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Revealing Deep Secrets of God, Man & the World : Mulmantra Introduction ep1

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Jul 18, 2024

The Mulmantra Articles by Guru Spakes : Revealing the Deep Secrets of God, Man and the World. Read now!
 

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The Mulmantra is a small but lyrical composition written by Shri Guru Nanak Dev Ji, founder of the Sikh Panth. Mulmantra is accorded the same respect by the Sikhs which is accorded to the Gayatri Mantra by the Hindus.

What is so special in Mulmantra? Is the Mulmantra and Gayatri Mantra similar?

Read Mulmantra introduction part 1 to know the meaning of this poem in a very concise form.

 

The Mulmantra is a foundational and sacred text in Sikhism, serving as the opening verse of the Guru Granth Sahib, the religion's holy scripture. It encapsulates the core tenets of Sikhism, distilling the essence of the divine and guiding the path towards enlightenment.


The Mulmantra's significance lies in its ability to condense profound spiritual truths into a concise and melodious form, making it accessible to all seekers of spiritual understanding. It serves as a constant reminder of God's omnipresence, transcending all forms and limitations.


The Mulmantra delves deep into the nature of God, emphasizing the unity and oneness of all creation. It highlights God's attributes of fearlessness, compassion, and timelessness, inspiring individuals to emulate these qualities in their own lives.


The Mulmantra's message is one of unity, love, and service. It encourages individuals to recognize the divinity within themselves and to treat all beings with respect and compassion. It guides them towards a life of purpose, aligned with the divine will.


Here's a summary of the text's message and how it can help readers:


  • Message: The Mulmantra conveys the fundamental belief in one supreme God, the source of all creation and the embodiment of all virtues. It emphasizes the unity of all beings and the inherent divinity within each individual.

The Mulmantra can help readers in the following ways:

  • Develop a deeper understanding of God: It provides a concise and profound description of God's nature, attributes, and omnipresence.

  • Embrace unity and compassion: It encourages individuals to recognize the interconnectedness of all beings and to treat all with respect and love.

  • Emulate divine qualities: It inspires individuals to strive for fearlessness, compassion, and timelessness in their own lives.

  • Live a purposeful life: It guides individuals towards a life aligned with the divine will, focused on service and spiritual growth.




Read the next article▶️Mulmantra Introduction ep2

 

मूलमंत्र सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरू नानक देव जी द्वारा लिखी गयी एक लघ्वाकार लयबद्ध रचना है। चौदह मूलभूत शब्दों में विन्यसत यह रचना इस प्रकार है :

੧ ਓੱ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि।


सिखों का एक विशाल बहुमत मूलमंत्र का पाठ करते हुए इन शब्दों के जोड़े बना लेता है। इसके कारण इन शब्दों की संख्या आठ हो जाती है और मूलमंत्र का पाठ इस प्रकार हो जाता है :

१ਓੱ (इक ओंकार) सतिनामु करतापुरखु निरभउ निरवैरु अकालमूरति अजूनीसैभं गुरप्रसादि।


इस तरह मूलमंत्र के पदों की सर्वाधिक संख्या चौदह है जबकि न्यूनतम आठ है। किंतु समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती। ऐसे भी लोग हैं जो 'सतिनामु' पद को दो स्वतंत्र शब्दों ‘सति’ व ‘नामु’ में विभाजित करने का आग्रह करते हैं । कुछ और लोगों के अनुसार ‘अजूनी’ व ‘सैभं’ पद स्वतंत्र हैं न कि समस्त पद। कई बार यही आग्रह 'करतापुरखु' व 'गुरप्रसादि' समासों के बारे में भी किया जाता है। इससे मूलमंत्र में आये स्वतंत्र पदों की कुल संख्या कहीं 8 तो कहीं 9, 10, 11, 12 या 13 निश्चित होती है। विद्वानों व सिख धर्मवेत्ताओं में इस मतभेद का कारण यह है कि मूलमंत्र के महान लेखक ने इसकी रचना करते समय मध्यकालीन परिपाटी का अनुसरण किया जिसमें शब्दों को एक दूसरे से संयुक्त कर दिया जाता था और विराम चिह्नों का प्रयोग प्राय: नहीं किया जाता था। दूसरे, लेखक की सूत्रात्मक शैली, गुरू-गंभीर सामासिक पद्धति, परसर्गों, संबंधकों, क्रियाविशेषण व क्रियापदों की पूर्ण रूप से अनुपस्थिति भी पाठकों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है।


आदिग्रंथ के भिन्न-भिन्न संस्करणों में मूलमंत्र के पाठ-भेद भी मिलते हैं, किंतु मैंने रचना का प्राधिकृत रूप ही लिया है।


