A second realm - Realm of Knowledge was made in the process of the creation of the Universe. What is the nature & source of that realm? What is the proof of this knowledge? How many types of knowledge are there? Know more about the knowledge found in the Realm of Knowledge.
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सृष्टि रचना के प्रक्रम में निर्मित होने वाले अगले खंड/लोक/मंडल को गुरू नानक देव जी ने ज्ञानखंड कहा गया है। 35वीं पउड़ी की दूसरी से दसवीं पंक्ति व 36वीं पउड़ी की पहली दो पंक्तियां ज्ञानखंड का वर्णन करती हैं। यह वर्णन इस प्रकार हैं :
पउड़ी 35
धरम खंड का एहो धरमु ॥ (1)
गिआन खंड का आखहु करमु ॥ (2)
केते पवण पाणी बैसंतर केते कान महेस ॥ (3)
केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥ (4)
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥ (5)
केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥ (6)
केते सिद्ध बुद्ध नाथ केते केते देवी वेस ॥ (7)
केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥ (8)
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥ (9)
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंत ॥ (10)
पउड़ी 36
गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ (1)
तिथै नाद बिनोद कोड आनंदु ॥ (2)
‘धर्मखंड की विशेषता यही है जो ऊपर या पहले (अर्थात 34वीं पउड़ी में) बताई गई है। अब ज्ञानखंड के कौतुक का वर्णन करें। ज्ञानखंड में अनेक प्रकार की पवन, पानी और अग्नि हैं; अनेक कृष्ण हैं और अनेक शिव हैं। अनेक ब्रह्मा पैदा किए जा रहे हैं, जिनके अनेकों रूप, अनेकों रंग और अनेकों वेश हैं। ज्ञानखंड में बेअंत धरतियां हैं, बेअंत मेरु पर्वत, बेअंत ध्रुव भक्त व उनके उपदेश हैं। बेअंत इंद्र देवता, चंद्रमा, बेअंत सूरज और बेअंत भवन-चक्र हैं। बेअंत सिद्ध हैं, बेअंत बुद्ध अवतार हैं, बेअंत नाथ हैं और बेअंत देवियों के परिधान हैं। उस खंड में बेअंत देवता व दैत्य हैं, बेअंत मुनि हैं, बेअंत प्रकार के रतन तथा (रत्नों के) समुंदर हैं। (जीव रचना की) बेअंत खाणीयां हैं। (जीवों की बोली भी चार नहीं अपितु) वाणियों के रूप भी बेअंत हैं। बेअंत बादशाह और राजे हैं, बेअंत प्रकार के ध्यान हैं (जो जीव मन द्वारा लगाते हैं), बेअंत सेवक हैं। हे नानक! कोई अंत नहीं पा सकता। ज्ञानखण्ड में (जीव में) प्रचंड ज्ञान होता है। उस खंड में रागों, तमाशों व चमत्कारों का असीम आनन्द है।’
रचना के आविर्भाव के क्रम में निर्मित इस दूसरे मंडल को गुरू नानक देव ने ‘ज्ञानखंड’ कहा है। यहाँ सर्वप्रथम प्रश्न उठता है कि इस ‘ज्ञान’ का स्वरूप क्या है? हम आदिग्रंथ में ‘ज्ञान’ पद का प्रयोग तीन अर्थों में हुआ पाते हैं। पहला, किसी विषय के संबंध में घटनाक्रम की सूचना देना, यथा :
जैसी मैं आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥(1-722)
दूसरा, विचार करने के अर्थ में, यथा :
नानक मुसै गिआन विहूणी खाइ गइआ जमकालु ॥(1-465)
यहां ‘ज्ञान’ का सम्बन्ध ‘विवेक’ से है जो साधना का अभिन्न अंग है, अतः यहां ज्ञान पद साधनावस्था के लिये प्रयुक्त हुआ है। तीसरा, ऐसी पंक्तियां भी हैं जहां ‘ज्ञान’ पद विश्वव्यापक परमात्मा का सुझाव देता प्रतीत होता है, यथा :
