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Knowledge is the elevation into the highest reality thru Truth. Kartapurush ep40 - कर्तापुरुष ep40

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Nov 20, 2023

  • The Bhagvdgeeta as well as the Adi Granth have eulogised knowledge.

  • This knowledge is not an intellectual exercise. This knowledge is the elevation into the highest reality through the revelation of the light of the divine Sun which is Truth.

  • This Truth, this Sun is concealed under our ignorance. It is Imperishable Reality who is the Lord of all, who is unchanging and pure.

  • But we could not see this redemption, purity and Lordship. But why is Truth concealed under our ignorance? And why can't we see Lordship? Read this article to know why.

The text wants to tell its readers that the true knowledge is not an intellectual exercise but rather a direct experience of the Divine. This knowledge is the ultimate truth, the hidden reality that we cannot see because of our ignorance. Only by removing this ignorance can we experience the Divine and become one with it.


Here are some specific ways in which this text can help its readers:

  • It can awaken a desire for true knowledge. The text's description of the Divine as a hidden truth that can be revealed can spark a desire in readers to seek out this knowledge for themselves.

  • It can provide a framework for understanding the nature of true knowledge. The text's distinction between intellectual knowledge and direct experience can help readers to understand that true knowledge is not something that can be learned from books or teachers. It is something that must be experienced directly.

  • It can offer guidance on how to remove ignorance. The text's reference to ignorance as a veil that obscures the Divine can help readers to understand that the first step to experiencing true knowledge is to remove this veil. This can be done through spiritual practices such as meditation and prayer.

Ultimately, the text's goal is to help its readers to experience the Divine, to become one with the ultimate reality. This is the highest goal that any human being can aspire to, and this text can provide the guidance and inspiration that readers need to achieve it.

Read the previous article▶️Kartapurush ep39

 

इस प्रकार गुरू नानक देव ने ज्ञानखंड में जिस ‘ज्ञान’ की प्राप्ति की बात कही है, वह परमात्म-शक्ति है। भारत में परमात्मा के लिए इस शब्द के प्रयोग की एक पुरानी परंपरा है। गीता के चौथे अध्याय में ज्ञान की बड़ी महिमा की गई है। इस अध्याय को ज्ञानयोग का नाम दिया गया है। वहां कहा गया है कि ज्ञान की तपस्या से पवित्र हुए बहुत से लोगों ने मेरी ही स्थिति को प्राप्त किया है : बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्‌भावमागताः ॥(4.10) दूसरे स्थान पर कहा गया है कि ‘जिसके सम्पूर्ण कर्म (कर्ता होने के) संकल्प और (भोग की) कामना से रहित हैं और जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से जल गये हैं उसको ज्ञानीजन पंडित कहते हैं’ ॥(4.19) जब जीव अपने कर्मों को कर्ता भाव और भोक्ता भाव से रहित होकर करता है तो कर्मों में बंधन की शक्ति नहीं रहती, लेकिन अनंत जन्मों से किये गये संचित कर्मों के भंडार का नाश केवल ‘ज्ञान रूपी अग्नि से’ अर्थात शब्द के अभ्यास से होता है। 4.23 में कहा गया है कि ‘जिसकी कामना नष्ट हो गयी है और जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है ऐसे यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाता है।’ यहाँ ‘बुद्धि का ज्ञान में स्थित’ होने का अर्थ चेतना को अंतर्मुख शब्द से जोड़ना ही है। पुनः यह कहा गया है कि ‘भौतिक पदार्थों द्वारा किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ अधिक अच्छा है क्योंकि निरपवाद रूप से सब कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं।’(4.33) ध्यान रहे कि कर्म से बंधन नहीं होता केवल ज्ञानरहित कर्म बंधन को पैदा करता है। ज्ञान द्वारा कर्म में बंधन की शक्ति की समाप्ति की बात आदिग्रंथ में भी आई है। भक्त रविदास जी लिखते हैं :

गिआनै कारन करम अभिआसु ॥

गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥(रविदास जी -1167)


