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The Concept of One True God! Kartapurush ep42

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Oct 26, 2023

  • Learn the concept of one true God and his different experiences in the four realms of the world as described by Guru Nanak.

  • Relate these four experiences to the four types of knowledge – Jnana, Pragyana, Sangyana and Agyana – based on the Upanishads.

  • Kartapurush ep42 also mentions another form of knowledge, Vigyan, that is found in both Adi granth and Sanatani literature.

 

Read the previous article▶️Kartapurush ep41

 

हमने यह जाना कि करमखंड, सरमखंड, ज्ञानखंड और धर्मखंड -इन चारों खंडों में एक सत्यस्वरूप परमात्मा सति ही निवास कर रहा है लेकिन चारों खंडों में उसकी उपस्थिति का हमें होने वाला अनुभव चार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। उपनिषदों के आधार पर हमने इन चारों अनुभवों को क्रमशः ज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान और अज्ञान -ये चार संज्ञाएं प्रदान की हैं। करमखंड में ‘एक परमात्मा’ (Self) के अलावा दूजा या ‘अन्य’ (other than the Self) कोई नहीं है और आत्मा व परमात्मा (Subject and Object; विषयी और विषय) दोनों ऐसे एक हैं कि विषयी (subject) और विषय (object) दो हैं किन्तु दो होते हुए भी एक हैं, दोनों विषयी भी हैं और विषय भी हैं। सरमखंड में ‘एक परमात्मा’ अनेक सत्ताओं में विभक्त होता है जिससे द्वैत की प्रतिष्ठा होती है किन्तु जीव को यह ज्ञान होता है कि इन अनेक रूपों में स्वयं ‘मैं’ (Self) ही आभासित हो रहा हूँ। यहाँ वास्तविकता की तुलना एक ऐसी पुष्प-माला से की जा सकती है जिसमें पिरोए हुए प्रत्येक जीव रूपी पुष्प को यह ‘ज्ञान’ होता है कि प्रत्येक दूसरे पुष्प में आभासित होने वाले रूप में ‘मैं’ ही हूँ। इस ‘ज्ञान’ का आधार सत्ता का स्वरूप से बाहर की ओर ‘प्र-सरण’ या ‘प्र-वृत्ति’ है, इसलिए यहाँ सुलभ ज्ञान को ‘प्र-ज्ञान’ कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि यहाँ विषयी के सामने अनेक विषय हैं और जब भी विषयी को किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करना होगा तो उस प्रक्रिया में विषयी ही विषय बन जायेगा। ज्ञानखंड में एक सत्ता के अनेक रूपों में विभाजन का ज्ञान और उन अनेक रूपों में एकता के धागे की उपस्थिति का ज्ञान जस-का-तस कायम रहता है, इस महत्वपूर्ण परिवर्तन के साथ कि विषयी को जब भी विषय का ज्ञान प्राप्त करना होगा तब ज्ञान की उस प्रक्रिया में वह विषय उसके अपने रूप में सं-लयित (coalesce) होता प्रतीत होगा, इसीलिए ज्ञानखंड में जीव को सुलभ होने वाले ज्ञान की संज्ञा ‘सं-ज्ञान’ है। यहाँ वास्तविकता की तुलना एक ऐसी पुष्प-माला से की जा सकती है जिसमें पिरोए हुए प्रत्येक जीव रूपी पुष्प को यह ‘ज्ञान’ ऐसे होता है कि प्रत्येक दूसरा पुष्प मेरे ही रूप में संलीन हो रहा, जुड़ रहा, सम्मिलित हो रहा है। अस्तित्व के सबसे निचले स्तर धर्मखंड में जब भी विषयी सत्ता को विषय के बारे में ‘ज्ञान’ प्राप्त करना होगा तो उसका वह ‘ज्ञान’ विषय का ज्ञान नहीं अपितु विषय के नाम-रूप के बारे में अपनी धारणाओं (concepts) का ज्ञान होगा, ऐसे में उस ज्ञान को ‘अज्ञान’ ही कहा जाएगा। यहाँ वास्तविकता की तुलना एक ऐसी पुष्प-माला से की जा सकती है जिसमें पिरोए हुए प्रत्येक जीव रूपी पुष्प को दूसरे के बारे में ‘ज्ञान’ ऐसे होता है जैसे प्रत्येक दूसरा पुष्प मेरे से भिन्न है।


