe's fate and offers a Vedantic perspective that transcends the limitations of a purely scientific view. It encourages readers to contemplate their own place within the cosmic scheme and embark on a journey of self-discovery and spiritual growth. Lets read ahead!

Whether our Universe will continue to expand for an eternity or there will be a period of contraction also? Kartapurush ep36
Whether our Universe will continue to expand for an eternity or there will be a period of contraction also? Kartapurush ep36

Read the previous article▶️Kartapurush ep35

 

हमने लिखा है कि जगत् की रचना के दो प्रधान चरण हैं। पहला चरण ‘सर्ग’ कहलाता है और दूसरा चरण ‘विसर्ग’ कहलाता है। ‘सर्ग’ में रचना का क्रम मन-प्राण-जड़ होता है; ‘विसर्ग’ में रचना का क्रम जड़-प्राण-मन होता है। इस संदर्भ में प्रश्न पूछा जा सकता है कि रचना की उत्पत्ति के इन दोनों क्रमों का आदिग्रंथ में प्रमाण कहाँ है? हम यह जानते हैं कि ‘प्राण’ का अर्थ श्वसन मात्र नहीं अपितु ज्ञान व कर्म की दस शक्तियां हैं। ज्ञान व कर्म की इन दस शक्तियों और जड़ जगत्‌ के निर्माण के लिए आवश्यक पांचों तत्त्वों की उत्पत्ति मन की क्रिया के ही परिणाम हैं, इस सिद्धांत का समर्थन करते हुए गुरू अमरदास लिखते हैं :


इस मनु ते सभ पिंड पराणा ॥(3-1128)

'सभी पिंड व प्राण मन से ही निर्मित होते हैं।' शरीर पांच तत्त्वों - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश - से निर्मित होता है। अतः 'सभी शरीर मन से बनते हैं' का तात्पर्य है कि शरीरों के लिए आधार सामग्री मन प्रस्तुत करता है। जहां तक प्राण का प्रश्न है वह न केवल किसी एक पिंड का बल्कि सभी पिंडों का, यहां तक कि ब्रह्मांड का भी प्रेरक बल (motive force) है। यह ब्रह्मांड का, और साथ ही, इसमें स्थित एक-एक पिंड का पोषण करने वाला बल है। ''व्यक्ति में यह न केवल जीवित रखने वाली शक्ति (sustaining force) है, बल्कि क्रियाशील शक्ति (working force) भी है जैसे चयापचयी ताप (metabolic heat) जो रक्त संचार, पाचन, श्वसन, वृद्धि और विघटन के लिए उत्तरदायी है।''(जे. रुद्रप्पा कृत Kashmir Saivism) यही वह शक्ति है जो प्राणियों में इंद्रियों के विकास में प्रतिफलित होती है। हम कह सकते हैं कि प्राण इंद्रियों में प्रथम है। यह उनका मूल है। इस तरह गुरू साहिब के इस कथन कि 'सभी प्राण व सभी पिंड इस मन से हैं', का आश्य यही निकलता है कि पांच ज्ञान व पांच कर्म इंद्रियों की शक्ति तथा पाँच भौतिक तत्त्वों की उत्पत्ति मन से ही होती है।


जड़, प्राण व मन के बीच संबंधों के दूसरे क्रम के बारे में भी बाणी में प्रमाण मिल जाते हैं। गुरू नानक देव जी एक स्थान पर लिखते हैं :

इहु मनु पंच तत ते जनमा ॥(1-415)

'इस मन की उत्पत्ति पांच भौतिक तत्त्वों से होती है।' इसी तरह भक्त कबीर जी लिखते हैं :

इहु मनु पंच तत को जीउ ॥(कबीर -342)