सचा नेहु न तुटई जे सतिगुरू भेटै सोइ ॥
गिआन पदारथु पाईऐ त्रिभवन सोझी होइ ॥(1-60)
ऐसा गिआनु सुनहु अभ मोरे ॥ भरपूरि धारि रहिआ सभ ठउरे ॥(1-411)
तीन भवन निहकेवल गिआनु ॥ साचे गुर ते हुकमु पछानु ॥(1-414)
यह ध्यान देने वाली बात है कि बाणी में नाम पदारथु, प्रेम पदारथु व गिआन पदारथु तीनों पद प्रयुक्त हुए हैं। पदार्थ अर्थात् वस्तु। यह शब्द जगत् में व्याप्त् सद्वस्तु के लिए प्रयुक्त हुआ है, यह त्रिलोकी में व्याप्त् किन्तु इसकी समस्त विविधता से अस्पृश्य, बेलाग वैश्वप्रभू है। इसी को नाम, अशब्दब्रह्म, ब्रह्म आदि कहा गया है। इस ज्ञान की प्राप्ति में सहायक साधन भी ज्ञान ही है, बाणी इस साधनरूप ज्ञान को शब्द कहती है, अन्यत्र इसे शब्दब्रह्म, ईश्वर, शक्ति आदि भी कहा गया है। नाम में ज्ञान पूर्ण, भरपूरि, है; शब्द में ज्ञान आंशिक है। शब्द के अभ्यासी जीव की स्थिति ऐसे है जैसे किसी भी विषय के ज्ञान की प्राप्ति से पूर्व विचार की दशा में होती है। बाणी में अनेक स्थानों पर शब्द पद का प्रयोग विचार के साथ ही हुआ है। शब्द प्रभू की शक्ति है, शब्द के अभ्यासी के भीतर यह शक्ति ही विचार का रूप धारण करती है जिससे साधक में सत् और असत् के बीच विवेक, तथ्य और सत्य के बीच विवेचन, कारण और परिणाम के बारे में पर्यालोचन और इन सभी कारकों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि होती है। शब्द का यह ‘विचार’ ही धीरे-धीरे नाम के ‘ज्ञान’ में परिणत हो जाता है। शिव की शक्ति ही शिव की सत्ता में जीव को स्थिर कर देती है।
पीछे हमने बताया है कि ‘ज्ञान’ के प्रधान रूप तीन हैं। हम इन्हें ‘जागरुकता’ (awareness), ‘ज्ञान’ (knowledge, wisdom, reason अथवा अधिक उचित रूप से कहें तो Gnosis) व ‘चैतन्य’ (Consciousness) -इन तीन शब्दों द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। नॉसिस (Gnosis) एक सामान्य यूनानी संज्ञा है जिसका अर्थ है - ज्ञान। इस शब्द का प्रयोग वैयक्तिक ज्ञान के लिए किया जाता है। इससे सामान्यतः रहस्यमय ज्ञान या अंतर्दृष्टि का संकेत होता है। लेटिन भाषा में युनानी के 'g' उपसर्ग को त्याग दिया गया जिससे 'gna' सिर्फ 'no' रह गया लेकिन लेटिन में ही कुछ अन्य शब्दों में 'g' बना रहा जैसे co-gni-tio (knowledge), i-gna-tus या i-gno-rus (unknown)। इनमें 'gna' धातु महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका संबंध संस्कृत भाषा के 'ज्ञ' से है जिससे ‘ज्ञान’ शब्द निर्मित हुआ है। पश्चिम में नॉस्टिक सम्प्रदाय के अनुसार नॉसिस आत्मज्ञान है जो व्यक्ति को उसके धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश से उत्पन्न बौद्धिक उद्भावनाओं से मुक्त करके वैयक्तिक परमात्मा से रू-ब-रू कराता है।
