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The Oneness of all things. Kartapurush ep55

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Mar 10, 2024

The world is an ocean, where the waves represent individual souls. As long as we have a sense of ego, we are like the waves, separate from the ocean. But when we realize that we are all part of God, our ego disappears and we see that we are all one.
  • Sant Ravidas ji compares the world to the ocean, with the waves representing individual souls.

  • He says that as long as we have a sense of ego, we are like the waves, separate from the ocean.

  • But when we realize that we are all part of God, our ego disappears and we see that we are all one.

  • This is the same as the difference between Brahman (pure consciousness) and Maya (illusion).

  • Brahman is the calm ocean, while Maya is the disturbed ocean full of waves.

  • When we realize that we are all part of Brahman, we see through the illusion of Maya and experience oneness with God.

  • The idea of ego is a central concept in many spiritual traditions. It is the sense of separation from God and others that causes us suffering.

  • When we can let go of our ego, we experience true freedom and peace.

  • This is the message of Sant Ravidas ji's poem: that we are all one, and that there is no need to feel separate from God or each other.

This message is relevant to everyone, regardless of their religious beliefs. Here are some specific ways that the text can help its readers:

  • Provide a sense of connection and belonging.

  • Offer comfort and solace in times of difficulty.

  • Inspire hope and optimism.

  • Encourage self-reflection and spiritual growth.

  • Help us to let go of our ego and experience true oneness with God.

The text can help its readers to understand the nature of reality and our place in it. It can teach us that we are all part of something larger than ourselves, and that we are all connected. This can help us to feel more compassion and understanding for others, and to live our lives with greater purpose and meaning.


Ultimately, the text can help us to find true peace and happiness. When we realize that we are all part of God, we can let go of our fear and anxiety, and live our lives in a state of love and acceptance.

  • If someone is feeling lost or alone, the text can remind them that they are not alone. They are part of something larger than themselves, and they are loved and accepted by God.

  • If someone is struggling with their ego, the text can help them to see that the ego is an illusion. When we let go of our ego, we can experience true freedom and peace.

  • If someone is seeking spiritual growth, the text can offer guidance and inspiration. It can help them to connect with their inner wisdom and to find their true path in life.

 

Read the previous article▶️Kartapurush ep54

 

जगत् के विषय में शंकराचार्य के दृष्टिकोण को समझना बड़ा दिलचस्प है। यह बात प्रसिद्ध है कि शंकर ने जगत्‌ को असत्‌ कहा है किंतु सत्य इससे कोसों दूर है। शंकर के अनुसार सत्य (Reality) की परिभाषा है - ‘सत्य वह है जो सत् है’ (whatever exists is existent)। ‘जो कुछ भी सत् है वह सत्य है।’ इस वाक्य में कर्ता (subject) और कर्म (object) समान हैं। यह एक पुनरुक्ति (tautology) है। यह ऐसे है जैसे कोई कहे कि ‘क=क’। अतः यह एक स्वतःसिद्ध वाक्य है, इसे किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ध्यान रहे कि ‘जिसका अस्तित्व है वह सत्य है’ (whatever exists is existent) और ‘जिसका अस्तित्व है वह ब्रह्म है’ (whatever exists is Brahman) -वेदान्त में दिये जाते ये दो वक्तव्य समान वक्तव्य हैं जबकि सेंट एन्सेलम (1033-1109) द्वारा परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये दिया गया वक्तव्य - ‘परमात्मा का अस्तित्व है’ (God exists) - एक भिन्न वक्तव्य है। ‘जिसका अस्तित्व है वह ब्रह्म (सत्य) है’ (whatever exists is Brahman (existent)) -यह वक्तव्य बताता है कि ब्रह्म संज्ञा उस सत्य की है जिसका वास्तव में अस्तित्व है। यह ब्रह्म के अस्तित्व को सिद्ध नहीं करता, यह एक तथ्य का ब्योरा मात्र देता है, इस वक्तव्य की सत्यता को सिद्ध करने के लिये प्रमाण की जरूरत ही नहीं है। दूसरी ओर ‘ब्रह्म या परमात्मा का अस्तित्व है’ (Brahman or God exists) -यह वाक्य ब्रह्म की परिभाषा दे रहा है। सेंट एन्सेलम के वक्तव्य पर कांट और डेविड हेउम ने जो आक्षेप लगाये हैं वे सर्वथा उचित हैं। शाब्दिक परिभाषाओं से सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।


