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4 realms of existence & 3 forms of knowledge. Kartapurush ep41

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Nov 20, 2023

  • As per the Adi Granth, there are three forms of knowledge, namely, awareness, Gnosis and Consciousness.

  • The first form of knowledge is accessible to those living beings living in Maya whose scope of consciousness is limited to this illusory circle of our daily experience which Guru Nanak Dev has called Dharmakhand.

  • The second form of knowledge is accessible to those seekers who, after making spiritual progress, enter the superior circle of knowledge called Jnankhand.

  • The best form of knowledge is accessible to those Perfect Beings who go not only beyond Jnankhand but also beyond the most subtle circle called Saramkhand, and enter the fourth circle, Karamkhand.

  • Here the question arises that if there are four realms namely Dharmakhand, Jnankhand, Saramkhand and Karamkhand, then why there are three forms of knowledge only?


  • Knowledge will be in different forms in all the three realms namely Karamkhand, Saramkhand and Jnankhand. If we take Dharmakhand along with it, then there will be four forms of knowledge. Is there any evidence in the Adi Granth to support this view?

Read the previous article▶️Kartapurush ep40

 

हमने देखा कि ज्ञान के तीन रूप हैं। ज्ञान का पहला रूप माया में निवास कर रहे उन जीवों को सुलभ होता है जिनकी चेतना का दायरा हमारे नित्य अनुभव में आने वाले इस मायिक मंडल तक सीमित है जिसे गुरू नानक देव ने धर्मखंड कहा है; ज्ञान का दूसरा रूप उन साधक जीवों को सुलभ होता है जो आध्यात्मिक उन्नति करके धर्मखंड से श्रेष्ठ मंडल ज्ञानखंड में प्रवेश करते हैं; ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ रूप उन सिद्धपुरुषों को सुलभ होता है जो न केवल ज्ञानखंड से परे अपितु उससे भी अधिक सूक्ष्म मंडल सरमखंड से भी परे चौथे मंडल करमखंड में प्रवेश करते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि मंडल चार हैं नामतः धर्मखंड, ज्ञानखंड, सरमखंड और करमखंड, तो ज्ञान के स्वरूप तीन क्यों हैं? हमारी समझ के अनुसार ज्ञानखंड और सरमखंड में ज्ञान का एक ही रूप नहीं होगा। इनमें ज्ञान के दो रूप होने चाहियें जो इन मंडलों को स्वतंत्र व विशिष्ट स्वरूप देते हों। करमखंड, सरमखंड व ज्ञानखंड इन तीनों में ज्ञान भिन्न-भिन्न रूपों में होगा। यदि हम इसके साथ धर्मखंड को भी ले लें तो ज्ञान के चार रूप हो जाएंगे। इनमें से करमखंड में एकता का ज्ञान है; सरमखंड व ज्ञानखंड में एकता-सह-विविधता का ज्ञान है; धर्मखंड में केवल विविधता का अज्ञान है। इतना ही नहीं, ज्ञान के चार भी नहीं अपितु पाँच प्रधान रूप होने चाहियें क्योंकि जो शक्ति सरमखंड और ज्ञानखंड में एकता-सह-विविधता के दो भिन्न-भिन्न स्वभाव धारण करके विराजमान होगी और फिर धर्मखंड में जिसके ज्ञान का तिरोभाव हो जाएगा, वह इन तीनों मंडलों में एक ही अक्षत स्वरूप लिए हुए भी विराजमान होगी। इतना ही नहीं, वही शक्ति इस त्रिलोकी से परे करमखंड में प्रभू की कल्याण-स्वरूप सत्ता में भी स्थित होगी और इस प्रकार त्रिलोकी के तीन लोकों और उससे परे चौथे लोक के बीच सेतु बनेगी। ज्ञान के तीन या चार नहीं अपितु पाँच प्रधान रूप होने चाहियें।


ज्ञान के इन पाँच रूपों की चर्चा उपनिषदों में की गई है। वहाँ इन्हें ज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान और अज्ञान कहा गया है। इनमें से ज्ञान का संबंध एकत्व से है, इसकी प्राप्ति करमखंड में होती है जबकि विज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान और अज्ञान का संबंध बहुत्व से है, इनकी प्राप्ति त्रिलोकी में होती है। इन चारों में भी विज्ञान वस्तुतः त्रिलोकी के तीन मंडलों नामत धर्मखंड, ज्ञानखंड और सरमखंड तथा इनसे परे स्थित चौथे मंडल करमखंड के बीच की कड़ी है। विज्ञान करमखंड में भी है और नीचे त्रिलोकी के तीन मंडलों में भी है। ज्ञान के पाँच रूपों - ज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान, और अज्ञान - में अज्ञान हमारे नित्यप्रति अनुभव की वस्तु है जिसमें हम सर्वत्र जड़त्व और बहुलता के दर्शन करते हैं; ज्ञान अज्ञान का विलोम है, यहाँ चैतन्यता व एकत्व का एकछत्र साम्राज्य है; जबकि ज्ञान के शेष तीन रूप नामतः विज्ञान, प्रज्ञान और संज्ञान अधिक जटिल हैं।