पीछे हमने जाना कि सत्य स्वरूप परमात्मा सति नाम की रचना करके सृष्टि के दृष्टा के रूप में अवस्थित होते हैं। उनके दृष्टा रूप को नाम/अक्षर सत्ता/शिव/ब्रह्म कहा गया है, उनके इस रूप में ‘ज्ञान’ शुद्ध सत्ता के रूप में है, यह जगत् की वस्तुओं की विविधता से संबद्ध नहीं है, ज्ञान के इस रूप को चैतन्य (Consciousness) कहा जायेगा। जब परमात्मा सति शब्द की रचना करके स्वयं को सृष्टि की विविधता के रूप में उपलब्ध करते हैं तो उनके सृष्टि रूप को शब्द/क्षर शक्ति/पराप्रकृति/ईश्वर कहा गया है, उनके इस रूप में भी ज्ञान उपस्थित है। शब्द/ईश्वर के रूप में उनका यह ज्ञान ही ब्रह्मांड का आधार (substructure) है। परमात्मा सति द्वारा शब्द (सृष्टि की विविधता) के रूप में स्वयं को जानने में ही जगत् के बहुविध रूपों का अस्तित्व निहित है अर्थात जिस भी रूप का अस्तित्व हम देखते, जानते, सुनते, अनुभव करते हैं उसका अस्तित्व इसीलिए है क्योंकि उसके मूल में प्रभू शक्ति विद्यमान है जो स्वयं को उस रूप में देख, जान, सुन या अनुभव कर रही है। यदि प्रभू शक्ति उस रूप में स्वयं को नहीं जानती तो हम भी उस रूप को नहीं जान सकते। पुनः चूंकि यह शब्द एक है इसलिए उसकी अभिज्ञता में चलायमान यह आश्चर्यजनक रूप से विविध और विशाल जगत् भी एक है। जो शब्द को जानता है वही जगत् की वास्तविक प्रकृति को यथार्थतः जानता है क्योंकि शब्द के स्तर पर ‘जानना’ और ‘हो जाना’ एक ही है (Knowing is Becoming)। ज्ञान का तीसरा पहलू हम मायाग्रस्त जीवों के स्तर पर है। ‘जानना’ चित् सत्ता का गुण है। माया जड़त्व है अतएव हम मायाग्रस्त जीव वस्तु के बारे में केवल जागरुक (aware) होते हैं। हम वस्तु को नहीं जानते अपितु उसके बाहरी त्रिविमीय आकार-प्रकार के बारे में जागरुक होते हैं। हमारा ज्ञान वस्तु का नहीं, वस्तु के बारे में अपनी धारणाओं का होता है, ज्ञान के इस रूप को अज्ञान ही कहा जायेगा। इस प्रकार ज्ञान के ये तीन स्तर नामतः awareness, Gnosis, और Consciousness हमारे जगत् के तीन स्तरों को प्रदर्शित करते हैं और ये तीनों स्तर क्रमशः प्रभू सति की अदिव्य जड़ शक्ति अर्थात माया, दिव्य चेतन शक्ति अर्थात शब्द और सत्ता अर्थात नाम द्वारा रचे गये हैं। माया प्रभू सति का नाम-रूप है; शब्द प्रभू सति की लीला है; नाम प्रभू सति का धाम है।
हमने कहा कि मायाग्रस्त जीव में उपस्थित ज्ञान के रूप को ‘जागरूकता’ कहा जायेगा और यह ‘जागरूकता’ वस्तुतः ‘अज्ञानता’ है। चूँकि ‘अज्ञानता’ की इस अवस्था में हम अनेक ऐसी वस्तुओं के बारे में जागरूक होते हैं जिनका अस्तित्व हमारे लिये पूर्ण सत्य, अकाट्य और प्रामाणिक होता है अतएव हम कहेंगे कि ‘अज्ञानता’ का अर्थ ‘बहुलता’ है, और स्वाभाविक रूप से यह भी कहेंगे कि ‘ज्ञान’ का अर्थ ‘एकता’ है। नाम ज्ञान है, यहाँ प्रभू का एकत्व भरपूर है; माया अज्ञान है, यहाँ प्रभू की जड़ शक्ति द्वारा निर्मित बहुत्व भरपूर है; शब्द नाम/ज्ञान/एकत्व और माया/अज्ञान/बहुत्व की मध्यवर्ती अवस्था है। शब्द आंशिक ज्ञान है, और साथ ही आंशिक अज्ञान भी है। यहाँ चैतन्यता और जड़त्व, ज्ञान और अज्ञान, एकत्व और बहुत्व दोनों एक साथ उपस्थित हैं। शब्द का अभ्यस्त जीव समस्त बहुलता को प्रभू की एकता से ओतप्रोत देखता है : सभ परोई इकतु धागै ॥(5-108) जिससे जीव-समष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार का अनुभव उसके लिये एक प्रभू का खेल मात्र बन कर रह जाता है : आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥(5-294)