अब शंकर सत्य के तीन प्रकार मानता है - पारमार्थिक सत्य, व्यावहारिक सत्य और प्रातिभासिक सत्य। (ब्रह्मसूत्र शंकर भाष्य 3.2.22) पारमार्थिक सत्य शुद्ध अस्तित्व, अविकारी, शाश्वत, अनादि, अनंत, निराकार, निर्गुण, अक्रिय है। शंकर का तर्क है कि जो भी सत्ता रूप, गुण, कर्म, परिणाम (modification) और संबंध सहित होगी वह नश्वर होगी क्योंकि रूप और गुणों को धारण करने और क्रिया करने में कर्म होता है, जहां कर्म है वहाँ ऊर्जा का व्यय है, जहां ऊर्जा का व्यय है वहाँ सत्ता शाश्वत और अकाल नहीं होगी। (ब्रह्मसूत्र भाष्य 1.1.4) अतएव पारमार्थिक सत्य का रूप शाश्वत मौन, ‘सुन्न’ का होगा। ऐसा सत्य अद्वैत, अविच्छिन्न, अखंड व समरूप होगा। आदिग्रंथ में सत्य के इसी रूप को नाम/केवल नाम/कादर/शिव आदि कहा गया है।


सत्य का दूसरा रूप ‘व्यावहारिक सत्य’ कहा गया है। जगत् का सत्य, शंकर के अनुसार, व्यावहारिक सत्य ही है। जगत् को व्यावहारिक सत्य कहने का अर्थ है कि इससे जीव का व्यवहार तभी तक होता है जब तक उसे अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है। इसका अस्तित्व निरपेक्ष नहीं है अपितु इसका अस्तित्व ब्रह्म पर निर्भर है। जगत् का निर्माण ईश्वर ने किया है और यह एक सापेक्ष, सोपाधिक सत्य है। जगत् के इसी रूप को शंकर ने ‘मिथ्या’ कहा है। ‘मिथ्या’ पद ‘सत्’ से असंगत है किन्तु यह ‘सत्’ से प्रतिकूल नहीं है। ‘सत्’ का प्रतिकूल पद ‘असत्’ है। ‘सत्’ का अर्थ ‘है’ है; ‘असत्’ का अर्थ ‘नहीं है’ है; ‘मिथ्या’ का अर्थ ‘है और नहीं है’ एकसाथ है। ईश्वर माया की तुलना में ‘है’ है जबकि ब्रह्म की तुलना में ‘नहीं है’ है। ईश्वर को आदिग्रंथ में शब्द/कुदरत/शक्ति आदि कहा गया है।


इस तरह ब्रह्म/नाम सत्य है और उसका अस्तित्व ध्रुव और असंदिग्ध है। जगत् भी सत्य है क्योंकि इसकी रचना ईश्वर/शब्द द्वारा की गई है। ईश्वर/शब्द ब्रह्म/नाम का परिणाम नहीं है, यह ब्रह्म का विवर्त है अर्थात ब्रह्म ही ईश्वर के रूप में विपरीत होकर वर्त रहा है। ईश्वर/शब्द व ब्रह्म/नाम दोनों सहशाश्वत और सनातन हैं लेकिन ईश्वर ब्रह्म पर आश्रित है। दोनों के बीच वही संबंध हैं जो अग्नि और ताप में हैं या सूर्य और किरण में हैं या पुष्प और सुगंध में हैं। चूंकि जगत् की रचना ईश्वर द्वारा की गई है अतएव इसकी सत्यता सापेक्ष और परिवर्तनशील है। इस तर्क से अद्वैतवाद, द्वैतवाद व बहुलतावाद को एक साथ स्वीकृति मिल जाती है और इसमें कोई तार्किक विरोधाभास और हेत्वाभास (fallacy) की गुंजायश नहीं रहती।


शंकर के अनुसार सत्य का तीसरा रूप प्रातिभासिक है, यही सत्य माया का सत्य है जिससे हम सभी परिचित हैं। जगत् के पारमार्थिक सत्य का व्यावहारिक सत्य में रूपांतरण विवर्त के कारण होता है और जगत् के व्यावहारिक सत्य का प्रातिभासिक सत्य में रूपांतरण अध्यास के कारण होता है। विवर्त का अर्थ है - अतात्विक परिवर्तन। वस्तु ज्यो की त्यों रहे, आप भ्रान्तिवश उसे अन्यथा समझ लें। यह अन्यथा भाव ही विवर्त है। अध्यास का अर्थ है - मिथ्या ज्ञान। अतत् मे तत् का ज्ञान, जो वस्तु जैसी नहीं है उसे भ्रमवश वैसा समझ लेना ही अध्यास है। यह भ्रम ही अध्यास है। विवर्तवाद सिद्धांत के अनुसार जगत् ब्रह्म का वास्तविक आभास (True Reflection) है, ब्रह्म ही जगत् के रूप में प्रतीत होने लगता है। अध्यास सिद्धांत के अनुसार जगत् ब्रह्म का अवास्तविक आभास (illusory appearance) है जबकि ब्रह्म इस आभास का अधिष्ठान है। परमात्मा और जगत् के मध्य इन्हीं संबंधों का निदर्शन भगत रविदास जी ने निम्नलिखित शब्द में किया है :