हमने सरमखंड और ज्ञानखंड में सुलभ वास्तविकता की तुलना पुष्प-माला से की है। वहाँ मिलती जीवों की अनेकता उस माला के अनेक पुष्प हैं किन्तु पुष्प-माला का निर्माण धागे के बिना नहीं होता है। ‘प्रज्ञान’, ‘संज्ञान’ और ‘अज्ञान’ कहे जाते ‘ज्ञान’ के तीन रूप वे तीन प्रकार के संबंध हैं जिनके अनुसार जीव रूपी वे अनेक पुष्प परस्पर संबंधित होते हैं जिससे वह माला तीन भिन्न-भिन्न खंडों में भिन्न-भिन्न प्रकार से संयोजित होती है किन्तु प्रश्न उठता है कि माला की इस उदाहरण में वह धागा कौन-सा है जो उन मंडलों में, और साथ ही हमारे धर्मखंड में भी प्राप्त होने वाली अनेकता को एकता में पिरोए हुए है? आदिग्रंथ के आधार पर हम उस धागे की संज्ञा शब्द देंगे। दूसरी ओर उपनिषदों और भगवद्गीता में उस शक्ति को ‘ज्ञान’ ‘प्रज्ञान’, ‘संज्ञान’ और ‘अज्ञान’ के अनुसरण में ‘विज्ञान’ कहा गया है।


‘वि+ज्ञान’ से बने ‘विज्ञान’ शब्द में ‘ज्ञान’ के साथ प्रयुक्त उपसर्ग ‘वि’ के तीन संभावित अर्थ हो सकते हैं - विशेष ज्ञान; विरुद्धम् या विपर्यय (opposite) ज्ञान; विविधम् ज्ञान (variety of knowledge or knowledge of variety)। सत्य स्वरूप परमात्मा सति गतिशील और स्थिर, प्रवृत्तिशील और निवृत्तिशील, प्रकट और गुप्त, एक और अनेक, अनंत और सांत, अकाल और काल, सत् और संभूति, नैर्व्यक्तिक और वैयक्तिक, अक्षर और क्षर, निराकार और साकार, निर्गुण और सगुण एकसाथ हैं। सति में निहित इन द्वंद्वों को ही बाणी में नाम और शब्द कहा गया है। नाम को जानकर हम सत्य स्वरूप प्रभू के उस पक्ष को जान लेते हैं जो संसार की समस्त गति से रहित स्थिर, संसार के समस्त कर्म से निवृत, काल और देश से मुक्त अकाल (timeless), अन-आकाशम् (spaceless), अमात्रम् (dimensionless), अखंड (unbroken whole), निष्कल (partless), निर्गुण (undifferentiated), निराकार, अलिंग (devoid of distinguishing characteristics) है। नाम को जानकर ही हम प्रभू को पूर्ण रूप से जान सकते हैं, अतः नाम ही प्रभू का ज्ञान हुआ। जीव को इस ज्ञान/नाम की प्राप्ति त्रिलोकी से परे करमखंड में होती है। बाणी इस ‘ज्ञान’ को पदारथु अर्थात सद्वस्तु, और साथ ही, महारसु कहती है जिसको ग्रहण करके समस्त कामनाएं शांत हो जाती हैं और त्रिलोकी का ज्ञान हो जाता है :

गिआन महारसु भोगवै बाहुड़ि भूख न होइ ॥(1-21)

गिआन पदारथु पाईऐ त्रिभवन सोझी होइ ॥(1-60)