मूलमंत्र के संबंध में पहला विवाद १ व ਓੱ के बीच संबंधों को लेकर है। प्रो0 साहिब सिंह, विनोबा भावे, डा0 गोपाल सिंह, त्रिलोचन सिंह जैसे विद्वान १ को ਓੱ का विशेषण मानते हैं। लेकिन भाई वीर सिंह के अनुसार १ संख्यावाचक विशेषण नहीं है बल्कि संज्ञा है। इसी विचार का समर्थन वजीर सिंह, डा0 मोहन सिंह जैसे विद्वानों ने किया है। हमारा मानना है कि '१' स्वतंत्र पद है। यह ਓੱ का विशेषण नहीं। संख्यांक १ बताता है कि परमात्मा अद्वय (non-dual) है, वह आत्मनिर्भर, पूर्णतया स्वतंत्र और स्वावलम्बी है। वह सब प्रकार के भेदों से भेदरहित चैतन्य है। ध्यान रहे कि '१' प्रभू-तत्व में निहित पूर्ण एकत्व को रेखांकित करता है लेकिन वह उस एकत्व में बहुत्व की गुंजायश से इन्कार नहीं करता। अर्थात् प्रभू-तत्व अद्वैत है लेकिन उसमें विशिष्टद्वैत, द्वैताद्वैत, व द्वैत की संभावनाएं भी संभव है। अंक '१' इस बात पर बल देता है कि मूल सत्ता के सदृश (जैसे जीव) या असदृश (जैसे त्रैगुणात्मक माया) दीखने वाली बहुलता उसी प्रभू-सत्ता की अभिव्यक्ति-मात्र है व उसी पर निर्भर है। सारे भेद-प्रभेद प्रभू-सत्ता से हैं, उसके अंदर है। सब कुछ ब्रह्म ही है।


संख्यांक '१' के पश्चात् आने वाली तीन पदों ਓੱ सति व नामु द्वारा एक परमात्मा (१) के त्रिविध स्वरूप का कथन किया गया है। ਓੱ गुरमुखी वर्णमाला के पहले वर्ण ਓੋ (उढ़ा) का परिवर्तित रूप है और भाई गुरदास उसे 'ओअंकार' कहते हैं। किंतु ओअंकार स्वयं ओंकार का ही परिवर्तित रूप है और ओंकार में 'कार' प्रत्यय वर्ण निर्देशमात्र है अर्थात् ओंकार व ओम् एक ही है जैसा कि मांडूक्योपनिषद के पहले मंत्र से पता चलता है। इससे पता चला कि ਓੱ ओअंकार है और यह ओम् (ॐ) अथवा ओंकार से अभिन्न है जोकि सदियों से भारत में समादृत धार्मिक प्रतीक रहा है। अब कठोपनिषद (1/2/16) में कहा गया है कि ओम् ही ब्रह्म है, यही परमब्रह्म है। अर्थात् ओम् अंतस्थ (immanent) भी है और परात्पर (transcendent) भी। ओंकार के अंतस्थ रूप का स्वरूप आद्य ध्वनि (primordial sound) व ज्योति है जबकि इसके परात्पर रूप का स्वरूप निर्धारण असंभव है। ओंकार का अंतस्थ रूप परमात्मा की करयत्री शक्ति की ओर संकेत करता है जबकि दूसरे परात्पर रूप से एक ऐसी आद्य सत्ता की ओर संकेत हाता है जिसमें सिर्फ समाया जा सकता है लेकिन जो हमारे ज्ञान व ध्यान का विषय बन ही नहीं सकता। हमारा मानना है कि आदिग्रंथ में 'ओअंकार आदि मैं जाना।। (कबीर जी - पृ0 340) ओअंकारि उतपाती ।। कीआ दिनसु सभ राती ।। (5-1003) जैसी पंक्तियों से ओंकार के अंतस्थ पक्ष का वर्णन होता है जबकि मूलमंत्र में आए ਓੱ से परात्पर पक्ष का। अत: मूलमंत्र का पहला अंक '१' जिस परमात्मा की ओर संकेत करता है उसका पहला पाद ਓੱ है। यह परमात्मा के सर्वव्यापी एकत्व का मूल, आदि स्वरूप है। उसी को वाणी में 'आदि पुरख', 'आदि सच', 'आदि गुरू' कहा गया है। लेकिन स्वयं यह सत्ता अनिर्धार्य, अपरिभाषनीय है। चूंकि हमें उसके किसी गुण, लक्षण का ज्ञान नहीं, अत: हम ਓੱ को निर्गुण ब्रह्म कहेंगे।