जब हम होते तब तू नाही अब तूही मै नाही ॥

अनल अगम जैसे लहरि मइ ओदधि जल केवल जल मांही ॥1॥

माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥

जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥1॥ रहाउ॥

नरपति एकु सिंघासनि सोइआ सुपने भइआ भिखारी ॥

अछत राज बिछुरत दुखु पाइआ सो गति भई हमारी ॥2॥

राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥

अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥3॥

सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई ॥

कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥4॥(रविदास जी - 657)


‘हे माधो! जब तक हम जीवों में मैं-मेरी का भाव रहता है, तब तक तू हमारे अंदर प्रकट नहीं होता, पर जब तू प्रत्यक्ष होता है तब हमारी ‘मैं-मेरी’ दूर हो जाती है; तब हमें ये समझ आ जाती है कि जैसे बड़ा तूफ़ान आने से समुंदर लहरों से पूरी तरह भर जाता है, पर असल में वह लहरें समुंदर के पानी में पानी ही हैं वैसे ही ये सारे जीव-जंतु तेरा अपना ही विकास हैं।’ इस पंक्ति में सत्य के तीन रूप बताए गये हैं। पहला शांत सागर है; दूसरा तूफ़ान से विक्षुब्ध और लहरों से भरपूर सागर है; तीसरा उन लहरों के स्वतंत्र अस्तित्व का भ्रम है। ब्रह्म/नाम अनंत और माया रहित चैतन्य है; यह शांत, अक्रिय व समांगी सत्ता है; यही शंकर द्वारा कथित पारमार्थिक सत्य है। ईश्वर/शब्द माया सहित चैतन्य है; यह विक्षुब्ध, सक्रिय व विषमांगी सत्ता है; इसे शंकर ने व्यावहारिक सत्य कहा है। सत्य का तीसरा रूप माया है जिसे शंकर प्रातिभासिक सत्य कहता है। शब्द के व्यावहारिक सत्य और माया के प्रातिभासिक सत्य में अंतर यह है कि शब्द में अनेकता एक आभास के रूप में होती है, जीव को यह ज्ञान होता है कि अनेकता का यह आभास प्रभू की लीला मात्र है और इससे हमारा व्यवहार तभी तक है जब तक हम इससे पार नहीं चले जाते। किन्तु माया में यह अनेकता एक अनिवार्य तथ्य के रूप में होती है। शब्द में ज्ञान से पतन नहीं है, माया पूर्ण अज्ञानता है।


रहाउ की पंक्ति में भक्त जी लिखते हैं, “हे माधव! क्या कहें, हम जीवों को भ्रम ही कुछ ऐसा पड़ा हुआ है। हम जगत् को जैसा मान बैठे हैं वह वैसा नहीं है।” जीव नहीं जानते कि उनका मूल दिव्य है और देश व काल में जगत् का समस्त विस्तार माया के तीन गुणों की छलमयी क्रीड़ा है। भगवद्गीता में कहा गया है कि 'इस संसार वृक्ष का जैसा रूप वास्तव में है वैसा यहाँ देखने को नहीं मिलता। इसका न तो कोई आदि है, न अंत है, न ही स्थिति है।’(15.3) ब्रह्मर्षि विश्वात्मा बावरा जी लिखते हैं, "सत्कार्यवाद के सिद्धांतानुसार यदि आप किसी पदार्थ का अनुसंधान करें तो आपको वह पदार्थ वैसा नहीं मिलेगा जैसा वह दिखता है। एक व्यक्ति का शरीर बाहर से कितना सुंदर दिखता है लेकिन अंदर जाकर देखिए वह वैसा नहीं है। ………….जो आप अपनी आँखों से देख रहे हैं वह सत्य नहीं है, बिल्कुल भ्रांति है ………..आँखें तो केवल वस्तु का परिचय ही दे सकती हैं लेकिन वह वस्तु क्या है यह आँख नहीं बता सकती। ……..यह तुम्हारा स्वीकार किया हुआ संसार है लेकिन वैसा है नहीं। स्वीकार करने में कारण रही तुम्हारी बुद्धि। तुम्हारी अशुद्ध बुद्धि से अशुद्ध रूप स्वीकार किया गया है।"(धर्मविज्ञान भाष्य -15, पृ -31) आप आगे लिखते हैं, "जो भी वस्तु आप देखते हैं उसमें दो हेतु हैं – रंग और आकृति। ………….पदार्थ का जो रंग आप देखते हैं वह उसका अपना रंग नहीं है। रंग तो सूर्य की किरणों का है। जब सूर्य की किरणें पदार्थ पर पड़ती हैं तो जिन रंगों को पदार्थ आत्मसात कर लेता है वे तो दिखाई नहीं देते और जिनको आत्मसात नहीं करता वह रंग बाहर आ जाता है और वही रंग दिखाई देता है …………उस पदार्थ ने जो रंग अस्वीकार कर दिया आप उसे उस पदार्थ का रंग मान रहे हैं। यह ज्ञान है या अज्ञानता।"


