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Satnam ep47 – सतनाम भाग 47

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Aug 6, 2023

In the Bhagvadgeeta, Shri Krishna said, "The nature of Karma is very difficult to know. Verily, in order to understand the nature of Karma, one has also to understand the nature of Vikarma and the nature of Akarma." What does the Lord mean by the words Karma, Akarma and Vikarma?


भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं,"मनुष्य को कर्म के तत्त्व को जानना चाहिए और अकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए और विकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।"(4.17) कर्म, अकर्म और विकर्म क्या हैं, यह जानने के लिए पढ़ें सतनाम 47.

Satnam ep47
Satnam ep47

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गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : ''क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इस विषय में तो बड़े बड़े ज्ञानी भी चकरा जाते हैं। वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा जिसको जानकर तू संसार बंधन से मुक्त हो जाएगा।''(4.16) "मनुष्य को कर्म के तत्त्व को जानना चाहिए और अकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए तथा इसी तरह विकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए क्योंकि कर्मों की गति गहन है।"(4.17) ''जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी है और कृतकृत्य है।''(4.18) कर्म (action) गति (movement) है। गति माया है। माया के कर्म में अहं व कामना दो लक्षण होते हैं। अकर्म (Not-action) में कर्म, गति, अहं और कामना इन चारों का अभाव है। इसी को बाणी नाम कहती है। नाम पूर्णतया निष्क्रिय, स्थिर, ज्ञानमय व तृप्त सत्ता है। विकर्म पद कर्म में 'वि' उपसर्ग के योग से बना है जो विपर्यय का निर्देश करता है। विकर्म कर्म अर्थात माया और अकर्म अर्थात नाम दोनों से विपरीत है। विकर्म नाम के विपरीत गतिशील व कर्मशील है लेकिन माया के विपरीत ज्ञानमय व तृप्त है। इस तरह विकर्म माया से श्रेष्ठ और नाम से गौण है, यह इन दोनों का मध्यवर्ती शब्द है। त्रिगुणात्मिक माया में रहता हुआ कोई मनुष्य सद्ग्रंथों के अध्ययन व सूक्ष्म विवेक से यह समझ सकता है कि शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि कर्म की समस्त सामग्री संसार की है और इसका उपयोग संसार की सेवा के लिये करना चाहिए। ऐसा मनुष्य अपने लिये प्रभु-कृपा के द्वार खोल लेता है। लेकिन यह ज्ञान केवल बौद्धिक ज्ञान है जो मनुष्य को बुद्धिमान अर्थात बुद्धि का स्वामी तो बनाता है लेकिन योगी नहीं अर्थात उसे परमात्मा के साथ अपने नित्यसिद्ध संबंध का अनुभव नहीं होता। मनुष्य को यह अनुभव शब्द से होता है। शब्द से जुड़ा मनुष्य युक्त अर्थात योगी है। शब्द समस्त जागतिक गति व कर्म को जन्म देने वाली प्रभु-शक्ति है, लेकिन वह ये समस्त कर्म प्रभु के हुकम में कर रही है। शब्द से जुड़े साधक के सभी कर्म अहं व कामना से रहित प्रभु की सेवा व अर्चना के भाव से सम्पन्न होते हैं। इससे भी परे नाम में कर्म के समस्त रहस्यों से पर्दा उठ जाता है, साधक कृतकृत्य हो जाता है, अर्थात वह उस कृत्य को कर लेता है जिसके लिये उसने मनुष्य देह धारण की थी। सिद्ध अवस्था को प्राप्त ऐसा योगी ही 'अचर-चरै' की भूमिका में स्थित होता है।


