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Kartapurush ep4

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Nov 27, 2023

The Vedas have taught us that whenever a person, instead of surrendering to baser impulses of mind, tends to work with his independent will, it should be understood that the Lord of the Universe have been ready to lead him and working through him for his salvation. Read Karta Purush 4 to know the basis of this understanding as well as the implications of this teaching.


श्रुति का उपदेश है कि जब भी मनुष्य में जड़ शरीर और इंद्रियों के आग्रह के समक्ष नतमस्तक होने की जगह स्वतंत्र संकल्प से कार्य करने की प्रवृति हो; जब भी उसमें प्रभु को सर्वस्व अर्पण करते हुए निरंतर नाम-सिमरन की प्रवृति हो तो समझ लेना चाहिये कि कृपालु प्रभु कृपापूर्वक उसके कर्मों की अध्यक्षता करने के लिये, उसके माध्यम से कर्म करने और उसके उद्धार के लिये उद्यत हुए हैं।

इस उपदेश का आधार और इसकी जटिलताओं को जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 4


Kartapurush ep4
Kartapurush ep4
 

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बाणी सत्यस्वरूप प्रभु सति को एक, एकम्‌, एका, एको, एकंकार आदि कहती है। एकंकार वह सत्ता है जो एक है, केवल एक है और सदा-सदा एक है। यह एक, अविभाजित व अविभाज्य प्रभुचेतना है। जो स्वयं एक व अविभाज्य है, वह विभाजन का, अनेकता व बहुलता का स्रोत कैसे बन सकती है? सति जगत्‌ की दृश्यमान विविधता को कैसे उत्पन्न करता है? इसका उत्तर पीछे उद्धरत जपुजी की 37वीं पउड़ी की 12वीं पंक्ति में छिपा है, करि करि वेखै नदरि निहाल । राम सिंह लिखते हैं, "जब गुरू नानक 37वीं पउड़ी की 12वीं पंक्ति में निरंकार की करतारी प्रक्रिया करि करि वेखै का वर्णन करते हैं तो गुरज्योति व सृष्टि दोनों की रचना उस प्रक्रिया में शामिल समझनी चाहिए।" ‘गुरज्योति व सृष्टि’ से आपका क्या आशय है, यह स्पष्ट नहीं है किन्तु जिस प्रकार आपने ‘करि-करि’ के समास को उसके साधारण अर्थ ‘रचना करके’ से भिन्न करके उसे दो मूलभूत सत्ताओं से जोड़ा है, वह सराहनीय है। आम तौर पर टीकाकारों ने इस समास से मिलने वाले गूढ़ संकेतों की ओर ध्यान न देकर इसकी सतही व्याख्या, 'वह निरंकार सृष्टि को कर करके देखता है',(ज्ञानी हरबंस सिंह कृत 'गुरु ग्रंथ निर्णय') कर दी है। करि-करि समास में सृष्टि के कारण व करण का संकेत है। सृष्टि का कारण नाम है जबकि सृष्टि का करण या उपकरण शब्द है और इन दोनों की उत्पत्ति एकंकार से है : करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ ॥(5-276) एकंकार में नाम व शब्द दोनों एक हैं। वहां ये उस चैतन्य सत्ता की एक चेतना हैं। सृष्टि में इस चेतना के दो पहलू हैं। एक चेतना की स्थिति है जबकि दूसरी चेतना की क्रिया है। ये दोनों सदैव युग्मित हैं। शब्द प्रकृति/शक्ति है और नाम पुरुष/शक्तिमान है। ये दोनों सर्व-चैतन्य हैं और एक द्विध्रुवीय वास्तविकता (bipolar reality) का निर्माण करते हैं। एकंकार इस युग्म का स्रोत है, इस कारण उसे जुगादि भी कहा गया है।