ज्ञान की प्राप्ति के साधन के संबंध में भी आदिग्रंथ और भगवद्गीता में एक राय है। श्रीभगवान् अर्जुन को परामर्श देते हुए कहते हैं, “इस ज्ञान को तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों से जाकर समझो। उनके पास नम्रता, सेवा और जिज्ञासा के भाव से जाने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे।”(4.34) हम पहले ही लिख चुके हैं कि ‘गुरू से ज्ञान लेना’, ‘गुरू से उपदेश लेना’, ‘गुरू से मंत्र-दीक्षा लेना’, ‘गुरू से नाम लेना’ -एक ही आध्यात्मिक तथ्य के भिन्न-भिन्न विधि से किये गये विवरण मात्र हैं। गुरू जिज्ञासु को जिस ज्ञान का उपदेश करते हैं उसे गुरबाणी में ‘गुर गिआनु’ कहा गया है। यह ज्ञान मंत्र रूप है। इस मंत्र के जप से वह ज्ञान साधक के अंतर्मन में प्रकट होता है जो सर्वव्यापक दिव्य शक्ति है। “इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कोई साधन नहीं है। साधक इस ज्ञान को अपने अंतर्मन में ही पाकर योग में भली-भांति सिद्ध हो जाता है।” (4.38) “यह ज्ञानाग्नि सम्पूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है।” (4.37) “साधक इस ज्ञान रूपी नौका के द्वारा पाप-समुद्र से तर जाता है।” (4.36) “इस ज्ञान का अनुभव करके साधक सम्पूर्ण प्राणियों को निःशेषभाव से पहले अपने में, आत्मनि, और फिर परमात्मा में, मयि, देख लेता है। (4.35)


इस प्रकार भगवद्गीता और आदिग्रंथ में प्रतिपादित ज्ञान बौद्धिक ज्ञान मात्र नहीं है। श्री अरविंद लिखते हैं, "गीता जिस ज्ञान की बात करती है वह मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है, गीता का ज्ञान है सत्यस्वरूप दिव्यसूर्य के प्रकाश के उद्‌भासन के द्वारा सत्ता की उच्चतम अवस्था में संवर्धन। यह सत्य, यह सूर्य वही है जो हमारे अज्ञान-अंधकार के भीतर छिपा हुआ है और जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है, तत्सत्यं सूर्य तमसि क्षियत्तम्‌ । यह अक्षर ब्रह्म है जो इस द्वन्द्वमय विक्षुब्ध निम्न प्रकृति के ऊपर आत्मा के व्योम में विराजमान है, निम्न प्रकृति के पाप-पुण्य उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारे धर्म-अधर्म की भावना को स्वीकार नहीं करता, उनके सुख और दुःख उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारी सफलता की खुशी और विफलता के शोक के प्रति उदासीन रहता है, वह सबका स्वामी है, प्रभू है, विभु है, स्थिर, समर्थ और शुद्ध है, सबके प्रति सम है। वह प्रकृति का मूल है, हमारे कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता नहीं बल्कि प्रकृति और उसके कर्मों का साक्षी है, वह हम पर कर्ता होने का भ्रम आरोपित नहीं करता, क्योंकि यह भ्रम तो निम्न प्रकृति के अज्ञान का परिणाम है। परंतु हम इस मुक्ति, प्रभूता और विशुद्धता को नहीं देख पाते; क्योंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अंदर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है। पर जो इस ज्ञान का लगातार अनुसंधान करते हैं उन्हें इसकी प्राप्ति होती है और यह ज्ञान उनके प्राकृतिक अज्ञान को दूर कर देता है; यह बहुत काल से छिपे हुए सूर्य की तरह उद्‌भासित होते हैं और हमारी दृष्टि के सामने उस परम आत्मसत्ता को प्रकाशित कर देता है जो इस निम्न जीवन के द्वन्द्व से परे है, आदित्यवत्‌ प्रकाशयति तत्परम्‌ । दीर्घ एकनिष्ठ साधना से, अपनी समग्र सचेतन सत्ता को उसकी आत्मतत्त्व की ओर लगाने से....... हम उसके साथ एक-बुद्धि और एक-आत्मा हो जाते हैं, तद्‌बुद्धय: तदात्मानः, हमारी अधःसत्ता के कल्मष ज्ञान के जल से धुल जाते हैं, ज्ञाननिर्धूतकल्मषा ।”


ज्ञानखंड में प्राप्त होने वाले ‘ज्ञान’ के स्वरूप की जो चर्चा अभी तक हमने की है वह वैचारिक है। अब हमें रहस्यवादी अनुभव के दृष्टिकोण से भी इस ज्ञान के स्वरूप पर चर्चा कर लेनी चाहिए। यह ज्ञान ब्रह्मज्ञान है। यहाँ ब्रह्म के शब्द रूप का - शब्दब्रह्म का - ज्ञान होता है, अतः इस ज्ञान का स्वरूप भी शब्द अर्थात दिव्यध्वनि ही होगा। गुरू नानक भी इस ज्ञान की उपस्थिति में नाद का वर्णन करना नहीं भूलते, गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ तिथै नाद बिनोद कोड आनंदु ॥ यह नाद ब्रह्माण्डों में गूंजता दिव्यनाद है जो ज्ञान अर्थात्‌ आत्मा से तादात्म्यता की अवस्था में स्पष्ट सुनाई देता है। अन्यत्र भी कहा गया है : सो गिआनी जिनि सबदि लिव लाई ॥(1-831) शब्द का अर्थ ही आवाज है और यह आवाज प्रभू की आवाज है।