गीता का वक्ता व श्रोता दोनों उत्तरवैदिक काल में हुए थे। उससे भी पहले ईशोपनिषद लिखा गया था। यह प्राचीनतर या वैदिक उपनिषदों की श्रेणी से सम्बन्ध रखता है। श्रीअरविंद लिखते हैं, ''यही वह एकमात्र उपनिषद है जिसने शंकराचार्य के ऐकान्तिक मायावाद और व्यावहारिकसत्ताविरोध के सामने प्रायः अलंघ्य कठिनाईयां प्रस्तुत कीं और इसी कारण उनके महत्त्म अनुयायियों में से एक ने इसे प्रामाणिक उपनिषदों की सूची से ही निकाल दिया।'' इस कारण इस उपनिषद का संक्षिप्त अध्ययन यहां बड़ा लाभदायक रहेगा। इस उपनिषद के पहले तीन मन्त्रों में ऋषि त्याग और भोग एवं कर्म और कर्मों के बंधन से मुक्ति, इन दो विरोधी छोरों के बीच सामंजस्य का समर्थन करता हुआ लिखता है : ''इस गतिशील समष्टि जगत्‌ में जो भी यह गतिशील वैयक्तिक जगत्‌ है, यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इसका त्यागपूर्वक उपभोग करो। दूसरे के धन पर ललचाई दृष्टि मत डाल ॥1॥ इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। तेरे लिये यही विधान है, इससे भिन्न और नहीं है। (जब मनुष्य इस विधि से कर्म करता है तो) मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता ॥2॥ (इससे भिन्न विधि से जीवन जीना आत्मा का हनन करने के समान है) जो कोई भी अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे सभी लोग यहाँ से प्रयाण करने पर उन लोकों में पहुंचते हैं जो प्रकाशहीन हैं और गाढ़े अंधकार से आच्छादित हैं। ॥3॥" इस प्रकार इस गतिशील व बहुलतामय जगत्‌ का यथार्थ उपभोग त्याग पर निर्भर करता है, किंतु यह जगत्‌सत्ता त्याज्य नहीं, अपितु हमारे अहंकार पर आधारित कामना का तत्त्व ही त्याज्य है। मुक्त आत्मा व कर्म में कोई विरोध नहीं। कारण, जगत्‌ को उत्पन्न करने वाली परमसत्ता स्वयं ही एक साथ निश्चल व गतिशील है। ऋषि अगले दो मन्त्रों में लिखता है : वह एक है। वह अचल है, फिर भी मन से अधिक वेगवान है। जहाँ देवता (इंद्रियां) नहीं पहुंच सकते वहां वह पहुंच जाता है। वह ठहरा हुआ भी दौड़ते हुए दूसरों को पार कर आगे निकल जाता है। सब प्रकार की जागतिक क्रियाओं पर शासन करने वाला मातरिश्वा इसमें जलधाराओं को स्थापित करता है ॥4॥ श्रीअरविंद के अनुसार यहाँ मातिरश्वन्‌ का अर्थ है : ''वह जो अपने आपको माता में या आधार में विस्तारित करता है।'' जगत् का आधार प्रभु की अक्षर सत्ता नाम है। दूसरी ओर प्रभु की क्षर शक्ति शब्द है जो इस आधार में विस्तृत होती और हमारे इस जगत् के रूप में प्रकट होती है। इस तरह जगत् के प्रभु सति ही जगत् के आधार हैं और वही इस आधार में विस्तृत हुए हैं : आपे जंत उपाइअन आपे आधार ।।(4-556) अतः मातरिश्वन्‌ सति है जो अपने आपको नामशब्द में प्रकट करते हैं और इस तरह अचल व वेगवान एकसाथ हैं। सति ने नाम में अपः अर्थात्‌ जलधाराओं को स्थापित किया है। ये जलधाराएं ऋग्वेद में बताई गईं सात धाराएं सप्तसिंधु हैं। ऋग्वेद में बार बार 'सात' की बात कही गई है जैसे सात गौएं, सात रश्मियां, सात ऋषि इत्यादि। ये वस्तुतः सात लोक हैं, जिनके बारे में विस्तृत चर्चा आगे 'कर्तापुरुष' अध्याय में की जायेगी। ये सात लोक मातरिश्वा अर्थात्‌ सति के द्वारा नाम में स्थापित किये गये हैं। इस सत्ता के द्वंद्वात्मक स्वरूप का वर्णन करता हुआ ऋषि आगे लिखता है : 'वह गति करता है और वह गति नहीं करता; वह दूर है और वही पास है; वह इस सबके भीतर है और वह इस सबके बाहर भी है ॥