यह ज्ञान माया की समस्त विविधता से रहित निहकेवल गिआनु है, यह सत्यस्वरूप दिव्यसूर्य है जिसकी प्राप्ति से जीव का सत्ता की उच्चतम अवस्था में स्थाई निवास हो जाता है।


नाम के विपरीत शब्द सत्य स्वरूप प्रभू का वह पक्ष है जो करमखंड से नीचे स्थित तीनों लोकों में, काल और देश में मिलने वाले अनेक आकारों में प्रकट होता है। इसका अर्थ हुआ कि शब्द प्रभू का गतिशील, कर्मशील, क्षरणशील, अनेक सांत व साकार रूपों में खंडित पक्ष है। इस प्रकार नाम शब्द का विलोम (opposite) है। यदि नाम ज्ञान है तो शब्द विज्ञान है। यहाँ ध्यान रहे कि माया भी गतिशील, कर्मशील, क्षरणशील, अनेक सांत व साकार रूपों में खंडित है। किन्तु शब्द और माया एक नहीं हैं। प्रभू सति अपने पूर्ण, समग्र रूप में नाम/ज्ञान में प्राप्त होते हैं, इसका तात्पर्य है कि सति नाम में है और नाम सति में है। दूसरी ओर प्रभू सति अपने आंशिक रूप में शब्द/विज्ञान में प्राप्त होते हैं, इसका तात्पर्य है कि सति शब्द में है किन्तु शब्द सति में नहीं है। पुनः प्रभू सति माया में प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि वे न तो माया में हैं और न ही माया प्रभू में है। नाम सति का सत्व (essence) है; शब्द सति की शक्ति (power) है; माया सति की परछाई (phantasm) है।


प्रभू का नाम/ज्ञान करमखंड में है जबकि प्रभू का शब्द/विज्ञान नीचे त्रिलोकी में है, इस वक्तव्य का सीधा-सीधा अर्थ यह निकलता है कि जब तक अभ्यासी त्रिलोकी में है उसे केवल शब्द/विज्ञान की प्राप्ति होगी, नाम/ज्ञान की प्राप्ति त्रिलोकी से बाहर करमखंड में ही होगी। सृष्टि के भिन्न-भिन्न मंडलों में प्राप्त होने वाले प्रभू-सत्ता के भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभवों को लिखते हुए कठोपनिषद की श्रुति कहती है :

यथादर्शे तथात्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके ।

यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥(2.3.5)


इन मंत्र में त्रिलोकी के तीन मंडलों धर्मखंड, ज्ञानखंड और सरमखंड तथा त्रिलोकी से परे तुरीय लोक करमखंड में परमात्मा के ज्ञान के चार भिन्न-भिन्न रूपों की सोदाहरण चर्चा की गई है। ऋषि ने त्रिलोकी के तीन खंडों को क्रमशः पितृलोक, गन्धर्वलोक और ब्रह्मलोक कहा है जबकि करमखंड को उसने ‘आत्मनि’ कहा है। पितृलोक वह है जहां दिवंगत आत्माएं जगत् में पुनः वापसी की अवधि तक रहती हैं। जीव को मृत्यु के सन्निकट और इसके पश्चात और नये जन्म से पहले की अवधि के बीच शब्द का ज्ञान वैसा ही होता है जैसे हम स्वप्न देखते हैं। स्वप्न का अनुभव विश्रंखलित (distorted) होता है और इस अनुभव पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता। गन्धर्वलोक अर्थात ज्ञानखंड में शब्द का अनुभव वैसे ही है जैसे जल में वस्तु के रूप की झलक पड़ती है। ब्रह्मलोक गुरू नानक द्वारा कथित सरमखंड है, यहाँ प्रकाश स्वरूप शब्द और अंधकार स्वरूप माया वैसे ही भिन्न-भिन्न दिखते हैं जैसे हमारे लोक में धूप और छाया का अनुभव सुस्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न होता है। तुरीय लोक करमखंड में जैसे दर्पण में मुखमंडल स्पष्ट दीखता है वैसे ही दृष्टा जीव को ‘मैं वही हूँ’ (अहं सः) या ‘वह मैं ही हूँ’ (सः अहं) के समान प्रभू के दर्शन होते हैं।


