top of page

Learn about the creation of the 5 sense organs. Kartapurush ep31 - कर्तापुरुष ep31

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: May 22, 2023

Learn about the creation of the 5 sense organs from the mind, the 5 tanmatras, the 5 means of action & the 5 physical elements.

Kartapurush ep31 Image
Kartapurush ep31
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep30

 

पाँच तन्मात्राओं और पाँच महाभूतों की उत्पत्ति की प्रक्रिया का यह अध्ययन मूलतः तामसिक अहंकार में हुए क्रमविकास को ध्यान में रखकर किया गया है। इस क्रमविकास में परमात्मा की पराशक्ति/शब्द की प्रेरणा पर तो ध्यान केंद्रित किया गया है किन्तु विकास की इस प्रक्रिया में जीवात्मा के संकल्प की भूमिका की अवहेलना हुई है। इससे यह अध्ययन एकांगी हो गया है। मन से पांच ज्ञानेन्द्रियों, इन पांचों के विषयरूप पांच तन्मात्राओं, कर्म के साधन स्वरूप पांच कर्मेन्द्रियों और अंत में इनसे पांच भौतिक तत्त्वों की उत्पत्ति में जीवात्मा के संकल्प की भूमिका को जानने के लिए हम प्रख्यात विद्वान श्रीमान्‌ जे.सी. चटर्जी की पुस्तक Kashmir Saivism की सहायता ले सकते हैं। पाठकगण इस विषय की विस्तारपूर्वक जानकारी के लिये उसे पढ़ सकते हैं। यहाँ पर हम उस अध्ययन को सार रूप में प्रस्तुत करके संतोष करेंगे।


जीव में कामना के अधिष्ठान मन की उत्पत्ति के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति हो जाती है क्योंकि यह कामना वस्तु को देखने, चखने, सूंघने, स्पर्श करने और सुनने के लिये होती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति के साथ ही पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति की आधारभूमि तैयार हो जाती है। इसका कारण यह है कि यों तो जीवात्मा के चहुं ओर त्रैगुणात्मक माया की उपस्थिति है जो सार्वभौम व एकरूप पदार्थ है लेकिन ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता विविधरूप है और यह मूल पदार्थ इनके अनुरूप ही पांच प्रकार का हो जाता है। इस प्रकार जिस क्षण कामना के रूप में मन का जन्म होता है उसी समय कामना की पूर्ति का साधन इन्द्रियां और उनके विषयक्षेत्र, तन्मात्राएं भी उत्पन्न हो जाती हैं और इन तीनों के पीछे है ‘पुरुष’ जो वैसे तो प्रभुस्वरूप है लेकिन माया के वशवर्ती होकर अपने सच्चे स्वरूप को भूल चुका है। जे.सी. चटर्जी के अनुसर इस अवस्था में यह समीकरण बनता है :

'मैं रंग को देखना चाहता हूं।' (I desire to see color)


इसमें 'मैं' (I) हउमैग्रस्त आत्मा है; मन रस की प्राप्ति - इस संबंध में ‘रंग’ - की कामना (desire) है; ‘रंग’ (colour) तन्मात्रा है; देखने की क्रिया (to see) का साधन नेत्र इन्द्रिय है। इस समीकरण से स्पष्ट है कि कामना रूप मन 'मैं' (I) व दृश्य इन्द्रिय के बीच मध्यस्थ है जबकि कामना व तन्मात्रा के बीच इन्द्रिय मध्यस्थ है। दूसरी ओर इस समस्त व्यापार की मूल प्रेरणा पुरुष (I) है जिसके भोग के लिए प्रकृति यह नाटक प्रस्तुत कर रही है।


इनके उत्पन्न होते की कर्मेन्द्रियां भी उत्पन्न हो जाती हैं। कारण, ज्ञानेन्द्रियों के उत्पन्न होने पर जब उनके विषयों को ग्रहण किया जाता है तो आत्मा में ग्रहीत विषय का प्रत्युत्तर देने की कामना भी पैदा होती है। श्रवणेन्द्रिय के उत्पन्न होने पर जब शब्द तन्मात्रा को ग्रहण किया जाता है तो बोलने, प्रत्युत्तर देने की कामना उत्पन्न होती है जिससे वाक्-इंद्रिय का विकास होता है। इसी तरह त्वचा-इन्द्रिय के उत्पन्न होने पर जब स्पर्श तन्मात्रा की उत्पत्ति होती है तो उस संवेदन का प्रत्युत्तर देने की कामना की पूर्ति के लिए हस्त-इन्द्रिय का विकास होता है; दर्शन-इन्द्रिय के विकास होने पर जब रूप-तन्मात्रा की उत्पत्ति होती है तो उस विषय की ओर या उससे दूर जाने की कामना उत्पन्न होती है जिससे पाद-इन्द्रिय का विकास होता है। उसी प्रकार आत्मा में गुदा व यौनेन्द्रियों का विकास होता है।