यदि ਓੱ निर्गुण ब्रह्म है तो सति सगुण ब्रह्म है। सति किसी शब्द का विशेषण नहीं, यहां तक कि यह परमात्मा का भी विशेषण नहीं, यह परमात्मा के स्वरूप का लक्षण है। ਓੱ एक वर्णमात्र है, शब्द नहीं। वर्णों का अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता। सति का अर्थ है 'अस्तित्व', यह स्वीकृतिवाचक पद है। परमात्मा सदा-सदा एक है, १। जब उसे ਓੱ कहा गया तो संकेत यह है कि वह नास्ति (nothingness) है, उसमें कुछ ऐसा है जिसे बताया नहीं जा सकता; जब उसे सति कहा गया तो संकेत यह है कि वह अस्ति (existence) है। ਓੱ का निवास धुंधुंकारे की अवस्था में है, सति का निवास सचखंड में है। ਓੱ शून्य है, सति एक है। ਓੱ निरंकार है, यह नेति-नेति है, यहां हर प्रकार के अस्तित्व का निषेध है। सति एकंकार है, यह इति-इति है, यहां अस्तित्व का प्रत्येक रूप एक शाश्वत एकता में निवास करता है। इसके बावजूद दोनो एक हैं : सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधि आपि ।। (5-290) ਓੱ अनन्त, अमूर्त, निराकार व निर्गुण है। निस्संदेह यह अनंतता कोई रिक्तता नहीं। यह एक शाश्वत गुरू-गंभीर ऊर्जा से परिव्याप्त है जिससे साधक का अंतर्मन एक पावन विस्मय से ओत-प्रोत हो जाता है किंतु उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति नहीं रखी जा सकती। मानव केवल उसी से प्रेम कर सकता है जो मानवोचित गुणों से विभूषित हो अर्थात वह सगुण हो। सति सत्यस्वरूप परमात्मा ही वह हस्ती है जो गुण-निधान अथवा सगुण है। सति 'असचरज रूपं' नैण पसंदो' 'प्रीतम पिआरा' है। इसी सत्यस्वरूप सत्ता को धर्म में भगवान् कहा गया है। इसी के लिए भक्त कवि बड़ी अधीनस्थ विनम्रता के भाव से, लेकिन बड़े ही अपनत्व के साथ तूं, तेरा, तुधनो, तेरे, तुहनो, तुमारा, तुम, तुझ, तैंडा, तहिंजा आदि सर्वनामों का प्रयोग करते हैं।


सति गुण सहित सत्ता है। लेकिन उसमें क्या गुण हैं? मूलमंत्र का अगला पद इसका उत्तर देता है - 'नामु'। सति का गुण 'नामु' है। सति सगुण है, नाम उसका गुण है। सति व्यक्ति है, नाम उसका व्यक्तित्व है। नाम संज्ञा-मात्र (noun) नहीं। भाई वीर सिंह लिखते हैं कि ''नाम वाहेगुरू जी से अभेद उसकी कोई अपनी कला व्यापक वस्तु है।'' नाम में नामी सति के सभी गुण मौजूद हैं। सति सविशेष ब्रह्म है, नाम सति की विशेषता है। सति ज्ञानस्वरूपी है, नाम उसका ज्ञान है। सति 'प्रीतम पिआरा' है, नाम उसका प्रेम है। सति रससिक्त हरि है, नाम उसका रस है, 'हरिरस'।


हमने कहा कि सति गुणनिधान सत्ता है और उसका गुण 'नामु' है। यहां नाम एकवचन में आया है। लेकिन इसके विरुद्ध दो आपत्तियां की जा सकती हैं। पहली, गुरू अर्जुन देव लिखते हैं : गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ।। (5-296) गोबिंद के गुण हैं - नाम व ध्वन्यात्मक वाणी। यह ध्वन्यात्मक वाणी कुछ और नहीं बल्कि शब्द-ब्रह्म है, मूल ध्वनि है, जिससे यह सब कुछ बना है। अम् धातु के साथ 'न' उपसर्ग जोड़ने पर ‘नाम’ शब्द प्राप्त होता है। ‘अम्' का अर्थ है - चलना (to move), आवाज करना (to sound)। आवाज नहीं होती है जहां गति हो, अत: शब्द सति का गतिशील पक्ष है, जबकि नाम सति का स्थिर पक्ष है। नाम व शब्द -ये दोनों सति के दो पक्ष हैं जिनके माध्यम से सति समस्त सृष्टि का सृजन, पालन व संहार करता है :

तूं आपि चलिआ आपि रहिआ आपि सभ कल धारीआ ।। (5-248)


यदि सत्यस्वरूपी परमात्मा सति के दो गुण हैं - नाम व शब्द तो मूलमंत्र में आए एकवचन पद 'नामु' को सति का गुण कहना अनुचित ही है।


दूसरे, सति गुणनिधान सत्ता है और बाणी में स्पष्ट कहा गया है कि उसका गुण न तो एक है - 'नामु'। और न ही दो हैं - नाम व शब्द । बल्कि उसके गुण अनंत हैं : कहण न जाई तेरे गुण केते ॥ (1-358) सति सविशेष ब्रह्म है। उसकी विशेषताओं का अंत नहीं, न ही अंत है उनका जो उन विशेषताओं का कथन करते हैं : अंतु न सिफती कहणि न अंतु ॥ (1-5) ऐसे में मूलमंत्र में आए तीन पदों ਓੱ, सति व नामु का अर्थ क्रमश: निर्गुण ब्रह्म, सगुण ब्रह्म व सगुण का गुण करना गलत हो जाता है।


(शेष आगे)

 

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1件のコメント

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Sanatan Dharma 🕉️
Sanatan Dharma 🕉️
2023年12月27日
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It is a very good article. I liked it.

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