"अब आप आकृति देखिए। …………कोई भी आकृति बिना रेखा के नहीं बनाई जा सकती और रेखा का मूल आधार है बिन्दु, बिना बिन्दु के रेखा नहीं बनाई जा सकती ………….जिस रेखा के आधार पर आकृति को स्वीकार किया गया है वह रेखा अपने आप में कुछ नहीं है वह केवल बिन्दु की गति है ……..एक ही आकृति को कई कोण से देखा जा सकता है ………एक ही वस्तु को आप कई कोण से कई आकृतियों में देख सकते हैं। इसलिए अपनी आँखों से देखे होने के नाते आकृति की सत्यता की घोषणा करना भ्रांति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ………..एक ही ऊर्जा, एक ही प्रकृति अनंत रूपों में प्रकट हो रही है। यहाँ जो विभिन्नता तुम्हें दिखाई दे रही है वह है नहीं।"(धर्म विज्ञान भाष्य -15, पृ -32) लेकिन हम जीव उस एकता के प्रति बेसुध हैं, हमें उस एकता का कोई ज्ञान नहीं है।


फिर दूसरी पंक्ति में आप लिखते हैं, “जैसे कोई सत्तासीन नरेश सो जाए, और सपने में भिखारी बन जाए, तब राज्य के अक्षत रहते हुए भी स्वप्न में राज्य के खो जाने के कारण दुखी होता है, वैसे ही हे माधव! तुझसे वियोग के भ्रम के कारण हम जीवों का यह हाल हो रहा है।” इस उदाहरण में सत्तासीन नरेश का जाग्रतावस्था में अपने वैभव के प्रति सचेत होना एक भिन्न अवस्था है और फिर स्वप्नावस्था में उस वैभव की स्मृति के विस्मरण व अवास्तविक दरिद्रता रूपी मोह के कारण दुखी होना भिन्न अवस्था है। हम पहली अवस्था की तुलना परमेश्वरी शक्ति/शब्द के दिव्य ठाठ से और दूसरी अवस्था की तुलना माया की विपन्नता से करेंगे। इन दोनों से भिन्न तीसरी अवस्था ब्रह्म/नाम की है, जिसका यहाँ कोई संकेत तो नहीं है किन्तु इसका अस्तित्व विवक्षित अवश्य है।


‘संयोग-वियोग’ समास के अध्ययन के क्रम में हमने देखा है कि नाम में परमात्मा से संयोग होता है, शब्द में परमात्मा से वियोग होता है, किन्तु शब्द का वियोग वास्तविक नहीं है, इसमें जीव को ज्ञान होता है कि प्रभू पिता मानों उससे लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं। उसे प्रभू पिता के प्रत्यक्ष दर्शन तो नहीं होते किन्तु उसे उसकी उपस्थिति का आभास अवश्य होता है। माया की दशा में जीव को न केवल प्रभू पिता के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होते बल्कि उसे प्रभू पिता की उपस्थिति का आभास भी नहीं रहता है। इस तरह जीव का परमात्मा से वियोग वास्तविक नहीं है, यह केवल जीव का माना हुआ है। यह वियोग केवल अन्यथा भाव है। माया की अवस्था में इस संयोग में वियोग का भ्रम हो जाता है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :

मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ ॥

मनमुखि सोझी ना पवै वीछुड़ि चोटा खाइ ॥

नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ ॥(1-60)


‘ये जीव परमात्मा से मिले हुए ही हैं, इनका परमात्मा से मिलाप क्या करवाएं! शब्द का अभ्यास तो केवल परमात्मा की हुज़ूरी का दृढ़ विश्वास दिलाने के लिये किया जाता है। शब्द की प्राप्ति गुरमुख जीव को होती है। जो मनमुख हैं वे शब्द से, और उससे मिलने वाले ज्ञान से वंचित रहते हैं और वे परमात्मा से बिछुड़ कर दुख सहते रहते हैं। लेकिन गुरमुख जीवों को ज्ञान हो जाता है कि प्रभू के दर (शब्द) और प्रभू के घर (नाम), दोनों में एक सत्य स्वरूप प्रभू सति का ही निवास है, उसके अलावा जीवों का और कोई आश्रय नहीं है।


हमने लिखा है कि जीव परमात्मा से मिले हुए ही हैं, शब्द का अभ्यास उन्हें केवल परमात्मा से शाश्वत मिलाप की अवस्था का विश्वास दिलाने के लिये होता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि शब्द के अभ्यास के बिना ही परमात्मा से शाश्वत मिलाप की अवस्था पर विश्वास मात्र से जीव का उद्धार हो जायेगा। कतिपय वेदांतियों में यह विचार काफी बलवान रहा है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ -ऐसे दृढ़ विश्वास से जीव उत्तम अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। किन्तु बाणी में इसका खंडन किया गया है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :

जिनि रंगि कंतु न राविआ सा पछो रे ताणी ॥

हाथ पछोड़ै सिरु धुणै जब रैणि विहाणी ॥2॥

पछोतावा ना मिलै जब चूकैगी सारी ॥

ता फिरि पिआरा रावीऐ जब आवैगी वारी ॥3॥

x x x x x

जो दिलि मिलिआ सु मिलि रहिआ मिलिआ कहीऐ रे सोई ॥

जे बहुतेरा लोचीऐ बाती मेलु न होई ॥7॥(1-725)


‘हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रेम से पति-प्रभू से मिलाप का आनंद नहीं लिया, वह आखिर को पछताती है। जब उसकी जिंदगी की रात बीत जाती है तब वह अपने हाथ मलती है, सिर मारती है। पर जब जिंदगी की सारी रात समाप्त हो जाएगी, तब पछतावा करने से कुछ हासिल नहीं होता। उस प्यारे प्रभू से फिर तभी मिलाप किया जा सकता है, जब फिर कभी मानव जीवन की बारी मिलेगी। x x x x हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने अंतःकरण में परमात्मा से मिलाप किया है, वही उस प्रभू से मिला रहता है, उसी मनुष्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह प्रभू से मिला हुआ है। सिर्फ बातों से प्रभू के साथ मिलाप नहीं हो सकता, चाहे कितनी ही चाहत करते रहें।’ गुरू अमरदास जी एक स्थान पर लिखते हैं :

गोविदु गुणी निधानु है अंतु न पाइआ जाइ ॥

कथनी बदनी न पाईऐ हउमै विचहु जाइ ॥

सतगुरि मिलिऐ सद भै रचै आपि वसै मनि आइ ॥(3-32)


‘परमात्मा गुणों का खजाना है। उसके गुणों का आखिरी छोर ढूंढा नहीं जा सकता। सिर्फ यह कहने से कि ‘मैं वही (ब्रह्म) हूँ’ और फिर ऐसे कथनों के समर्थन में वाद-विवाद करने से परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। परमात्मा तभी मिलता है यदि मनुष्य के अंदर से अहम् खत्म हो जाए। इसके लिये उसे गुरू के पास जाना चाहिए। गुरू के मिलने से मनुष्य का हृदय सदा परमत्मा के डर-अदब में भीगा रहता है। और इस तरह परमात्मा स्वयं मनुष्य के हृदय में आ बसता है।’


अंतिम दो पंक्तियों में पहले तो दो दृष्टांत दिए गए हैं और फिर अंत में अध्यात्म के सारवान सत्य को बयान किया गया है। आप लिखते हैं, “जैसे रस्सी और साँप का दृष्टांत है, जैसे सोने से बने हुए अनेक कड़े देख के भ्रम पड़ जाए कि सोना ही कई किस्म का होता है, वैसे ही हमें भ्रम पड़ा हुआ है कि ये जगत् तुझसे अलग है, पर तूने अब मुझे कुछ-कुछ भेद जता दिया है। अब वह पुरानी भेद-भाव वाली बात मुझसे कहीं नहीं जाती, भाव, अब मैं ये नहीं कहता कि जगत् तुझसे अलग हस्ती है। अब तो रविदास कहता है कि वह प्रभू-पति अनेक रूप बना के सभी में एक स्वयं ही है, सभी घटों में खुद ही बैठा जगत के रंग माण रहा है। दूर नहीं, मेरे हाथ से भी नजदीक है, जो कुछ जगत् में हो रहा है, उसी की रजा में हो रहा है।”


इससे स्पष्ट हो जाता है कि गुरबाणी में शंकर के समान ही जगत् के तीन सत्यों को स्वीकृति दी गई है। पहला ब्रह्म/नाम का सत्य है; दूसरा ईश्वर/शब्द का सत्य है; तीसरा माया का सत्य है। ब्रह्म/नाम में जगत् की समस्त विविधता एकत्व की अवस्था में है, यह जगत् का पारमार्थिक सत्य है। ईश्वर/शब्द में जगत् की विविधता बहुत्व की अवस्था में है, यह जगत् का व्यावहारिक सत्य है। जगत् के पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य में एकत्व और बहुत्व का ही अंतर है, इससे अधिक नहीं। जीव को उस समस्त बहुत्व में प्रछन्न और उसे आश्रय देने वाले एकत्व का ज्ञान होता है। जगत् के प्रातिभासिक सत्य में भी जगत् की विविधता बहुत्व की अवस्था में होती है किन्तु जीव को उस बहुत्व में प्रछन्न और उसे आश्रय देने वाले एकत्व का ज्ञान नहीं रहता है।