गुरु नानक देव जी ने सत्यस्वरूप परमात्मा सति के बारे में लिखा है, करि करि वेखै नदरि निहाल ; दूसरी ओर गुरु राम दास जी ने सति के बारे में लिखा है, करि करि वेखहि जाणहि सोइ । इन दोनों उद्धरणों में ‘करि करि वेखहि या वेखै’ उभयनिष्ठ हैं। नदरि निहाल का अर्थ ‘कृपादृष्टि से प्रसन्न करता है’ -ऐसा किया जाता है, लेकिन हमारे विचार में ‘कृपादृष्टि करता है और प्रसन्न होता है’ -ऐसे होना चाहिये। जिस प्रकार करि करि वेखहि जाणहि में पहले ‘करि’ का संबंध सति की सत्ता नाम से है, इसके लिए ‘वेखहि’ क्रिया का प्रयोग किया गया है, करि .. वेखहि ; और दूसरे ‘करि’ का संबंध सति की शक्ति शब्द के साथ है, इसके लिए ‘जाणहि’ क्रिया का प्रयोग किया गया है, करि .. जाणहि, उसी प्रकार ‘करि करि .. नदरि निहाल’ में पहले ‘करि’ का संबंध सति की सत्ता नाम से है, इसके लिए ‘नदरि’ क्रिया का प्रयोग किया गया है और दूसरे ‘करि’ का संबंध सति की शक्ति शब्द के साथ है, इसके लिए ‘निहाल’ क्रिया का प्रयोग किया गया है। यदि हम करि करि .. नदरि निहाल और करि करि वेखहि जाणहि, दोनों पद्यांशों को मिला दें तो इसका शाब्दिक अर्थ होगा -‘सत्यस्वरूप परमात्मा सति नाम की रचना करके सारी सृष्टि को देखता व इस पर कृपा करता है और शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि के रूप में उपलब्ध करता और प्रसन्न होता है।’


हमने कहा कि ‘करि .. वेखै’ का अर्थ परमात्मा सति द्वारा नाम की रचना करके सृष्टि का दृष्टा होना और ‘करि .. जाणहि’ का अर्थ उसके द्वारा शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि के विविध रूपों में अनुभव करना है। इस पाठ्य सामग्री में नवदीक्षित पाठकों के ज्ञान के लिये हम यहाँ बता दें कि सति नाम व शब्द की रचना नहीं करता है अपितु नाम व शब्द की रचना सति द्वारा अपनी रचना किए जाने का ही भाग है। जब गुरु नानक ने लिखा : आपीनै आपु साजिउ आपीनै रचिउ नाउ ॥ दुयी कुदरति साजिऐ करि आसणु डिठो चाउ ॥(1-463) तो उसमें आपीनै आपु साजिउ पद्यांश में परमात्मा सति द्वारा स्वयं एक सत्ता के रूप में प्रकट होने की प्रक्रिया का वर्णन है और इस प्रकटीकरण में नाम व शब्द की रचना भी सन्निहित है। जैसे मुझे मेरी आत्मा और शरीर से भिन्न नहीं किया जा सकता, मेरी रचना में ये दोनों सम्मिलित हैं, वैसे ही सति को नाम और शब्द से भिन्न नहीं किया जा सकता। नाम सति का अहं पक्ष है जबकि शब्द उसका मम् पक्ष है, सति की रचना में ये दोनों सम्मिलित हैं। दूसरी ओर उसी पंक्ति में आये दो पद्यांशों आपीनै रचिउ नाउ व दुयी कुदरति साजिऐ का संबंध सृष्टि के कर्ता सति की कर्तारी प्रक्रिया के साथ है। सति की यही कर्तारी प्रक्रिया ही करि करि के समास में वर्णित है।