'यह मन पांच तत्त्वों का जीव है अर्थात्‌ पांच तत्त्वों से उत्पन्न है।’ हालांकि यदि हम कबीर जी के कथन का अर्थ 'यह मन पांच तत्त्वों का जीवन है' अर्थात्‌ 'पांच तत्त्व मन से जीवन प्राप्त करते हैं', लगा लें और गुरू नानक के कथन का अन्वय, मनु ते जनमा इहु पंच तत (का जगत) कर लें तो इन उद्धरणों से मन-प्राण-जड़ का क्रम ही स्पष्ट होता है न कि जड़-प्राण-मन का। किंतु मन, प्राण व जड़ के जिन संबंधों का संकेत प्रथम दृष्टया इन दोनों कथनों से प्राप्त होता है, उसका समर्थन आर्ष परंपरा से भी होता है। मुण्डकोपनिषद (1.1.8) में लिखा है, ''तप से ही ब्रह्म घनीभूत होता है। उससे अन्न और अन्न से प्राण, मन तथा लोक पैदा होते हैं।'' दूसरी ओर आर्ष परंपरा में मन, प्राण व जड़ के उस संबंध को भी रेखांकित किया गया है जिसकी चर्चा पहले हम कर आये हैं अर्थात्‌ मन से प्राण उत्पन्न होता है जो ज्ञान व कर्म की इंद्रियों में प्रतिफलित होता है। उदाहरणार्थ, केनोपनिषद के पहले श्लोक में शिष्य गुरू से पूछता है, "किसकी इच्छा से भेजा हुआ मन अपने विषय में जाता है। यह प्रथम प्राण किसकी प्रेरणा से चलता है। मनुष्य जो इस वाणी को बोलता है, किसकी इच्छा से बोलता है और वह कौन-सा देवता है जो आंख और कान को अपने अपने विषयों में लगाता है।" इस श्लोक में मन, प्राण, वाणी, चक्षु और श्रोत्र का वर्णन क्रम से आया है। वाणी कर्म इन्द्रिय है, जबकि चक्षु व श्रोत्र ज्ञान इन्द्रियां हैं। मन ज्ञान व कर्म इन्द्रियों का राजा है, उसकी चर्चा सबसे पहले है, इंद्रियों की चर्चा अंत में है, बीच में प्राण है। प्राण को 'प्रथमः' कहने से हमारे इस कथन की पुष्टि होती है कि यह सभी इंद्रियों में प्रथम है, इसकी उत्पत्ति मन से है। मन विचार है, प्राण ऊर्जा है। विचार से ऊर्जा की उत्पत्ति स्वाभाविक है। यही ऊर्जा ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों में प्रतिफलित होती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक साहित्य व आदिग्रंथ दोनों में जड़, प्राण व मन के बीच संबंधों की दो प्रणालियों का कथन है। एक वह है जिसके अनुसार उत्पत्ति का क्रम मन-प्राण-जड़ है, दूसरी प्रणाली के अनुसार उत्पत्ति का क्रम जड़-प्राण-मन है। दोनों कथन सर्वथा सत्य हैं।


ब्रह्मांड की रचना हो चुकी। इस रचना का मौलिक कारण प्रभु की गतिशील चेतन शक्ति है जिससे ब्रह्मांड में एक शाश्वत गति का सूत्रपात होता है। प्रश्न उठता है कि ब्रह्मांड की इस गति की अंतिम परिणिती क्या होगी? क्या यह निरंतर प्रसृत होता जायेगा या इसका कभी संकुचन भी होगा? आइन्सटाइन की फील्ड समीकरणों के आधार पर रूसी भौतिकविद अलेक्जेंडर फ्रीडमान ने इस प्रसरणशील ब्रह्मांड की तीन संभावनाएं बताई हैं। एक संभावना यह है कि ब्रह्मांड निरंतर फैलता जायेगा और अंततः छिन्न-भिन्न हो जायेगा। दूसरी संभावना भी पहले जैसी है, दोनों में अंतर यह है कि समाप्ति की गति अत्यंत धीमी होगी। तीसरी संभावना यह है कि ब्रह्मांड का संकुचन शुरू होगा, धीरे-धीरे संकुचन की गति बढ़ती जायेगी, अंततः यह शून्य बिन्दु पर पहुँच कर समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार भौतिक विज्ञान ब्रह्मांड के भविष्य को लेकर निराशावादी है। दूसरी ओर वेदान्त में ब्रह्मांड के प्रसरण और संकुचन दोनों को स्वीकार किया गया है लेकिन इसका सुर शून्यवादी (nihilistic) नहीं है। जगत् का प्रसरण और संकुचन अनंत बार हुआ है और अनंत बार आगे भी होगा। जगत् के एक बार प्रसरण और संकुचन में लगने वाले काल को पुराणों में ‘कल्प’ कहा गया है। “विष्णु पुराण (6.3.10-12; 6.4.9) में कहा गया है कि एक मानव वर्ष देवताओं के एक दिन और रात के बराबर होता है। एक देव वर्ष में 360 देव दिवस होते हैं। 12000 देव वर्षों से एक चार युगों वाला चतुर्युग बनता है और 1000 चतुर्युग से ब्रह्मा का एक दिन अथवा एक कल्प बनता है। इस प्रकार एक कल्प में 4.32 अरब मानव वर्ष होते हैं। ब्रह्मा की एक रात्रि में भी 4.32 अरब मानव वर्ष होते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा के एक दिन और एक रात में 8.64 अरब मानव वर्ष होते हैं। इस अवधि को 360 से गुणा करने पर हमें ब्रह्मा का एक वर्ष प्राप्त होता है जिसमें 3110.4 अरब या 3.1104 ट्रिल्यन मानव वर्ष बनते हैं। ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष होती है जो मनुष्यों के हिसाब के अनुसार 311.04 ट्रिल्यन वर्ष ठहरती है।”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -813) स्थूल रूप से एक ब्रह्मा की जीवनावधि ही एक ब्रह्मांड की जीवनावधि है। एक ब्रह्मा के अवसान के पश्चात दूसरे ब्रह्मा आते हैं। इस प्रकार असंख्य ब्रह्मा हो चुके हैं और असंख्य आगे होंगे। सृष्टि की इस चक्रीय यात्रा का न कोई प्रारंभ बिन्दु है और न ही कोई समाप्ति बिन्दु है। इस काल-चक्र को श्वेताश्वतर उपनिषद ‘ब्रह्म-चक्र’ (the wheel rotated by Brahman) कहता है।