जगत् के इन तीन सत्यों के संदर्भ में गुरबाणी की और अधिक समीक्षा करने पर कुछ दिलचस्प परिणाम भी मिलते हैं। यह स्पष्ट ही है कि शंकर के उत्तराधिकारियों में से अधिकांश यह नहीं समझ पाये कि जगत् का व्यावहारिक सत्य ब्रह्म की दिव्य माया का सत्य है और यह सत् है जबकि जगत् का प्रातिभासिक सत्य ब्रह्म की अदिव्य माया का सत्य है और यह असत् है। उन्होंने जगत् के व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्यों की समझ को गड्डमड्ड किया है जिससे शंकर द्वारा प्रस्तुत तत्वमीमांसा में बड़े झोल उत्पन्न हो गये। ऐसा लगता है कि पंद्रहवीं सदी में गुरू नानक देव के पदार्पण तक विद्वानों में यह विचार घर कर चुका था कि शंकर द्वारा कथित व्यावहारिक जगत् हमारे नित्यप्रति अनुभव में आने वाला जगत् ही है जबकि शंकर के अनुसार यह तो प्रातिभासिक जगत् था। बाणी में भी इस जगत् को व्यावहारिक सच के रूप में प्रस्तुत किया गया है लेकिन इसके प्रति वही दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दी गई है जो शंकर के अनुसार जगत् के प्रातिभासिक सत्य के प्रति होनी चाहिए। इस संबंध में दो उदाहरण देखे जा सकते हैं।

जीवत लउ बिउहारु है जग कउ तुम जानउ ॥

नानक हरि गुन गाइ लै सभ सुफन समानउ ॥(9-727)


‘हे मन! जगत को तू ऐसा ही समझ कि यहाँ जिंदगी तक ही व्यवहार रहता है। वैसे ये सारा सपने की तरह ही है। इस वास्ते जब तक जीवन है, परमात्मा के गुण गाते रहना चाहिये।’ यहाँ एक तरफ तो जगत् के सत्य को व्यावहारिक सत्य कहा जा रहा है, दूसरी ओर जगत् की तुलना स्वप्न से की जा रही है। हम जान चुके हैं कि शंकर ने ब्रह्म को पारमार्थिक सत्य कहा है; जगत् के परमेश्वरी शक्ति से निर्मित रूप को व्यावहारिक सत्य कहा है; जबकि माया से निर्मित रूप, जिससे हम सभी भली-भांति परिचित हैं, को प्रातिभासिक सत्य कहा है। लेकिन उत्तरकालीन वेदांतियों ने जगत् के व्यावहारिक सत्य और प्रातिभासिक सत्य के बीच के अंतर को और इन्हें निर्मित करने वाली सत्ताओं की प्रकृति व उनके मध्य जटिल संबंधों को समझने में भूल की है। संभवतः इस भूल के बीज शीर्ष स्तर के विद्वानों ने बोए थे जिससे इस भूल को जन-सामान्य में व्यापक स्वीकृति मिल गई और यहाँ गुरू जी इसे ज्यों का त्यों दुहरा रहे हैं। आप माया के सत्य, जिसकी सत्यता स्वप्न से अधिक नहीं है, को व्यावहारिक सत्य कह रहे हैं यद्यपि गुरू साहिबानों ने अपनी वाणी में इस अंतर की भली-भांति व्याख्या की है। इसी प्रकार भक्त कबीर जी ने भी लिखा है :

अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥ निज निरखत गत बिउहारा ॥(कबीर -655)


‘निज निरखत’ अपने स्वरूप के निरीक्षण सेगत बिउहारा’ जगत् का व्यावहारिक स्वरूप समाप्त हो गया। अब जो शेष रह गया है वह है ‘गिआनु बीचारा’ अर्थात नाम और शब्द/सहज और स्वभाव/शिव और शक्ति/प्रभू की सत्ता और शक्ति। ‘अब किआ कथीऐ’ अर्थात अब क्या कहें? कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं रही।


यहाँ प्रश्न पूछा जा सकता है कि ब्रह्म पारमार्थिक सच है, ईश्वर व्यावहारिक सच है, माया प्रातिभासिक सच है, ब्रह्म और ईश्वर की सत्यता को हम अस्वीकार नहीं कर सकते लेकिन माया का सत्य तो असत् ही है? शंकर ने ब्रह्म/नाम को ‘सत्’, ईश्वर/शब्द को ‘मिथ्या’ और माया को ‘असत्’ कहा ही है। लेकिन ऐसा लगता है कि जिस प्रकार जगत के मायिक रूप के संबंध में गुरबाणी में दुहरा दृष्टिकोण अपनाया गया है उसी प्रकार शंकर ने भी अपनाया है। शंकर ने ‘विवेकचूड़ामणि’ के बीसवें श्लोक में ब्रह्म को ‘सत्य’ और जगत् को ‘मिथ्या’ कहा है : ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ……….। इसमें ’सत्य’ का अर्थ ‘शाश्वत रूप से विद्यमान अस्तित्व’ है और ‘मिथ्या’ का अर्थ ‘सापेक्षिक रूप से विद्यमान अस्तित्व’ है। इसके विपरीत माया में इस ‘सापेक्षिक रूप से विद्यमान अस्तित्व’ का क्रम बदल जाता या औंधा (inverted) हो जाता है अर्थात माया में ईश्वर/शब्द के सत्य का क्रम बदलता है लेकिन वह सत्य झूठ नहीं हो जाता है। इसी कारण शंकर माया को ‘प्रातिभासिक सच’ कहता है। शंकर ‘विवेकचूड़ामणि’ में लिखते हैं :