हमने कहा कि ‘करि .. वेखै’ का अर्थ परमात्मा सति द्वारा नाम की रचना करके सृष्टि का दृष्टा होना और ‘करि .. जाणहि’ का अर्थ उसके द्वारा शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि के विविध रूपों में अनुभव करना है। ‘जाणहि’ = जानना, ज्ञान। ‘ज्ञान’ शब्द की कई परतें हैं। यहाँ पर हम ‘ज्ञान’ शब्द के समुचित अर्थ को जानने के लिये इसे ‘जागरुकता’ (awareness), ‘ज्ञान’ (knowledge अथवा अधिक उचित रूप से कहें तो Gnosis) व ‘चैतन्य’ (consciousness) -इन तीन शब्दों के संदर्भ में देख सकते हैं। परमात्मा सति नाम की रचना करके सृष्टि के दृष्टा के रूप में अवस्थित होते हैं। उनके दृष्टा रूप को हम नाम/अक्षर सत्ता/शिव/ब्रह्म कह सकते हैं, उनके इस रूप में ज्ञान अवश्य ही निहित है किन्तु यहाँ ‘ज्ञान’ शुद्ध सत्ता के रूप में है, यह जगत् की वस्तुओं की विविधता से संबद्ध नहीं है, ज्ञान के इस रूप को चैतन्य (consciousness) कहा जायेगा। जब परमात्मा सति शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि की विविधता के रूप में उपलब्ध करते हैं तो उनके सृष्टि रूप को हम शब्द/क्षर शक्ति/पराप्रकृति/ईश्वर कह सकते हैं, उनके इस रूप में भी ज्ञान उपस्थित है। शब्द/ईश्वर के रूप में उनका यह ज्ञान ही ब्रह्मांड का आधार (substructure) है। परमात्मा सति द्वारा शब्द (सृष्टि की विविधता) के रूप में स्वयं को जानने में ही जगत् के बहुविध रूपों का अस्तित्व निहित है अर्थात जिस भी रूप का अस्तित्व हम देखते, जानते, सुनते, अनुभव करते हैं उसका अस्तित्व इसीलिए है क्योंकि उसके मूल में प्रभु शक्ति विद्यमान है। यदि प्रभु शक्ति उस रूप में स्वयं को नहीं जानती तो हम भी उस रूप को नहीं जान सकते। पुनः चूंकि यह शब्द एक है इसलिए उसकी अभिज्ञता में चलायमान यह आश्चर्यजनक रूप से विविध और विशाल जगत् भी एक है। हमारे जगत् में मिलने वाली समरूपता पर भौतिक विज्ञान ने मुहर लगाई है, इस विषय पर हमने अन्यत्र विस्तारपूर्वक लिखा है। जो शब्द को जानता है वही जगत् की वास्तविक प्रकृति को यथार्थतः जानता है क्योंकि शब्द के स्तर पर ‘जानना’ और ‘हो जाना’ एक ही है (Knowing is Becoming)। ज्ञान का तीसरा पहलू हम मायाग्रस्त जीवों के स्तर पर है। ‘जानना’ चित् सत्ता का गुण है। माया जड़त्व है अतएव हम मायाग्रस्त जीव वस्तु के बारे में केवल जागरुक (aware) होते हैं। हम वस्तु को नहीं अपितु उसके बाहरी त्रिविमीय आकार-प्रकार को जान लेते हैं। हमारा ज्ञान वस्तु का नहीं, वस्तु के बारे में अपनी धारणाओं का होता है। इस प्रकार ज्ञान के ये तीन स्तर नामतः awareness, Gnosis, और Consciousness हमारे जगत् के तीन स्तरों को प्रदर्शित करते हैं और ये तीनों स्तर क्रमशः प्रभु सति की अदिव्य जड़ शक्ति, दिव्य चेतन शक्ति और सत्ता द्वारा रचे गये हैं।