प्रभू का नाम/ज्ञान करमखंड में है जबकि प्रभू का शब्द/विज्ञान नीचे त्रिलोकी में है, इस वक्तव्य से हमने यह अर्थ निकाला कि जब तक अभ्यासी त्रिलोकी में है उसे केवल शब्द/विज्ञान की प्राप्ति होगी, नाम/ज्ञान की प्राप्ति त्रिलोकी से बाहर करमखंड में ही होगी, लेकिन हमें यह भी स्मरण रखना है कि नाम और शब्द, ज्ञान और विज्ञान सदैव संयुक्त हैं। अतएव जगत् में नाम, शब्द और माया तीनों हैं। नाम ज्ञान है; शब्द विज्ञान है; माया अज्ञान है। नाम/ज्ञान के स्तर पर जगत् एक विचार (idea) के रूप में प्रभू सति के अंदर है; शब्द/विज्ञान के स्तर पर जगत् एक सारवस्तु, एक वास्तविकता (reality) के रूप में प्रभू सति से बाहर है और वह इसका दृष्टा है; माया/अज्ञान के स्तर पर जगत् एक असार वस्तु, एक आभास के रूप में सति से बाहर है। ध्यान रहे कि प्रभू सति शब्द/विज्ञान के दृष्टा हैं तो माया के भी दृष्टा हैं लेकिन दोनों के संदर्भ में अंतर यह है कि शब्द के संदर्भ में प्रभू सति दयालु हैं तो माया के संदर्भ में प्रभू सति न्यायाधीश हैं। जब तक हम जीव माया में हैं परमात्मा के बारे में हमारा ज्ञान प्रत्यय (idea) मात्र है जिससे हम उसकी कृपा से वंचित रहते हैं। जब हम शब्द/विज्ञान से जुडते हैं तो परमात्मा की उपस्थिति का अहसास होता है जिससे हमारे जीवन-मूल्य सकारात्मक रूप से परिवर्तित होने लगते हैं। जब हम नाम/ज्ञान से जुडते हैं तो हम वही हो जाते हैं। कठोपनिषद की श्रुति कहती है : “जो अ-विज्ञानवान है और सदा अवशीभूत मन से युक्त रहता है, उसकी इंद्रियाँ असावधान सारथी के दुष्ट घोड़ों की तरह वश में न रहने वाली होती हैं।”(1.3.5) मन का अ-विज्ञानवान होना शब्द से रहित होना है, शब्द से जुड़ा हुआ, युक्तेन, मन ही विज्ञानवान होता है। विज्ञानवान मन भलीभाँति युक्तेन अर्थात वशीभूत, स्थिर होता है। जो मन अ-विज्ञानवान होगा, वह अमनस्क (असंयत) और अशुचि होगा। जो मन विज्ञानवान अर्थात शब्द से जुड़ा हुआ होगा वह समनस्क और शुचिपूर्ण होगा। मन का अशुच होना मानों शरीर रूपी रथ का टूटा-फूटा होना है; मन का अमनस्क होना ऐसे है मानों शरीर रूपी रथ अनिपुण रीति से संचालित किया जा रहा हो। इन दोनों दोषों से युक्त शरीर रूपी रथ बार-बार संसार में लौटता है : संसारं चाधिगच्छति ॥(1.3.7) विज्ञानवान होने से ये दोनों दोष समाप्त होते हैं और ऐसा जीव फिर जन्म नहीं लेता : यस्माद् भूयो न जायते ॥(1.3.8) अतएव जीव को चाहिए कि वह विज्ञान अर्थात शब्द को सारथी बनाये : विज्ञानसारथीर्यस्तु ॥(1.3.9) श्रुति के अनुसार इससे मन प्रग्रहवान बन जाता है और मनुष्य विष्णु/नाम के परमधाम में पहुँच जाता है।