5॥' इस उपनिषद में आगे 13 मन्त्र और हैं, किंतु हमारे प्रस्तुत विषय के संदर्भ में, मन्त्र संख्या 9 से लेकर 14 तक छह मन्त्र बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इन छह मन्त्रों को समझने व उनके अर्थों में तारतम्य बैठाने के प्रयत्न उपनिषदों के महानतम भाष्यकार शंकराचार्य से लेकर विनोबा भावे तक ने किये हैं, किंतु ये मन्त्र आज तक पहेली बने हुए हैं। ये छह मन्त्र तीन तीन मन्त्रों के दो त्रिक हैं। पहले त्रिक में विद्या और अविद्या के युग्म की बात कही गई है और दूसरे त्रिक में संभूति और असंभूति के युग्म की। ऋषि लिखता है : जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे घने अंधकार में प्रवेश करते हैं। परंतु जो केवल विद्या में रमें रहते हैं, वे उससे भी अधिक घने अंधकार में प्रवेश करते हैं ॥9॥ विद्या से जो प्राप्त होता है वह दूसरा ही है। अविद्या से जो मिलता है वह भी और ही है। यह ज्ञान हमने ज्ञानियों से प्राप्त किया है जिन्होंने हमारे समक्ष तत्‌ को प्रकाशित किया ॥10॥ जो तत्‌ को उस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, अमरता का आस्वादन करता है ॥11॥ जो असंभूति (जन्माभाव, अपुनर्भव, स्थिर की अवस्था) की उपासना करते हैं वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं। और जो संभूति (परिवर्तनशील) में ही रमे रहते हैं वे मानों उससे भी अधिक घने अंधकार में प्रवेश करते हैं ॥12॥ परिवर्तनशील से जो प्राप्त होता है वह और ही है। स्थिर में रमे रहने से जो मिलता है वह भी और ही है। यह ज्ञान हमने ज्ञानियों से प्राप्त किया है जिन्होंने हमारे समक्ष तत्‌ को प्रकाशित किया ॥13॥ जो तत्‌ को उस रूप में जानता है कि वह एक साथ परिवर्तनशील और स्थिर है, वह परिवर्तनशील द्वारा मृत्यु को पार कर स्थिर से अमरता का आस्वादन करता है ॥14॥ यहाँ असंभूति व संभूति शब्दों का वही अर्थ है जिसे अंग्रेजी में being व becoming कहते हैं। असंभूति सत्तामात्र है, अव्याकृत है, निराकार है। संभूति का अर्थ निर्मित हुए, आकार धारण किए हुए पदार्थ है। विद्या एक के विषय का ज्ञान है। अविद्या बहुत्व के विषय का ज्ञान है। असंभूति सत्ता है और यह विद्या अर्थात्‌ सदा एक समान रहने वाला एकत्व है; संभूति नित्यप्रति परिवर्तनशील आकारों का बहुत्व है जिसमें सत्ता का एकत्व प्रकट होता है। इससे पता चलता है कि उन मन्त्रों में ऋषि ने दो नहीं बल्कि एक ही युग्म को दो दो नाम दिये हैं और उनके द्वारा दो प्रकार की साधनाओं का उल्लेख किया है। आदिग्रंथ की भाषा में कहें तो संभूति व अविद्या शब्द है जबकि असंभूति व विद्या नाम है। दोनों की उपासना के फल भिन्न-भिन्न हैं। विद्या और असंभूति से जो प्राप्त होता है वह भिन्न है; अविद्या और संभूति से जो प्राप्त हो वह भी भिन्न है। शंकराचार्य ने लिखा है कि संभूति कार्यब्रह्म है जिसकी उपासना द्वारा अणिमा आदि ऐश्वर्य का लक्षण प्राप्त होता है जबकि असंभूति की उपासना का फल लय है। विद्वान आचार्य का मत पूरी तरह युक्तिसंगत है। संभूति शब्द है जिसके श्रवण से जीव सिद्ध, पीर, सुर, नाथ, ब्रह्मा, इंद्र, शिव, शेख, पीर, पातशाह इत्यादि बनते हैं; शरीर के रहस्य प्रकट होते हैं; वेदों, शास्त्रों जैसे उत्तम ग्रंथों को रचने की शक्ति मिलती है; इत्यादि। असंभूति नाम है जो गति रूप माया से निर्लेप निरंजन है; इस दशा को प्राप्त जीवात्मा यममार्ग पर नहीं जाती; उसकी बुद्धि व मन में प्रभु के लिये विशेष प्रीत उत्पन्न होती है; वह धर्मारूढ़ हो जाती है; और मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। लेकिन तत्त्व को जानने वाली दृष्टि इन दोनों को एक करके देखती