हमने कहा कि ‘करि .. वेखै’ का अर्थ परमात्मा सति द्वारा नाम की रचना करके सृष्टि का दृष्टा होना और ‘करि .. जाणहि’ का अर्थ उसके द्वारा शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि के रूप में अनुभव करना है। ‘वेखै’ दृष्टिबोध (seeing) या प्रत्यक्षीकरण (manifesting) की क्रिया है। इसमें दो भिन्न-भिन्न चरण सम्मिलित हैं। पहले चरण में प्रत्यक्षीकरण के यथार्थ कर्म से पूर्व होने वाला चिंतन या संकल्प है, जबकि दूसरा चरण प्रत्यक्षीकरण का वास्तविक चरण है। पहले चरण में चिंतन की प्रक्रिया को बाणी में ‘भाणा’, ‘रजा’, ‘हुकम’ (Will) कहा गया है, इसे हम इच्छा, संकल्प आदि भी कह सकते हैं। यह सारी प्रक्रिया कर्ता सति के भीतर चल रही है और यह ऐसे है जैसे कोई भी कर्ता यथार्थ कर्म से पूर्व अपने अंतर में अपने-आप से ही विमर्श कर रहा होता है। सृष्टि के निर्माण-कार्य से पूर्व कर्ता सति में सृष्टि रचना की इच्छा की उत्पत्ति ही ‘करि-करि’ समास में प्रथम ‘करि’ अर्थात नाम की उत्पत्ति है। नाम के संदर्भ में यह ऐसे है जैसे बर्तन बनाने की तैयारी कर रहा कुम्हार पहले अपने कर्म पर विचार कर रहा होता है, यह विचार कुम्हार का अपने ही निजात्म के साथ वार्तालाप है। प्रत्यक्षीकरण के संकल्प की उत्पत्ति के पश्चात दूसरे चरण में प्रत्यक्षीकरण का कर्म होता है। इस चरण में परमात्मा सति स्वयं को सृष्टि की विविधता के रूप में अनुभूत अथवा उपलब्ध करते हैं (He cognizes Himself as creation)। यही चरण ‘करि-करि’ समास में दूसरे ‘करि’ अर्थात शब्द की उत्पत्ति का चरण है।


हम जानते हैं कि नाम-शब्द के समास में निहित सत्य को ही शिव-शक्ति समास के द्वारा संप्रेषित किया गया है। यह समझना पर्याप्त रूप से आसान है कि शिव-शक्ति समास नाम-शब्द के समास की तुलना में मूर्त (tangible) है। वस्तुतः यह सनातनी मनीषा की विशेषता है कि इसमें गूढ़ व अमूर्त प्रत्ययों को भी ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जिससे वे हमारे लिये मूर्त और आसानी से बुद्धिगम्य हो जाते हैं। कश्मीरी शैव दर्शन के अनुसार शिव व शक्ति परमशिव का क्रमशः आत्मगत व वस्तुगत पक्ष हैं। परमशिव में शिव व शक्ति एक ही हैं लेकिन शिव में शिव व शक्ति भिन्न-भिन्न हैं। शिव भगवान् हैं, शक्ति उनकी भगवद्शक्ति है, यह उनकी प्रिया है और सदैव उनकी सेवार्थ प्रस्तुत रहती है। भगवान् में छः भग होते हैं - ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य। भगवान् शिव अनंत ऐश्वर्य के स्वामी, धर्म के मूर्त रूप, अनंत यशस्वी, श्री-शोभा संयुक्त, ज्ञानमय व वैराग्यवान हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व अनंत काल तक शिव समाधिस्थ रहते हैं। उस काल में भगवान् के प्रीत्यार्थ सेवा-कर्म की प्रेरणा के अभाव में शक्ति भी सृष्टि उत्पत्ति रूपी कर्म से निवृत व निश्चल रहती है। जब परमशिव सृष्टि को उत्पन्न करने का संकल्प करते हैं तो सर्वप्रथम उनके निजात्म पक्ष शिव की समाधि भंग होती है। शिव अपने नेत्र उन्मीलित करते और शक्ति पर दृक्पात करते हैं, वेखै । ‘स्वामी देख रहे हैं’ -इस विचार मात्र से शक्ति में विराट स्पंद (stirring) होता है, यह स्पंद ही परमात्मा की एकता से जगत की अनेकता के उत्पन्न होने की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है, और परमात्मा स्वयं को विविधता में पा लेता है, जाणहि ।