भगवद्गीता में ‘विज्ञान’ पद का प्रयोग ‘ज्ञान’ के साथ ही चार बार हुआ है। 3.41 में अर्जुन को कहा गया है कि ‘वह इंद्रियों को वश में करके ज्ञान-विज्ञान का नाश करने वाले काम को मार डाले।’ ‘काम’ अर्थात कामना माया की संतान है जो जीव को उसके स्वरूप से वंचित करती है और वह दुखों से भरे इस संसार में उलझ जाता है। 6.8 में कहा गया है कि ‘योगी उसे कहते हैं जिसका अंतःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हो गया है, जो कूटस्थ और जितेंद्रिय है और जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में समबुद्धि वाला है।’ विज्ञान/शब्द प्रभू की परम, श्रेष्ठ प्रकृति है, जो साधक विज्ञान को जानता है वह भी श्रेष्ठ प्रकृति वाला, इंद्रिय-जित् हो जाता है; ज्ञान/नाम प्रभू का निज रूप है जो कूटवत् स्थिर है, इसे पाकर साधक भी कूटस्थ हो जाता है। 9.2 में कहा गया है कि ‘दोष-दृष्टि न रखने के कारण तेरे लिये फिर से मैं यह अत्यंत गोपनीय ज्ञान विज्ञान सहित कहूँगा जिसको जानकर तू जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायेगा।’ ‘ज्ञान-विज्ञान’ के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व अर्थगर्भित वक्तव्य सातवें अध्याय में मिलता है। इस अध्याय का नाम ही ‘ज्ञानविज्ञानयोग’ है। 7.2 में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैं तेरे प्रति यह ज्ञान विज्ञान सहित संपूर्णता से कहूँगा जिसे जानने के बाद कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है। 7.3 में कहा गया है कि हजारों मनुष्यों में कोई एक परमात्मा की प्राप्ति-रूप सिद्धि के लिये यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले सिद्ध पुरुषों में कोई एक ही मुझे तत्त्वत: जानता है। यहाँ पर परमात्मा को जानने वाले सिद्ध पुरुष और उसे तत्त्वत: जानने वाले सिद्ध पुरुष में भेद किया गया है। परमात्मा को जानने वाले सिद्ध पुरुष को ‘परमात्मा (के ज्ञान) को जानने वाला’ कहा जायेगा जबकि परमात्मा को तत्त्वत: जानने वाले सिद्ध पुरुष को ‘परमात्मा (के ज्ञान) को विज्ञान सहित जानने वाला’ कहा जायेगा। श्रीअरविन्द के अनुसार ज्ञान स्वरूप-ज्ञान है, जबकि विज्ञान सर्वग्राही ज्ञान है। “एक परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव है और दूसरा उसकी सत्ता के विभिन्न तत्त्वों, अर्थात प्रकृति, पुरुष तथा अन्य सब तत्त्वों का यथावत् स्वानुभूत ज्ञान है जिसके द्वारा भूतमात्र अपने मूल भागवत स्वरूप में तथा अपनी प्रकृति के परम सत्य में जाने जा सकते हैं।”(गीता-प्रबंध, पृ -246) इससे पता चलता है कि विज्ञान ज्ञान का साधन-मात्र ही नहीं है, यह वह तत्त्व है जो प्रभू में निहित एकत्व को बहुत्व में प्रतिष्ठित करता है और उस एक तत्त्व से इस आश्चर्यजनक विविधता की रचना करके इसे एक सूत्र में पिरोए रखता है। ‘परमात्मा (के ज्ञान) को जानने वाले’ और ‘परमात्मा (के ज्ञान) को विज्ञान सहित जानने वाले’ -दोनों प्रकार के सिद्ध पुरुषों की आत्मिक सिद्धि में और जगत् को उनसे प्राप्त होने वाली आशीषों में रंच-मात्र भी अंतर नहीं है किन्तु ‘परमात्मा को विज्ञान सहित जानने वाले’ सिद्ध पुरुष का आध्यात्मिक प्रताप अपनी चारूता और भव्यता में शिखर पर होता है। यह संसार परमात्मा को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से कभी भी विहीन नहीं होता है किन्तु परमात्मा को विज्ञान सहित जानने वाले ज्ञानी अति दुर्लभ होते हैं।