हमने देखा कि जीवात्मा में पांच ज्ञानेन्द्रियों के विकास के साथ ही ज्ञान के विषयों अर्थात्‌ तन्मात्राओं का भी विकास होता है, लेकिन आरम्भ से ये विषय शब्द, स्पर्श, रंग, स्वाद व गंध के सामान्य स्वरूप होते हैं। इनमें ध्वनि की विविधता जैसे स्वरमान (pitch), स्वराघात (tone) आदि; स्पर्श का ठंडापन, गर्माहट, कोमलता, कठोरता आदि; रंग की विविधता आदि का अनुभव नहीं होगा। मन चूंकि कामनामय ही नहीं चंचल भी है, इसलिए वह अपने अनुभव में परिवर्तन की कामना रखता है, जिसके अभाव में मन इन अनुभवों में रूचि को खोने लगता है। प्रारम्भ में जब पुरुषसंयुक्त मन शब्द तन्मात्रा का अनुभव करता है तो वह ध्वनि एक समान व चारों दिशाओं में होती है, कुछ काल के पश्चात्‌ मन उस एक समान ध्वनि में परिवर्तन की इच्छा करेगा। यह परिवर्तन तभी संभव है जब मन ही इस परिवर्तन की कल्पना करे। पुरुषसंयुक्त मन की ओर से विविधता की कल्पना पूरी तरह संभव है क्योंकि चेतना के समक्ष प्रस्तुत सामान्य विषयों में सभी विशिष्टताओं के तत्त्व इसी प्रकार अंतर्निहित हैं जैसे सूर्य के श्वेत प्रकाश में सात रंग अंतर्निहित हैं अथवा विश्व की समस्त विविधता प्रभु के एकल अनुभव में अंतर्निहित है। इस प्रकार शब्द तन्मात्रा के साधारण संवेदन से विशिष्ट ध्वनियों का बोध होता है। इसी तरह स्पर्श, रंग, रस व गंध के संवेदन से अनेक विभिन्नताएं उत्पन्न होती हैं।


यह ध्यान रखने की बात है कि अभी तक पुरुष ने विशेष श्रवणेन्द्रिय या किसी भी इन्द्रिय का विकास नहीं किया। ध्वनि का अनुभव पुरुष को अपने चारों ओर से, समस्त दिशाओं से होगा। इसका अर्थ हुआ कि शब्द तन्मात्रा की एकरूपता में विविधता के अनुभव से ही देश (space) व दिशाओं का अनुभव होगा। इसी से आकाश की उत्पत्ति होगी। इसी तरह जब पुरुष अपने चारों ओर से एक समान तापमान, जोकि स्पर्श का सबसे सरल रूप है, को अनुभव करेगा और धीरे धीरे उस एकरूपता में विविधता को अनुभव करने लगेगा जैसे अधिक ताप या अधिक शीत, तब तापमान में विविधता का यह अनुभव वायवीय वातावरण या वायु के रूप में होगा। फिर, जब पुरुष रंग तन्मात्रा को चारों ओर अनुभव करते हुए उसमें विविधता का अनुभव करेगा तब इस विविधता से ही रूप और आकृति का अनुभव होगा क्योंकि रूप के बिना रंग का अनुभव असंभव है। वस्तुतः जिस प्रकार आकाश का अनुभव ध्वनि में विविधता के अनुभव का अनुवर्ती है, उस प्रकार से रूप का अनुभव रंग में विविधता के अनुभव का अनुवर्ती नहीं होगा, रंग का अनुभव ही रूप में होगा। जब रिक्त दिक्‌मंडल में रंग का कोई धब्बा अचानक प्रकट होगा तो यह किसी न किसी प्रकार की आकृति का ही होगा। इस दशा में अनुवर्ती अनुभव ऐसी ऊर्जा का होगा जो आकृतियों का निर्माण करती, उन्हें परिवर्तित करती या उन्हें समाप्त करती है, इसी शक्ति को अग्नि कहा गया है। लेकिन यह भौतिक अग्नि नहीं है क्योंकि सरमखंड में भौतिक रूपों का अस्तित्व ही नहीं है। यह निराकर से आकारों का निर्माण करने वाली और एक से दूसरे रूप में या दूसरे से पहले रूप में परिविर्तित होने वाले शक्ति है ओर इसका कार्य दहन (combustion) या पाक (chemical action) है। इस प्रकार रूप तन्मात्रा से अग्नि का निर्माण होता है। इसी तरह रस तन्मात्रा का अनुभव अनेक प्रकार के स्वादों में बदलता है। इसका परिणामी अनुभव आर्द्रता या तरलता का होगा क्योंकि रस के साथ आर्द्रता का अनुभव जुड़ा हुआ है। इस तरह रस तन्मात्रा से जल की उत्पत्ति होती है। इसी तरह गंध तन्मात्रा में विविधता से जिस अनुभव का जन्म होगा उसे पृथ्वी तत्त्व कहा गया है। गंध का अनुभव स्थिरता का अनुभव होता है और स्थिरता सभी ठोस वस्तुओं का गुण है। इस प्रकार पांच तन्मात्राओं से भौतिक जगत्‌ के पांच मूलभूत तत्त्व उत्पन्न होते हैं। उन्हें ही संस्कृत ग्रंथों में, और आदिग्रंथ में भी, भूत कहा गया है जिसका अर्थ है 'गुजरते हुए' (have been), जो कभी भी 'हैं' (are) नहीं हैं बल्कि जो समाप्तप्रायः हैं, जो सत्‌ नहीं बल्कि सत्‌ की परछाईयां मात्र हैं (ghosts of the soul)। यह सारी विविधता प्रभु की अपनी शक्ति से उत्पन्न होती है, उसी के सत्‌संकल्प से बनी रहती है किंतु हउमै के कारण इसे कुछ और समझा जाता है।


(शेष आगे)

 

Continue reading▶️Kartapurush ep32

1 commentaire

Noté 0 étoile sur 5.
Pas encore de note

Ajouter une note
Chaitanya Sabharwal
Chaitanya Sabharwal
03 mars 2023
Noté 5 étoiles sur 5.

This is very knowledgeable article.

J'aime
bottom of page