साथ ही साथ, यह भी ध्यान में रखने वाला बिन्दु है कि समाधिस्थ शिव व अक्रिय शक्ति और दृष्टा शिव व सक्रिय शक्ति -ये दो भिन्न-भिन्न बिम्ब शिव-शक्ति की दो भिन्न-भिन्न व स्वतंत्र अवस्थाएं हैं। पहली करमखंड की अवस्था है, दूसरी माया के तीन मंडलों की, त्रिलोकी की अवस्था है। इन दोनों अवस्थाओं के साथ-साथ यदि हम परमशिव को भी ध्यान में रखें तो शिव-शक्ति की तीन अवस्थाएं सिद्ध होती हैं। शिव ‘एक’ (1) हैं, शक्ति भी ‘एक’ (1) है। परमशिव में ये दोनों ऐसे हैं जैसे 1×1 है जिससे 1 ही बनता है। परमात्मा के इसी रूप को एकंकार या सति कहा गया है, और यह सचखण्ड की स्थिति है। करमखंड में ये दोनों ऐसे हैं जैसे 1=1 होता है, दोनों भिन्न हैं किन्तु दोनों को अपनी एकता का ज्ञान है। करमखंड की इस स्थिति को ओंकार या नाम कहा गया है। ओंकार या नाम और एकंकार या सति के अलावा परमात्मा का तीसरा रूप सचखण्ड से भी परे है जिसे निरंकार या ਓੱ कहा गया है, यहाँ शिव-शक्ति का युग्म अनुपस्थित है जिससे परमात्मा का यह रूप शाश्वत रूप से अज्ञेय है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में परमात्मा के इन तीनों रूपों को अमृत व दिव्य कहा गया है। परमात्मा का चौथा रूप करमखंड से नीचे के तीन मंडलों में है। आदिग्रंथ में इस रूप को प्रधान रूप से शब्द व गौण रूप से नाम, ओंकार, कुदरत आदि कहा गया है। कठोपनिषद के आधार पर हम परमात्मा के इस रूप को ओंकार का अपर रूप (lower form) कह सकते हैं। इसे ओंकार का अपर रूप कहने से पता चलता है कि शब्द केवल शक्ति नहीं अपितु यह भी शिव-शक्ति का युग्म ही है। ओंकार के पर रूप अर्थात नाम और ओंकार के अपर रूप अर्थात शब्द में अंतर यह है कि ओंकार के पर रूप में शिव शक्ति-संयुक्त हैं अर्थात शिव शक्तिमय हैं जबकि ओंकार के अपर रूप में शक्ति शिव-संयुक्त है अर्थात शक्ति शिवमय, कल्याणस्वरूप है। जो जीव शक्ति की आराधना करके अर्थात शब्द-अभ्यास करके करमखंड में प्रवेश करता है उसे भी परमात्मा के साथ अपनी एकता का ज्ञान हो जाता है। साथ ही, करमखंड से नीचे के तीन मंडलों में शिव-शक्ति का युग्म ऐसे है जैसे 1+1 होता है, दोनों को अपनी एकता का ज्ञान है किन्तु इस संयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने जीव-समष्टि (1+1=2) द्वैत में रहती है। गुरु नानक देव जी लिखते हैं :

सचु सिरंदा सचा जाणीऐ सचड़ा परवदगारो ॥

जिनि आपीनै आपु साजिआ सचड़ा अलख अपारो ॥

दुइ पुड़ जोड़ि विछोड़िअनु गुर बिनु घोरु अंधारो ॥

सूरजु चंदु सिरजिअनु अहिनिसि चलतु वीचारो ॥ (1-580)


‘सृजनहार परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, वह सदा स्थिर प्रभु जीवों का पालनहार है। उस अदृष्ट व अनंत प्रभु ने आप ही अपनी रचना की है।’ दूसरी पंक्ति में ‘अलख अपारो’ पद परमात्मा के ਓੱ रूप का संकेत करने के लिये हैं जबकि ‘सचड़ा’ पद सत्यस्वरूप परमात्मा सति के लिये आया है। ਓੱ ने सति की रचना नहीं की अपितु ਓੱ ही सति के रूप में प्रकट हुआ है, ऐसी सूचना ‘आपीनै आपु साजिआ’ पद्यांश में दी गई है। यहाँ हमारे प्रयोजन के लिये तीसरी पंक्ति का प्रथम अर्ध ‘दुइ पुड़ जोड़ि विछोड़िअनु’ बहुत महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है - ‘उस प्रभु ने दोनों पुड़ों को जोड़ कर जीवों को अपने से विछोड़ दिया।’ शिव व शक्ति दो पुड़ हैं जो करमखंड में 1=1 की तरह भिन्न-भिन्न हैं। कर्तार प्रभु ने इनका संयोग 1+1 कराया जिसके परिणामस्वरूप माया के द्वैत की सृष्टि हुई और जीव उसमें फंस गये।