इस तरह करमखंड के बाद ज्ञान का निरंतर ह्रास होता है और यह प्रक्रिया धर्मखंड में चरम सीमा पर पहुंचती है। हमने पहले ही लिखा है कि ज्ञान का अर्थ एकत्व की अनुभूति है जबकि अज्ञान का अर्थ बहुत्व की अनुभूति है। सृष्टि में बढ़ती यौगिकता के अनुपात में प्रभू तत्त्व में निहित एकता विभाजित होती व बहुत्व में बदलती है। सरमखंड व ज्ञानखंड का निर्माण प्रभूशक्ति में निहित क्रमशः आनंद व चित्‌ विशेषताओं के विभाजन से हुआ। उसमें केवल सत्‌ तत्त्व ही अक्षुण्य है। सत्‌ का अर्थ अस्तित्व है। जहां सरमखंड में प्रभू की इच्छाशक्ति प्रभू में निहित सनातन ऐक्य से विविध रूपों का निर्माण करती और उस एकता को विविधता में देखकर आनन्दमग्न होती है; ज्ञानखंड में प्रभू की ज्ञानशक्ति एक-एक रूप की विविधता को जानती व उसे सचेतन ऐक्य में धारण किए रहती है; वहीं धर्मखंड में प्रभू की क्रियाशक्ति सक्रिय होती है जो उस विविधता को सक्रिय रख कर उसके अस्तित्व को बनाए रखती है। सरमखंड में विविधता का अस्तित्व प्रभू शक्ति के आनंदमय संकल्प से सुनिश्चित होता है; ज्ञानखंड में विविधता का अस्तित्व प्रभू शक्ति द्वारा स्वयं को उस विविधता में जानने अर्थात ज्ञान से सुनिश्चित होता है; वहीं धर्मखंड में विविधता का अस्तित्व उनमें निहित सक्रियता के गुण से सुनिश्चित होता है। शक्ति का यह क्रियात्मक पहलू सुनिश्चित करता है कि ब्रह्मांड में प्रत्येक सत्ता सक्रिय रहकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए होगी; कि किसी भी सत्ता को कुछ भी प्राप्त करने के लिए दूसरी स्वतंत्र सत्ता से क्रिया-प्रतिक्रिया करनी होगी; कि उनके बीच होने वाली पारस्परिक क्रिया धर्म के सर्वव्यापक नियम के अधीन रहेगी। इस तरह धर्मखंड में एकता पूरी तरह तिरोहित हो जाती है, यहां सत्ता का विभाजन पूर्णरूप से हो जाता है। यहां चेतना का मूल सूत्र है - 'मैं और यह' (I and This)। सचखंड से लेकर धर्मखंड तक चेतना की अवस्थाओं को सार रूप में इस प्रकार बयान किया जा सकता है :

​सचखण्ड

​केवल विषयी

I

करमखंड

विषयी का दो सत्ताओं विषयी और विषय में विभाजन, दोनों में तादातम्यता

I am That (अहं सः)

सरमखंड

विषय का एक से अनेक में विभाजन और विषयी का प्रत्येक विषय में अंतर्निवास

I am This.

ज्ञानखंड

विषयों की बहुलता का मूर्तन और प्रत्येक विषय का विषयी में समावेश

This I am.

​धर्मखंड

विषयी और विषय में भिन्नता। प्रत्येक विषय पूर्णतः स्वतंत्र।

I and This.

(शेष आगे)


 

Continue reading▶️Kartapurush ep43

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RK25
RK25
Jun 08, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

Magnificent.

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