श्रीअरविंद लिखते हैं, ''विज्ञान मूलभूत विशद चैतन्य है जो वस्तुओं के बिम्ब को उसके सत्व (essence), उसकी समग्रता (totality) और उसके अवयवों और लक्षणों में एक साथ पकड़े रखता है; यह वस्तु का मौलिक, सहज, यथार्थ और सम्पूर्ण दर्शन है जिसका संबंध यथार्थतः आत्मा से है। यह वह ज्ञान है जिसकी मन के पास, उसकी व्यापक बुद्धि के सर्वोत्तम प्रकार्यों में भी, छायामात्र होती है। प्रज्ञान वह चैतन्य है जो अपने समक्ष वस्तुओं के बिंब को एक विषय के रूप में रखता है ताकि वह उससे संबंध बना सके और विश्लेषणात्मक व संश्लेषणात्मक बोध के संयुक्त साधन तथा बोधशक्ति (apprehension) द्वारा उन्हें अपने स्वत्व में रख सके। संज्ञान वस्तुओं के बिंब के साथ चैतन्य का संपर्क है जिसके द्वारा उसे वस्तु का उसके साररूप में इन्द्रियगम्य अधिकार प्राप्त होता है; यदि प्रज्ञान ज्ञाता (apprehensive) चैतन्य की बाहर की ओर होने वाली गतिविधि है ताकि वह अपने विषय को सचेतन ऊर्जा में धारण करे, उसे जान ले, तो संज्ञान ज्ञाता चैतन्य की वह गतिविधि है जिससे वह अपने समक्ष रखे विषय को अपने अंतर में लाती है ताकि वह उसे महसूस कर सके, उसे अपने आधिपत्य में रख सके। अज्ञान वह क्रिया है जिसके द्वारा चैतन्य सत्ता वस्तुओं के बिंब पर ध्यान केन्द्रित करती है ताकि वह उसे अधिकार में रख सके।''(Kena and other Upanishads)


ज्ञान के तीन प्रकार, जो करमखंड, सरमखंड व ज्ञानखंड में मिलते हैं और जिन्हें श्रुति में क्रमशः ज्ञान, प्रज्ञान और संज्ञान कहा गया है, अंतरंग व श्रेष्ठ हैं और हमारे रोज़मर्रा के जीवन के लिए असामान्य हैं। तादात्म्यता का धागा तीनों को एकता में पिरोए रखता है। ज्ञान के इन तीनों रूपों की उदाहरणें धर्मग्रंथों में भरपूर परिमाण में मिलती हैं। उदाहरणार्थ ईशावास्योपनिषद के श्लोक संख्या 6 व 7 में ऋषि लिखता है :

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति ।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगु्प्सते ॥ 6॥

यस्मिन सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्‌ विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत ॥ 7॥