हमने ‘करि .. वेखै’ और ‘करि .. जाणहि’ के अर्थों के निर्धारण और फिर उसके संबंध में अपने निष्कर्षों के स्पष्टीकरण हेतु शिव-शक्ति के प्रतीक का जो प्रयोग किया है उसे कवि-कल्पना कहकर रद्द किये जाने की संभावना बन सकती है, हालांकि अर्थ की इस परिपाटी के प्रमाण के रूप में श्री आर. के. काव की पुस्तक The Doctrine of Recognition में सोमानंद प्रणीत ‘शिवदृष्टि’ के कुछ संदर्भों को देखा जा सकता है। किन्तु ‘करि .. वेखै’ और ‘करि .. जाणहि’ के उपर्युक्त अर्थों के समर्थन में हमारे पास औपनिषदिक परंपरा से भी एक महत्वपूर्ण प्रमाण उपलब्ध है। केन उपनिषद की श्रुति कहती है :

तस्यैष आदेशो यदेतद् विद्युतो व्यद्युतदा इतीन्न्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम् ॥(4.4)


‘उसके विषय में यह संकेत है, जैसे नेत्रों का झपकना-सा है इस प्रकार; तथा जैसे यह विद्युत का चमकना-सा है इस प्रकार; इसका संबंध अधिदैवत से है।’ ‘आदेश’ का अर्थ उपमा है, इस मंत्र में निरुपम ब्रह्म का उपमा द्वारा उपदेश है। अधि+दैवत से अधिदैवत बनता है। ‘दैवत’ अर्थात ‘देवता के संबंध में’। ‘प्रकृति में उपस्थित शक्ति’ को ‘देवता’ कहते हैं। ‘अधि’ का अर्थ अधिनायक, नेता, अध्यक्ष से है। ऋषि के कथन का अभिप्राय यह है कि इस मंत्र में उपमा द्वारा बताया गया है ब्रह्म किस प्रकार प्रकृति में उपस्थित शक्तियों की अध्यक्षता या नेतृत्व करता है। सत्यस्वरूप परमात्मा सति देव अर्थात प्रकाशस्वरूप सत्ता है; नाम उस देव की निजसत्ता, उसका एकत्व है; शब्द उसी देव की निजशक्ति, उसका बहुत्व है, ऐसा हम जानते हैं। केन उपनिषद में अन्यत्र (2.1) परमात्मा के इन दोनों पहलुओं को क्रमशः ‘त्वम’ (Self) व ‘देवेषु’ (gods) कहा गया है। एन. जयषण्मुग्म के अनुसार, “पहला शाश्वत आत्मा है जो समस्त गति व कर्म से अस्पर्शय है जबकि दूसरा सहायक आत्मा (Instrumental Self) है जिसमें देवगण सक्रिय होते हैं।” अतः यहाँ अधिदैवत पद परमात्मा सति के लिये आया है। सति पिंड व ब्रह्मांड में सक्रिय समस्त देवगणों के नेता, महान या परम ईश्वर हैं और वे अपनी इस भूमिका का निर्वहन दो रूपों में करते हैं। पहला नाम है तो दूसरा शब्द है। प्रस्तुत मंत्र में ऋषि ने इसी भूमिका का व्याख्यान दो उदाहरणों के माध्यम से किया है। पहली उदाहरण नेत्रों के झपकने की है, इसके द्वारा प्रभु के दृष्टा रूप नाम का वर्णन है। दूसरी उदाहरण विद्युत की कौंध