इस ज्ञान का दूसरा पहलू ज्योति है जिसकी उपस्थिति का पता प्रचंड विशेषण के प्रयोग से चलता है। ज्ञान प्रचंड है, अग्नि भी प्रचंड होती है, दोनों का परिणाम अज्ञानता व अंधकार का विनाश है। ज्ञान शब्द है, वैश्वप्रभू है और इसकी उपस्थिति प्रचंड रूप से अनुभव होती है, उसका अर्थ यही निकला कि ज्ञान अर्थात्‌ प्रभू का अनुभव ज्योतिरूप में होता है, जोती हू प्रभू जापदा । एक ओर स्थान पर आता है : गिआनु प्रचंडु बलिआ घरि चाणणु घर मंदर सोहाइआ ॥(4-775) इसमें गिआनु संज्ञा के साथ बलिआ क्रिया व प्रचंडु क्रिया विशेषण का प्रयोग मंतव्य को भली-भांति स्पष्ट कर देता है। ‘प्रभू का ज्ञान प्रचंड अग्नि के रूप में प्रज्जविलत हुआ जिससे अंतर्मन में प्रकाश हो गया, जीवात्मा का हृदय सुशोभित हो उठा।’ इस तरह ज्ञान की अवस्था में प्रभूसत्ता के दोनों पहलू - नाद व ज्योति - विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त गुरू साहिब तीन और शब्दों का प्रयोग करते हैं : विनोद, कोड व आनंद। तीनों शब्दों का समग्र प्रभाव यह है कि साधक को समस्त जगत्‌ परमात्मा की एक महान लीला या नाटक के रूप में नजर आता है जिसमें अनेक प्रकार के कौतुक हो रहे हैं।


ध्यान रहे कि ‘प्रचंड’ व ‘नाद’, ये दो पद परमात्मसत्ता की दो मूलभूत विशेषताओं, ‘प्रकाश’ व ‘विमर्श’ की ओर इंगित कर यह बता रहे हैं कि यह ज्ञान ब्रह्मज्ञान है अथवा ब्रह्मरूप है किंतु यह ज्ञान निरपेक्ष (absolute) नहीं है, यद्यपि निरपेक्ष की ओर यात्रा में एक पड़ाव है। यदि ज्ञान परमात्मसत्ता है तो इसकी उपस्थिति अनन्य रूप से ज्ञानखंड में ही नहीं होनी चाहिए, इसे सरमखंड में इससे भी अधिक प्रचंड व समग्र अनुभव के रूप में होना चाहिए और करमखंड में इससे भी श्रेष्ठ, भरपूर अनुभव के रूप में। यही नहीं इसे हमारे भौतिक जगत्‌ में भी होना चाहिए, यद्यपि यहां ज्ञान एक प्रच्छन्न सत्ता के रूप में होगा जिसके बारे में हमारा बोध धुंधला, संश्य से भरा हुआ और अक्सर अधूरा व कभी-कभी विकृत भी होगा। ऐसे में स्वाभाविक है कि हम प्रचंड में श्लेष को स्वीकार करके इसके दो अर्थ लें। पहला, ज्योति के अर्थ में, जो हम ऊपर दे चुके हैं। दूसरा, धर्मखंड की तुलना में ज्ञानखंड में ज्ञान की तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ स्थिति को बयान करने के अर्थ में। पहले अर्थ में ‘प्रचंड’ विशेषण बताता है कि साधक को ज्ञानखंड में जिस ज्ञान का साक्षात्कार होता है वह ज्योतिर्मय है। वहीं दूसरे अर्थ से यह पद धर्मखंड में ज्ञान की आंशिकता की तुलना में अपरिमेयता के अर्थ देता हे। श्री अरविंद लिखते हैं, "अपरिमेयता निरपेक्षता का चिह्न नहीं है क्योंकि निरपेक्ष अपने आप परिमाण की वस्तु नहीं है, वह परिमाण या माप से परे है, एकमात्र विशालता के अर्थ में नहीं बल्कि अपनी सार-सत्ता की स्वतंत्रता के अर्थ में। वह अपने आपको अत्यणु में भी अभिव्यक्त कर सकता है और अनन्त में भी, यह सच है कि जैसे हम मानसिक से आध्यात्मिक की ओर गति करते हैं, एक सूक्ष्म विस्तार और प्रकाश, शक्ति, शांति, आनंद की बढ़ती हुई तीव्रता हमारी सीमाओं के पार जाने का लक्षण हैं। लेकिन पहले पहल यह केवल स्वाधीनता का, उच्चता का, सार्विकता का लक्षण है, अभी तक यह आत्मसत्ता की भीतरी निरपेक्षता का चिह्न नहीं है।"(दिव्य जीवन, पृ -597)


(शेष आगे)

 

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RK25
RK25
05 may 2023
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ज्ञानगर्भित।

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