'जो सर्व भूतों को आत्मा में ही निरंतर देखता है और आत्मा को सर्व भूतों में देखता है, वह किसी के प्रति भेदभाव नहीं करता ॥6॥ जहां अनुभवज्ञान प्राप्त साधक की आत्मा ही सर्वभूत बन गई हो, वहां निरंतर एकात्म दीखने वाले उस साधक को कैसा मोह? कैसा शोक?' इसमें छठे श्लोक के प्रथम अर्ध में साधक की उस अवस्था का बयान है जिसे वह ज्ञानखंड में अनुभव करता है, जबकि इसके उत्तरार्ध में सरमखंड के अनुभव को बयान किया गया है। ऋषि कहता है, 'सर्वाणि भूतानि', 'सभी भूतों को'। 'भूत' अर्थात्‌ अस्तित्व धारण करने वाला। विश्व में जो भी पदार्थ है, जीव है, जो कोई भी अस्तित्व में आया हुआ है, उन सबको साधक अपनी आत्मा में देखता है। इस अनुभव को श्रीअरविंद 'समावेश' का नाम देते हैं। यहां एक सत्ता का दूसरी सत्ता से दीखने वाला भेद, जो हमारे जगत्‌ का सामान्य तथ्य है, समाप्त हो जाता है। इससे भी परे सरमखंड में साधक अपनी आत्मा को सभी में देखता है। उसे पता चलता है कि मेरे अंदर निवास करने वाली आत्मा दूसरे सभी में निवास करने वाली आत्मा से लेशमात्र भी भिन्न नहीं है। इस अनुभव को श्रीअरविंद 'अंतर्निवास' का नाम देते हैं। और ऋषि कहता है कि, ''यह दर्शन एकाध बार पलक झपकते, क्षण भर के लिए दिखाई देने वाले नहीं, बल्कि क्षणांश को भी भंग किए बिना, सतत रूप से दिखाई देने वाले होते हैं। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ऋषि ने इसके लिए 'पश्यति' नहीं कहा बल्कि 'अनुपश्यति' कहा है। अनु अर्थात्‌ पीछे। साधक निरंतर पीछे देखता है और उसे अनुभव करते हुए उसमें अटकता नहीं रह जाता। वह बार बार अनुभव करता है। इस प्रकार निरंतर (निर्‌ + अंतर, बीच में जरा-सा भी अंतर पड़े बिना) अनुभव करता है।''(ईशावास्योपनिषद, श्री उमाशंकर जोशी, पृ -22) ज्ञान की उससे भी परे व श्रेष्ठ अवस्था करमखंड की है जिसे ऋषि सातवें श्लोक में 'आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत्‌' कहते है। ज्ञान की पिछली दोनों भूमिकाओं को एकता-सह-विविधता कहा जा सकता है, लेकिन यहां विविधता रह ही नहीं जाती, आत्मा ही सर्वभूत बन जाती है। इस अनुभव के लिए ऋषि 'आत्मैव' शब्द की योजना करता है जिसका अर्थ है, एकत्व का अनुभव। यहां साधक के लिए विश्व के समस्त भूत उसकी आत्मा बन गये हैं (अभूत्‌)। श्री अरविंद इस अनुभव को 'तादात्म्यता' की संज्ञा देते हैं।


ज्ञान के इन श्रेष्ठ रूपों के अनुभव की उदाहरण भगवद्गीता के निम्नलिखित श्लोकों में भी मिलती है :

सर्वभूतस्थमात्मानम् सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: ॥ (6.29)

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्यांह न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (6.30)


‘योग से युक्त (शब्द से जुड़े) अंतःकरण वाला सम्पूर्ण प्राणियों को आत्मा में स्थित देखता है (ज्ञानखंड में समावेश का अनुभव); आत्मा को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है (सरमखंड में अंतर्निवास का अनुभव); और सब जगह सम(ब्रह्म) को देखता है (करमखंड में तादात्म्यता का अनुभव)।’ ‘(इस प्रकार) जो मुझमें सबको देखता है (समावेश) और सबमें मुझे देखता है (अंतर्निवास), उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’ धर्मखंड में निवास कर रहे मायावेष्टित जीव के लिये परमात्मा अदृश्य है और ऐसे जीव भी मानों परमात्मा के लिये अदृश्य हैं। न तो इन जीवों का परमात्मा से कोई नाता है और न ही परमात्मा का इन जीवों से कोई नाता है। ज्ञानखंड और सरमखंड में यह जीव परमात्मा की उपस्थिति को ऐसे अनुभव करता है जैसे हम जीव चारों ओर हवा की उपस्थिति को अनुभव करते हैं। जीव जानते हैं कि परमात्मा निकट ही है किन्तु वह उनके लिये अदृश्य होता है, दूसरी ओर वे परमात्मा की दृष्टि में और उसकी कृपा के पात्र होते हैं। रहस्यवादी अनुभव का सर्वश्रेष्ठ रूप करमखंड में है जहां न तो परमात्मा उसके लिये अदृश्य है और न ही वे परमात्मा के लिये अदृश्य हैं।


ज्ञान के इन चार रूपों के प्रमाण आदिग्रंथ में भी मिलते हैं। धर्मखंड तक सीमित चेतना वाले अज्ञानी जीव की विशेषता है कि वह जीवों की परस्पर भिन्नता को और इसके साथ ही उनकी प्रभू से भिन्नता को सच करके जानता है। ज्ञानी जीव की विशेषता है कि वह न केवल समस्त विविधता को एकता के धागे में पिरोए हुए देखता है अपितु वह प्रभू को भी जीव से अभिन्न देखता है। ज्ञान का यही सर्वश्रेष्ठ रूप है जिसे उपनिषदों में तत् त्वं असि और अहं ब्रह्मास्मि जैसे महावाक्यों द्वारा दर्शाया गया है। ज्ञान के इस सर्वश्रेष्ठ रूप का उल्लेख गुरबाणी में मिलता है : सो प्रभू दूरि नाही प्रभू तूं है ॥(1-354) साधक को इस ज्ञान का अनुभव करमखंड में होता है। लेकिन परमात्मा से अभिन्नता के ज्ञान से पहले परमात्मा से निकटता का ज्ञान है, और हम जान चुके हैं कि परमात्मा से निकटता के इस ज्ञान के दो चरण हैं। पहले चरण में साधक की चेतना का विस्तार ज्ञानखंड तक होता है। यहाँ उसे ज्ञान के जिस रूप का अनुभव होता है उसे उपनिषदों में ‘संज्ञान’ कहा गया है, दूसरे चरण में सरमखंड में अनुभव होने वाले ज्ञान को उपनिषद ‘प्रज्ञान’ कहता है। ज्ञान के इन दोनों रूपों का वर्णन करते हुए गुरू नानक लिखते हैं :