की है, इसके द्वारा प्रभु के शक्ति रूप शब्द का वर्णन है जो जगत के रूप में उत्पन्न होती है। ज्यों ही प्रभु के नेत्र खुलते हैं, शक्ति में सृजनात्मक उच्छलता (creative outburst) उत्पन्न होती है जो हमारी इस सृष्टि में रूपांतरित होती है। जब तक वे नेत्र खुले रहते हैं तब तक शक्ति की सक्रियता और सृष्टि का स्वरूपप्रकाश जारी रहता है, ज्यों ही नेत्र बंद होते हैं शक्ति शांत हो जाती है और सृष्टि का लय हो जाता है। ध्यान रहे कि प्रभु का दृष्टा के रूप में सक्रिय होना सृष्टि का कारण है किन्तु शक्ति की सृजनात्मक उच्छलता सृष्टि का कारण नहीं है, शक्ति की सक्रियता और सृष्टि का स्वरूपप्रकाश एकसाथ (simultaneously) सम्पन्न होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे विद्युत की कौंध से नगर, वन, झील, पर्वत, इत्यादि सब उत्पन्न नहीं होते अपितु वे इस कौंध से एकसाथ प्रकाशित हो जाते हैं। प्रलय की अवस्था में समस्त सृष्टि बीज रूप में शक्ति के अंदर रहती है जो प्रभु के एक संकेत मात्र से पुनः प्रकट हो जाती है। इसलिये सनातन धर्म में परमात्मा को सृष्टा कहा गया है न कि रचयिता। जब एक वस्तु स्वयं से ही अभिव्यक्त हो जाये तो उसे सृष्टि कहते हैं। दूसरी ओर जब कोई व्यक्ति एक वस्तु से दूसरी वस्तु बनाए तो उसे रचना कहते हैं। ‘सृज’ धातु अभिव्यक्ति (projection) के अर्थ में है। वेद में परमात्मा का एक नाम ‘सविता’ है जिसका अर्थ ‘अभिव्यक्ता’ (projector) है। जैसे स्त्री बच्चे की रचना नहीं करती अपितु जो बीज रूप में उसके अंदर है उसका प्रसवन मात्र करती है, वैसे ही सविता प्रसविता अर्थात उत्पन्न करने वाली है, वह जो बीज रूप में उसके अंदर था उसी का प्रसवन करती है, और ऐसा वह प्रभु के संकेत से करती है। इस प्रकार सत्यस्वरूप प्रभु सति का दृष्टा के रूप में सक्रिय होना ही सति द्वारा नाम को उत्पन्न करना है जबकि प्रभु सति का शक्ति के रूप में सक्रिय होना ही उनके द्वारा शब्द को उत्पन्न करना है। इसी में सति का कर्तृत्व निहित है जिसे करि-करि समास द्वारा व्यंजित किया गया है। इन दोनों में भी प्रथम करि अर्थात प्रभु सति का दृष्टा के रूप में सक्रिय होना मूलभूत है, इसीलिए बाणी में कहा गया है कि प्रभु के पलक झपकने मात्र से ही सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश हो जाता है : हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥(5-284)