सद्‌ब्रह्म कार्यं सकलं सदैव तन्मात्रमेतन्न ततोऽत्यदस्ति ।

अस्तीति यो वक्ति न तस्य मोहो विनिर्गतो निद्रितवत्प्रजलणः ॥ 232॥


'सत्‌ ब्रह्म का कार्य यह सकल जगत्‌ सत्स्वरूप ही है, क्योंकि यह सम्पूर्ण वही तो है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। जो कहता है कि (उससे पृथक्‌ भी कुछ) है, उसका मोह दूर नहीं हुआ; उसका यह कथन सोये हुए पुरुष के प्रलाप के समान है।'

ब्रह्मैवेदं विश्वमित्येव वाणी श्रौती ब्रूतेऽथर्वनिष्ठा वरिष्ठा ।

तस्मादेतद्‌ ब्रह्म मात्रं हि विश्वं नाधिष्ठानादिन्नतारोपितस्य ॥ 233॥


'यह सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म ही है' - ऐसा अति श्रेष्ठ अथर्वश्रुति कहती है। इसलिए यह विश्व ब्रह्म मात्र ही है, क्योंकि अधिष्ठान से आरोपित वस्तु की पृथक्‌ सत्ता हुआ ही नहीं करती।' इस प्रकार शंकर ब्रह्मांड की सृष्टि, स्थिति और प्रलय को स्वीकार करते हैं। ऐसा नहीं है कि ब्रह्मांड खरगोश के सींग की तरह है ही नहीं। इसका आरंभ होता है, यह विकसित होता है। इसकी एक महान रूप-रेखा है। इसका विकास सप्रयोजन होता है। अंत में माया में इसका लय हो जाता है। इस प्रकार एक सृष्टि चक्र पूर्ण होता है और ऐसे अनंत सृष्टि चक्र होते हैं। जगत् यदि केवल एक भ्रम ही होता तो उसमें ये समस्त प्रक्रियाएं कैसे होतीं? प्रभू की चेतन शक्ति/ईश्वर/शब्द द्वारा निर्मित चेतन जगत् और प्रभू की जड़ शक्ति/माया द्वारा निर्मित जड़ रूप -दोनों का अस्तित्व है। जगत्-सामग्री के ये दोनों रूप अनादि हैं। रचना के दोनों स्तरों पर न तो सृष्टि ‘शून्य पदार्थ से’ (out of nothing) रची जाती है और न ही इसका निर्माण नए सिरे से (de novo) होता है। सृष्टि की रचना के समय रचना के उपादान कारण के ये दोनों रूप अव्यक्त से व्यक्त अवस्था में आ जाते हैं। रचना का पहला रूप ब्रह्म का विवर्त है; रचना का दूसरा रूप ईश्वर का अध्यास है। रचना के पहले रूप में ब्रह्म अधिष्ठान है; रचना के दूसरे रूप में ईश्वर/शब्द अधिष्ठान है। रचना के पहले रूप से ब्रह्मांड का समग्र रूप से और प्रत्येक पिंड का व्यष्टिगत रूप से आनंदमय कोश और कारण रूप (शरीर) निर्मित होता है; रचना के दूसरे रूप से ब्रह्मांड के समग्र रूप से और प्रत्येक पिंड के व्यष्टिगत रूप से शेष चारों कोश यथा, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों तथा सूक्ष्म और स्थूल रूपों (शरीरों) का निर्माण होता है। अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त - यही ब्रह्मांड का चक्रीय पथ है। एक सर्ग काल में ब्रह्मांड का स्वरूप प्रकाश निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की शुरूआत एक क्षण में एक डग में होती है। किन्तु शक्ति के चेतन और जड़ -दोनों रूपों का सृजनात्मक कार्य किसी एक क्षण में समाप्त नहीं हो जाता। यह सम्पूर्ण सर्ग काल में नितान्त जारी रहता है।


दूसरी ओर शंकर ने जगत्‌ को मृषा अर्थात झूठ, असत् कहा है। आगे आप लिखते हैं : सर्वात्मना दृश्यमिदं मृषैव नैवाहमर्थः क्षणिकत्वदर्शनात्‌। (294) 'यह दृश्य जगत्‌ सर्वथा मृषा ही है। इसकी क्षणिकता देखने में आती है, इसलिए यह अहंपदार्थ नहीं हो सकता।' यदि शंकर से पूछा जाये कि जगत्‌ एक साथ सत् व असत् कैसे हो सकता है तो आप इसका उत्तर देते हुए लिखते हैं :