है। ऐसा तत्त्वज्ञानी जानता है कि अविद्या व संभूति रूप शब्द केवल बहुलता व मृत्यु को संभव ही नहीं करता बल्कि यह मृत्यु व बहुलता से परे जाने का एकमात्र साधन भी है। वह शब्द के माध्यम से मृत्यु को पार कर स्थिरता व एकता के धाम नाम में समा कर अमरता का आस्वादन करते हैं। इससे पता चलता है कि वैदिक काल में भी ऐसे विचारकों की कमी नहीं थी जो जागतिक जीवन को एक फंदा, निरर्थक बोझ के समान समझते थे, और क्योंकि यह जागतिक जीवन शब्द से संभव होता है, अतः वह संभवतः इससे बचने का प्रयास करते थे। अतः उसी काल में ईशापनिषद्‌ जैसी महान पुस्तक की रचना हुई जिसने सत्‌ और संभूति, उदासीन अक्षर ब्रह्म और सक्रिय ईश को एक तत्त्व कहा और इस आधार पर त्याग और उपभोग, कर्म और ज्ञान, अचलता और गति के मध्य विरोधों का परिहार किया। इन विरोधों के बीच सामंजस्य की स्थापना का ऐसा ही प्रयास इससे भी पहले ऋग्वेद में किया गया। वहाँ कहा गया कि हमें दिति अर्थात सीमित रूपों की जननी व अदिति अर्थात अनन्त, अखंड जननी, दोनों की आवश्यकता है।(4.39) इसी तरह अन्यत्र ऋषि कहता है कि हे देव! सूर्य की सम्यक्‌ उत्पत्ति व ऐश्वर्य के लिए हमें मुक्तहस्त से दिति प्रदान करें और अदिति का रक्षण करें। 'दितिंच रास्व अदितिम्‌ उस्ष्य।'(4.2.11) इसी परंपरा का पालन आदिग्रंथ में अचरचरै समास के उपयोग द्वारा किया गया। शब्द चर्‌ है अर्थात्‌ चलायमान सत्ता है किंतु यह दिव्य आध्यात्मिक गति है जो अचरता, निश्चलता से उत्पन्न हुई है और उसकी और ले जाने वाला पुल है। सबदे नामु धिआईओ सबदे सचि समाइशब्द का अभ्यास साधना की स्थिति है, नाम में समा जाना सिद्धि की स्थिति है। नाम में समा जाने पर सहज समाधि लगती है अर्थात्‌ मन को वह अडोल अवस्था प्राप्त होती है जहाँ मनुष्य समग्र सांसारिक कर्म करते हुए भी निष्कर्म, निष्कंप, अडोल रहता है। नाम के बिना लगी समाधि प्रयत्नसाध्य होगी, तब मन को सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में अवस्थित रखने के लिए सांसारिक आकर्षणों से, बाहरी जीवन के पल-पल बदलते रहने वाले दुखों-सुखों, झंझटों से अलग रखना होगा। हाटी बाटी रहहि निराले । इसीलिए आदिग्रंथ में सिद्धों के बारे में कहा गया : माइआ भूले फिरहि समाधि न लगै सुभाइ॥(3-67) कि सिद्धों को सहज-स्वभाव ही लगने वाली समाधि का कोइ अता-पता नहीं। उनकी समाधि सदा प्रयत्नसाध्य है। इस तरह सहज-स्वभाव के समान ही अचर्‌-चर्‌ समास भी परम आध्यात्मिक स्थिति की व्यंजना करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति में सत्यस्वरूप परमात्मा सति में निहित दोनों गुण - गत्यात्मकता व स्थिरता - सम व पूर्ण रूप से उपस्थित होते हैं। इस स्थिति में साधक मन को साध लेता है, मन 'मैंनें' की अवस्था में आ जाता है, और वह निर्मल हो जाता है : मनु असाधु साधै जनु कोइ ॥ अचरु चरै ता निरमल होइ ॥(3-159) इस अवस्था में साधक सिद्धि को, पूर्ण सफलता को प्राप्त कर लेता है :

अचरु चरै ता सिद्धि होई सिद्धि ते बुद्धि पाई ॥

प्रेम के सिर लागे तन भीतरि ता भ्रमु कटिआ जाइ ॥(4-607)


अचर्‌ व चर्‌ को एक साथ सिद्ध करने वाले साधक प्रभु से मिलाप कर लेते हैं, ऐसे व्यक्ति को ही जीवनमुक्त कहा जाता है :

सबदि मरै तां एक लिव लाइ ॥ अचरु चरै तां भरमु चुकाए ॥

जीवन मुकतु मनि नामु बसाए ॥ गुरमुखि होइ त सचि समाए ॥(1-412)


गुर परसादी सिव घरि जमै विचहु सकति गवाए ॥

अचरु चरै बिबेक बुद्धि पाए पुरखै पुरखु मिलाइ ॥ (3-1276)


(शेष आगे)


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