सृष्टि कर्म में दिव्य ऊर्जा, शब्द, के स्थान पर दिव्य दृष्टा, नाम, को प्राथमिकता देना न केवल शास्त्र सम्मत है अपितु भौतिक विज्ञान की खोजों से भी उचित सिद्ध होता है। क्वांटम भौतिकी में हुए प्रयोगों से पता चलता है कि जब हम क्षुद्रतम इलेक्ट्रान का अवलोकन करते हैं तो उस क्षण में उस इलेक्ट्रान के व्यवहार का हमारा अभिज्ञान मात्र ही उसके गुणस्वभाव को परिवर्तित कर देता है। क्वांटम भौतिकी में इसे प्रेक्षक प्रभाव (Observer Effect) कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि प्रेक्षण-कर्म वस्तुतः सृजन-कर्म ही है।


उपर्युक्त दो उदाहरणों द्वारा प्रभु सति के कर्तृत्व के दो पहलू दिखाये गये हैं। पहली उदाहरण प्रभु को जगत की ‘एक’ कारण सत्ता के रूप में वर्णित करती है जबकि दूसरी उदाहरण उसे जगत की विविधता के रूप में वर्णित करती है। अब प्रभु का स्वयं को जगत की विविधता के रूप में जानना और तदुपरांत इस विविधता में स्वयं को विस्मृत कर देना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब पराप्रकृति गतिशील होगी तब अपराप्रकृति अवश्य ही उत्पन्न होगी, ठीक वैसे ही जैसे अग्नि प्रज्ज्वलित होगी तो धुआँ उत्पन्न होगा। अब यदि प्रभु स्वयं को विस्मृत करेंगे तो फिर अपनी तलाश भी करेंगे। चैतन्य तत्त्व का खुद को जड़त्व में खो देना और उस जड़त्व में, उस जड़त्व के माध्यम से खुद को खोजना, यही प्रभु की लीला है। जीव में यह खोज तब शुरू होती है जब यह मनुष्य के स्तर पर आता है अर्थात जड़ प्रकृति में मन वह उपकरण है जिसके द्वारा यह जीव प्रभु प्राप्ति का कर्म करता है। जीव में प्रभु-प्राप्ति के कर्म की प्रकृति के बारे में उपनिषद आगे लिखता है :

अथाध्यात्मम् यदेतत्गच्छतीव च मनोsनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णम् संकल्पः ॥(4.5)


‘अब अध्यात्म से संबंधित रूप में उसका वर्णन : जैसे मन जो संकल्प करता है और निरंतर प्रेमपूर्वक स्मरण करता है और ब्रह्म को प्राप्त करता प्रतीत होता है।’ अधि+आत्म से अध्यात्म बना है। ‘अध्यात्म’ में ‘आत्म’ पद जीव के लिये आया है। जीव का जीवत्व तीन तत्त्वों से सिद्ध होता है - जड़ जो शरीर बना है; प्राणशक्ति जो ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों के रूप में सक्रिय होती है; और मन जो संकल्प करता है। इस मंत्र में बताया गया है कि प्रभु इस जीव का नेतृत्व, उसके कर्मों की अध्यक्षता कैसे करते हैं। जीव में परमात्म विषयक जिज्ञासा मन के कारण होती है। जीव में मन ही ज्ञान का मूल है। अतएव चैतन्य सत्ता का जड़ प्रकृति से विमोचन मन के माध्यम से ही होता है और इस कार्य में दो साधन हैं - संकल्प (will) और निरंतर प्रेमपूर्वक प्रभु का स्मरण (remembrance)। ध्यान रहे कि स्मरण व प्रेम एक ही धातु ‘स्मृ’ से बने दो पद हैं। स्मृ अर्थात स्मरण और स्मृ अर्थात समार या प्यार। प्रेम का सारतत्त्व शरण होता है। दूसरी ओर ‘संकल्प’ पद का अर्थ निम्नगामी प्रवृतियों का अहेर बन कर जीवन जीने के स्थान पर तपोमय जीवन जीना है। श्रुति का उपदेश है कि जब भी मनुष्य में जड़ शरीर और इंद्रियों के आग्रह के समक्ष नतमस्तक होने की जगह स्वतंत्र संकल्प से कार्य करने की प्रवृति हो; जब भी उसमें प्रभु को सर्वस्व अर्पण करते हुए निरंतर नाम-सिमरन की प्रवृति हो तो समझ लेना चाहिये कि कृपालु प्रभु कृपापूर्वक उसके कर्मों की अध्यक्षता करने के लिये, उसके माध्यम से कर्म करने और उसके उद्धार के लिये उद्यत हुए हैं। जब भी ऐसे कर्मों में मुमुक्षु की अभिरुचि हो तो उसे कभी भी यह दावा नहीं करना चाहिये कि ‘यह कर्म मैंने किया है’, इससे तो हम बंधन में ही फँसेंगे, दावै दाझनु होतु है, समझना चाहिये कि प्रभु हम पर कृपालु हुए हैं। मूलतः वह परमात्मा मन का अविषय है, यह उस तक पहुँच नहीं सकता इसलिये इसे ‘गच्छतीव’ (मानों जाता है) ऐसा कहा गया है। प्रभु की शरण ग्रहण करने और प्रेमपूर्वक उसके स्मरण से मन निष्क्रिय (passive) होता है और प्रभु की कृपा-प्रसाद के काबिल बनता है। जीव में प्रभु-भक्ति का समस्त उद्यम प्रभु स्वयं करते हैं।


(शेष आगे)

 

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