सत्यं यदि स्याज्जगदेतदात्मनोऽनन्तत्वहानिनिर्गमाप्रमाणता ।

असत्यवादित्वमपीशितुः स्थान्नैतत्त्रयं साधु हितं महात्मनाम्‌ ॥ 234॥


'यदि जगत्‌ को सत्‌ कह दिया जाये तो आत्मा की अनन्तता एवं ईश्वर की अवधारणा मिथ्या हो जाती है (क्योंकि जगत्‌ तो क्षणिक है, अनन्त नहीं और एकरस भी नहीं) इससे श्रुति अप्रामाणिक हो जाती है, ये बातें सत्पुरुषों के लिए हितकर नहीं।' अतः सच्चे जिज्ञासुओं को सद्‌मार्ग पर चलाने के लिए 'जगत्‌ असत् है' कह दिया गया है ताकि वे इन्द्रियों को प्रतीत होने वाले जगत्‌ पर ही मुग्ध न हो जायें, बल्कि इसके पीछे व पहले जो मूल सत्ता, अधिष्ठान है, उस तक पहुंचा जाये। अन्यथा जगत्‌ सत्स्वरूप है, सत्य है। शंकराचार्य दार्शनिक सुलभ इसी सावधानी के चलते जगत्‌ को असत् कहते हैं लेकिन उसके अनुयायी उसकी बात को समझे बिना ही इस बात को दुहराते रहे। दूसरी ओर आदिग्रंथ के महात्मा जगत्‌ के हर रूप को सच कहते हैं जो यह वस्तुतः है ही, लेकिन उनके अनुयायी इस बात का मर्म समझे बिना दृष्टिमान जगत्‌ को सच समझ कर आंखे खोल कर इसी में परमात्मा के दर्शन करने की सलाह देने लग गये। भाई वीर सिंह ने तो इसे दृष्टिमानी योग की संज्ञा तक दे डाली। दोनों महात्मा अपनी जगह ठीक हैं किंतु दोनों के व्याख्याकार गलत हैं। जगत्‌ सच है क्योंकि इसका मूल सच है। इसका मूल हमारे अंदर है, इसे जाने बिना, सत्स्वरूप हुए बिना, इस दृष्टिमान जगत्‌ को सच कहना अपने आपको धोख देना है। 'सत्पुरुषों के लिए यह हितकर नहीं।'


शंकराचार्य ने जगत्‌ को अनिर्वचनीय भी कहा है। इसका कारण यह है कि 'सत्‌' का अर्थ 'है' कर दिया जाता है और 'मिथ्या' का अर्थ कई बार 'असत्‌' करके 'नहीं है' कर दिया जाता है। वस्तुतः मिथ्या सत्‌ व असत्‌ के बीच की कोटि है। सत्‌ वह है जो सदा-सदा है। असत्‌ वह है जो कभी नहीं होता। मिथ्या वह है जो किन्हीं परिस्थितियों में सत्‌ है, तो किन्हीं परिस्थितियों में असत्‌ है। वह 'है' और 'नहीं है' के बीच की कोटि है। अर्थात्‌ यह न तो सत्‌ (real) है, न ही असत्‌ (unreal), इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। जब गोस्वामी तुलसीदास से पूछा गया कि इस सम्बन्ध में आपकी क्या राय है, तो आपने कहा :

कोउ कहे सत्य झूठ कहे कोउ उभय प्रबल कोउ माने ।

तुलसीदास परिहरिइ तीनि भ्रम जो आपन पहचाने ॥


निजस्वरूप की पहचान किए बिना इस जगत्‌ को सत्‌ (है) कहना भ्रम है, झूठ (नहीं है) कहना भी भ्रम है और इसे ‘है भी और नहीं भी’ (अनिर्वचनीय) कहना भी भ्रम है। जब निजस्वरूप की पहचान हो जाती है तब ज्ञान होता है कि यह जगत्‌ एक चैतन्य सत्ता का ही विलास है, उस पहचान के अभाव में यही जगत्‌ मिथ्या माया है :

तुलसीदास कह चिदविलास जग बूझत बूझत बूझै ॥


अतएव जगत्‌ में कुछ भी ऐसा नहीं जो अपने मौलिक रूप में अशुभ, अमंगलकारी हो। यह सब ब्रह्म ही है, वह सभी चीज़ो में अखण्ड है। जगत्‌ में जिस किसी चीज की इच्छा की जाती है वह अंततः ब्रह्म की ही इच्छा होती है लेकिन भ्रमित मनुष्य को यह पता नहीं होता कि उसकी इच्छा वास्तव में परमात्मा के लिए है न कि वस्तुओं के लिए। यह भ्रम ही जीव के बंधन का कारण है।


(शेष आगे)

 

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Divyansh
Divyansh
Sep 22, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

Just another day of the week and another great article by Guru Spakes 👌🙏

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Chaitanya Sabharwal
Chaitanya Sabharwal
Sep 02, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

It is inspiring. Also, I wonder how beautifully the text teaches us that we are all part of something larger than ourselves, and how all of us are connected to each other. Keep publishing such content!

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