ब्रह्मांड के भविष्य को लेकर वेदान्त और विज्ञान दोनों इस बिन्दु पर सहमत हैं कि हमारा ब्रह्मांड शाश्वत नहीं है, यह एक दिन समाप्त अवश्य होगा। लेकिन यह समाप्त कैसे होगा? वैज्ञानिक के पास इसका एक उत्तर उत्क्रम-माप अथवा एन्ट्रॉपी (entropy) है। किसी प्रणाली में परमाणुओं व अणुओं की सापेक्ष अव्यवस्था को एन्ट्रॉपी कहते हैं। यह काल का बाण है। ब्रह्मांड की एन्ट्रॉपी निरंतर बढ़ रही है, और उसके साथ-साथ इसमें उपलब्ध मुक्त ऊर्जा की मात्रा कम हो रही है। एक ऐसा समय आएगा जब ब्रह्मांड की एन्ट्रॉपी अधिकतम होगी और मुक्त ऊर्जा की मात्रा शून्य हो जायेगी। इस तरह माया से निर्मित होने वाला ब्रह्मांड, जर्मन वैज्ञानिक हर्मन वॉन हेल्महोल्त्ज के शब्दों में, एक ‘मरणोन्मुख ब्रह्मांड’ (doomed universe) है। लेकिन वेदान्त के अनुसार ब्रह्मांड के दो रूप हैं। इसका एक रूप हमारी ज्ञानेन्द्रियों व मन-बुद्धि द्वारा जाना जाता है, यह परमात्मा की जड़ शक्ति द्वारा निर्मित है। इसका दूसरा रूप चैतन्य है, यह परमात्मा की चेतन शक्ति द्वारा निर्मित है। परमात्मा की चेतन शक्ति को वेद में ऋत (Order) कहा गया है। इसके अनुसरण में हम परमात्मा की जड़ शक्ति को अनृत (dis-order) कह सकते हैं। परमात्मा की जड़ शक्ति कम अव्यवस्था से अधिक अव्यवस्था की ओर यात्रा करती है जिससे इसमें एन्ट्रॉपी निरंतर बढ़ती जाती है। दूसरी ओर परमात्मा की चेतन शक्ति/शब्द में सदैव व्यवस्था बनी रहती है जिसके कारण शब्द से निर्मित होने वाले ब्रह्मांड में एन्ट्रॉपी सदैव शून्य रहेगी। पूर्ण व्यवस्था और शून्य एन्ट्रॉपी साथ-साथ रहते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि मायिक ब्रह्मांड की समाप्ति, जिसे प्रलय कहा गया है, के बाद भी इस ब्रह्मांड का शब्द द्वारा निर्मित आध्यात्मिक रूप बना रहेगा। इसका अभिप्राय यह है कि ब्रह्मांड के भौतिक, प्राणिक और मानसिक रूपों के नष्ट हो जाने के उपरांत शब्द इसके आध्यात्मिक रूप को ऐसे समेट लेता है कि जैसे बाजीगर खेल को समेट लेता है। सृष्टि की समस्त विविधता की रचना एक खेल है जिसका सूत्रपात शब्द द्वारा इस विविधता के आध्यात्मिक रूपों की रचना से होता है और जिसे शब्द के संकल्प के अनुरूप माया द्वारा इनके अनुवर्ती मानसिक, प्राणिक और भौतिक रूपों की रचना द्वारा उत्तरोत्तर उत्कर्ष की ओर ले जाया जाता है और अंततः जिसका शब्द के ही सत्य संकल्प से उपसंहार कर दिया जाता है :