तूं नाही प्रभ दूरि जाणहि सभ तू है ॥

गुरमुखि वेखि हदूरि अंतरि भी तू है ॥(1-753)


यहाँ ऐसे जीव की मनःस्थिति का उल्लेख है जो ज्ञानवान है, जाणहि । वह प्रभू को दूर नहीं अपितु निकट, तूं नाही प्रभ दूरि,.....हदूरि, जानता है। गुरू नानक ने यहाँ इस निकटता की दो उपदशाएं बताईं हैं। पहली दशा ज्ञानखंड की है जब उसे ज्ञान होता है कि एक जीव दूसरे जीव से भिन्न नहीं है अपितु सभी जीव परमात्मा में ही समाविष्ट हैं। ज्ञान के इस पहलू को गुरू नानक सभ तू है -ऐसे कहते हैं। प्रभू से निकटता के अनुभव का दूसरा उपभेद सरमखंड में मिलता है जब साधक को ज्ञान होता है कि एक परमात्मा ही सभी जीवों में निवास कर रहा है। ज्ञान के इस पहलू को गुरू जी ने अंतरि भी तू है -ऐसा कहा है।


ज्ञान के इन दोनों रूपों के प्रमाणस्वरूप आदिग्रंथ की निम्नलिखित पंक्तियों को भी देखा जा सकता है :

ओअंकारि एको रवि रहिआ सभु एकस माहि समावैगो ॥(4-1310)

फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ॥(बाबा फरीद -1381)


'सभु' 'खलक' का 'एकस' 'रब माहि' निवास है - इस वक्तव्य में समावेशात्मक ज्ञान मिलता है। इसी को ईशोपनिषद 'सर्वाणि भूतिनि आत्मन्येव' कहता है। दूसरी ओर 'ओअंकारि एको' 'खालकु' 'खलक महि' 'रवि रहिआ' है - इस वक्तव्य में अंतर्निवास है। इसी को उपनिषद 'सर्वभूतेषू चात्मानं' कहता है। ज्ञान के प्रथम स्वरूप की सिद्धि ज्ञानखंड में होती है जबकि दूसरी अवस्था सरमखंड में प्राप्त होती है।


ऊपर ज्ञान के संबंध में जो निष्कर्ष उपनिषदों व आदिग्रंथ के आधार पर दिये गये हैं, उनकी पुष्टि अन्य स्रोतो से भी होती है। उदाहरण के लिए 18वीं सदी में दिल्ली में हुए प्रसिद्ध संत चरनदास के निम्नलिखित पद को देखें :

अब हम ज्ञान गुरू से पाया ॥

दुविधा खोय एकता दरसी निस्चल हवै घर आया ॥

हिरदा सुद्ध हुआ बुधि निर्मल चाह रही नहिं कोई ॥

न कुछ सुनूं न परसूं बूझूं उलटि पलटि सब खोई ॥

समझ भई जब आनंद पाये आतम आतम सूझा ॥

सूधा भया सकल मन मेरा नेक न कहूं अरूझा ॥

मैं सबहुन में सब मोहूं में सांच यह करि जाना ॥

यही वही है वही यही है दूजा भाव मिटाना ॥

सुकदेव ने सब सुख दीन्हे तिरपत होय अघायो ॥

चरनदास निकसा नहिं रंचक परमातम दरसायो ॥


पहली पंक्ति में सूचना दी कि गुरू से ज्ञान की प्राप्ति हुई। अगली पांच पंक्तियों में उस ज्ञान के कारण अज्ञान अथवा द्वैत भाव के विनाश, निश्चलता व परम धाम की प्राप्ति, हृदय की शुद्धि, बुद्धि की निर्मलता इत्यादि को बताया। छठी पंक्ति में आये पद्यांशों सब मोहूं मेंमैं सबहुंन में द्वारा ज्ञान के उन रूपों की प्राप्ति की सूचना दी गई है जिन्हें उपनिषदों में क्रमशः संज्ञान और प्रज्ञान कहा गया है। सातवीं पंक्ति में यही वही है वही यही है पद्यांश द्वारा ज्ञान के पूर्ण स्वरूप का वर्णन किया गया है जिसकी प्राप्ति करमखंड में होती है।


(शेष आगे)

 

Continue reading▶️Kartapurush ep42

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RK25
RK25
Jun 03, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

Very deep understanding

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