इस चर्चा से स्पष्ट संकेत मिलता है कि ज्ञानखंड में जिस ‘ज्ञान’ की प्राप्ति साधक को होती है, वह शब्द है। शब्द को ही ‘नॉसिस’ कहा गया है। यह ज्ञान आत्मज्ञान है जिससे जीव को दसों दिशाओं में परमात्मा की महिमा पसरी हुई दिखाई देने लगती है और वह स्वयं को सदैव परमात्मा की उपस्थिति में पाता है; उसकी आध्यात्मिक दरिद्रता समाप्त हो जाती है और अज्ञानता के बंधन कट जाते हैं; उसकी माया के पदार्थों की तृष्णा और उनकी खातिर की जाने वाली दौड़-भाग समाप्त हो जाती है और वह प्रभू पिता के चरणों की धूलि और मन को मोह लेने वाले उस प्रभू-प्रियतम के दर्शनों का याचक बन जाता है :
टोडी महला 5
प्रभ तेरे पग की धूरि ॥
दीन दइआल प्रीतम मनमोहन करि किरपा मेरी लोचा पूरि ॥ रहाउ॥
दह दिस रवि रहिआ जसु तुमरा अंतरजामी सदा हजूरि ॥
जो तुमरा जसु गावहि करते से जन कबहु न मरते झूरि ॥1॥
धंध बंध बिनसे माइआ के साधू संगति मिटे बिसूर ॥
सुख संपति भोग इसु जीअ के बिनु हरि नानक जाने कूर ॥2॥(5-716)
माया में लिप्त अहंग्रस्त जीव के लिये सफेद दिन होते हुए भी घुप्प अंधकार बना रहता है, उसकी आत्मिक पूंजी को काम, क्रोध आदि चोर लूटते रहते हैं, उसे समझ ही नहीं आता कि वह किसके पास शिकायत करे :
दिहु दीवी अंध घोरु घबु मुहाईऐ ॥
गरबि मुसै घरु चोरु किसु रूआईऐ ॥(1-752)
ऐसे जीव के प्रति सद्गुरू का उपदेश है कि वह गुरू के सन्मुख हो। गुरू हरि-नाम-मंत्र देकर शिष्य को जागृत कर देता है :
गुरमुखि चोरु न लागि हरि नामि जगाईऐ ॥(1-752)
इस जागृति के दो पहलू हैं। पहला, शिष्य माया के विषय-विकारों में छिपे दंश के प्रति सचेत होता है और, दूसरा, वह प्रभू के शब्द की दिव्य ज्योति को साक्षात् कर लेता है जिसकी शक्ति से सशक्त होकर वह माया के प्रलोभनों का अधिक पराक्रम के साथ मुकाबला करने लगता है। चूँकि मायिक पदार्थों की तृष्णा एक ऐसी अग्नि है जिसमें विषयों का भोग वस्तुतः घी के रूप में कार्य करता है और विषयों का त्याग जल का कार्य करता है, अतएव जीव की मायिक विषयों की तृष्णा रूप अग्नि धीरे-धीरे बुझने लगती है :
सबदि निवारी आगि जोति दीपाईऐ ॥(1-752)
‘शब्द रूपी दीपक की ज्योति से तृष्णा रूपी अग्नि का निवारण हो गया’। गुरू के उपदेश पर चलने वाले ऐसे शिष्य को साधना के अंतिम चरण में सद्गुरू की कृपा से प्रभू के उस श्रेष्ठ नाम का ज्ञान होता है जो माया से अतिरिक्त, केवल, है जिससे वह भी माया की कामनाओं से सदा के लिये निष्काम हो जाता है, यह सर्वोच्च व स्थायी अवस्था है :
लालु रतनु हरि नामु गुरि सुरति बुझाईऐ ॥
सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ ॥(1-752)
ध्यान रहे कि अभी-अभी जिस शब्द की व्याख्या हमने प्रस्तुत की है उसमें गुरू साहिब ने तीन चरणों में ‘नाम’ का संदर्भ दिया है। ये हैं :
गुरमुखि चोरु न लागि हरि नामि जगाईऐ ॥
सबदि निवारी आगि जोति दीपाईऐ ॥
लालु रतनु हरि नामु गुरि सुरति बुझाईऐ ॥
‘नाम’ का पहला रूप गुरूमंत्र है; ‘नाम’ का दूसरा रूप जिसे ‘सबद’ कहा गया है, परमात्मा की शक्ति है; नाम का तीसरा रूप परमात्मा की सत्ता है। गुरू साहिबान ने गुरूमंत्र और परमेश्वरी शक्ति -दोनों के लिए ‘नाम’ और ‘शब्द’ पदों के प्रयोग किए हैं किन्तु परमेश्वर की सत्ता के लिए अनिवार्य रूप से नाम पद का ही व्यवहार हुआ है।
(शेष आगे)
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