बाजीगर डंक बजाई ॥ सभ खलक तमासे आई ॥

बाजीगर स्वांगु सकेला ॥ अपने रंग रवै अकेला ॥(कबीर जी, पृ -655)


पुराणों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विनाश के अनेक भेद बताये गये हैं। विष्णु पुराण (1.7.44-45) में जगत् रचना के तीन प्रकार - प्राकृत, दैनंदिन और नित्य - बताये गये हैं। जगत् रचना के प्राकृत प्रकार में ब्रह्मांड का क्रमविकास सांख्योक्त प्रकृति से महान बुद्धि के प्रकटन से शुरू होता है। विष्णु पुराण के अनुसार इसकी अवधि ब्रह्मा की आयुपर्यंत अर्थात 311.04 ट्रिल्यन मानव वर्ष के बराबर है। तब ब्रह्मा का अवसान हो जाता है, सृष्टि का भी लय हो जाता है। तदुपरांत नये ब्रह्मा कार्यभार संभालते हैं जो सृष्टि की रचना करते हैं। एक ब्रह्मा के अवसान और दूसरे ब्रह्मा के प्रसव के बीच कितनी अवधि है? शास्त्रों में यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहा है, और ऐसा उचित भी है। अवधि का संबंध काल (Time) से है और काल का जन्म ब्रह्मा के साथ होता है न कि उससे पहले : प्रथमे ब्रहमा कालै घरि आइआ ॥(1-227) अतएव काल से ‘पहले’, ‘बाद में’ जैसे शब्द इस संदर्भ में अर्थहीन हैं। रचना के दूसरे प्रकार को ‘दैनंदिन’ कहा गया है, इसका अर्थ ‘दैनिक’ है। ‘दैनिक’ का संबंध ब्रह्मा के दिन से है, इसी अवधि को कल्प कहा गया है। ब्रह्मा के एक दिन अर्थात कल्प के अंत में भूः, भुवः और स्वः नामक तीन लोक नष्ट हो जाते हैं। ध्यान रहे कि ये तीन लोक गुरु नानक देव जी द्वारा निर्दिष्ट सरमखंड, ज्ञानखंड, और धर्मखंड नहीं हैं। यदि हम सचखंड को अलग छोड़ दें तो गुरु नानक ने करमखंड से लेकर धर्मखंड तक सृष्टि का विभाजन चार खंडों में किया है, दूसरी ओर वेद में और पुराणों में भी इन चार खंडों को सप्त लोकों में विभाजित किया गया है। इसका विस्तारपूर्वक अध्ययन धर्मखंड में किया जायेगा। यहाँ इतना ही जानना पर्याप्त है कि कल्प के अंत में जिन तीन लोकों का नष्ट होना बताया गया है वह गुरु नानक देव द्वारा वर्णित त्रिलोकी का लगभग आधा भाग है। ब्रह्मा की रात्रि के पश्चात दूसरे कल्प का आरंभ होता है और इन तीनों लोकों का पुनः सृजन होता है। जगत् रचना के तीसरे प्रकार को ‘नित्य’ कहा गया है। ब्रह्मांड के अस्तित्व में रहते हुए ही इसमें लघु और बृहत स्तर पर सृजनात्मक प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। बृहत स्तर पर आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों, उपग्रहों का निर्माण हो रहा है; लघु स्तर पर शरीरों का और उन्हें निर्मित करने वाले कणों, अणुओं आदि का निरंतर निर्माण हो रहा है। यही नित्यप्रति हो रही जगत् रचना है।


इसी प्रकार प्रलय के चार रूप बताये गये हैं - नित्य, नैमित्तिक (occasional), प्राकृत और आत्यांतिक। प्रत्येक पिंड प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है, यह नित्य प्रलय है; प्रत्येक कल्प के अंत में तीन लोक नामतः भूः, भुवः और स्वः नष्ट हो जाते हैं, यह नैमित्तिक प्रलय है; ब्रह्मा की जीवनावधि की समाप्ति पर अपरा प्रकृति के समस्त विकासज परा प्रकृति में लय हो जाते हैं, यह प्राकृत प्रलय है; आत्यांतिक प्रलय में जीव माया के समस्त बंधनों को काट कर ब्रह्म में लीन हो जाता है।


(शेष आगे)

 

Continue reading▶️Kartapurush ep37

 

2 commentaires

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Dhruv Sarin
Dhruv Sarin
07 avr. 2023
Noté 5 étoiles sur 5.

interesting 😀

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RK25
RK25
05 avr. 2023
Noté 5 étoiles sur 5.

Very good 👍.

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