According to Sankhya philosophy, the intellect originates from nature and the ego originates from the intellect. While at the stage of intelligence, all the three qualities of nature are mixed and in a state of equilibrium, so that there is no fluctuation in it, whereas the ego divides nature into three parts namely Sattvik Ego, Rajasik Ego and Tamasik Ego respectively. The sattvik ego leads to eleven sense organs (five organs of cognition, five organs of action and mind). The tamasic ego leads to five tanmatr (sound, touch, form, taste and smell). And finally, from these five tanmatrs, five elements called sky, air, fire, water and earth respectively are generated. Thus twenty-one elements are produced. The question is, what arises from rajasic ego? What is the relationship between the mind and the ten senses of knowledge and action? When the three qualities of nature are mixed at the level of intelligence, how can the ego produce different elements from these three qualities, because these three qualities are already mixed? Read on Karta Purush 29 to know the answers to these questions.
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति से बुद्धि तत्त्व और बुद्धि से अहंकार तत्त्व की उत्पत्ति होती है। जहां महान बुद्धि के चरण में प्रकृति के तीनों गुण मिश्रित और संतुलन की अवस्था में होते हैं जिससे वह तत्त्व सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में एकरस होकर भरा रहता है अर्थात उसमें कोई उतार-चड़ाव नहीं होता, वहीं अहंकार तत्त्व प्रकृति को सत्व, रजस् और तमस् की प्रधानता से क्रमशः सात्विक अहंकार, राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार नाम वाले तीन भागों में बाँट देता है। सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा मन); तामसिक अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध); और अंत में इन पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत -इस प्रकार इक्कीस तत्व उत्पन्न होते हैं। प्रश्न होता है कि राजसिक अहंकार से क्या उत्पन्न होता है? मन और ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों के बीच क्या संबंध हैं? जब बुद्धि के स्तर पर प्रकृति के तीन गुण मिश्रित हो जाते हैं तो अहंकार इन तीन गुणों से भिन्न-भिन्न तत्त्वों की उत्पत्ति कैसे कर पाता है, क्योंकि ये तीन गुण तो पहले ही मिश्रित हो जाते हैं? ऐसे ढेर सारे प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 29

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इसके साथ ही सरमखंड का वर्णन करने वाली जपुजी की 36वीं पउड़ी की छह पंक्तियों का हमारा अध्ययन समाप्त होता है। साथ ही साथ, गुरु नानक देव जी के सृष्टि चित्रण में रचना की प्रविधि दर्शाने वाला विवरण भी यहीं समाप्त हो जाता है। इसके बाद आपने धर्मखंड और ज्ञानखंड का वर्णन करने वाली 34वीं और 35वीं पउड़ी में रचना की प्रकृति के वर्णन पर ही ध्यान केंद्रित किया है। ऐसे में हमारे लिये भी यही समीचीन होगा कि हम आदिग्रंथ में अन्यत्र दिये गये प्रमाणों और साथ ही सांख्य व वेदान्त सहित अन्य सद्ग्रंथों के आधार पर सृष्टि चित्रण की शेष बची सम्पूर्ण प्रक्रिया का यहीं पर अध्ययन करें और उसके पश्चात गुरु नानक देव जी द्वारा लिखित धर्मखंड और ज्ञानखंड का वर्णन करने वाली 34वीं और 35वीं पउड़ी का अध्ययन करें।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति से बुद्धि तत्त्व और बुद्धि से अहंकार तत्त्व की उत्पत्ति होती है। जहां महान बुद्धि के चरण में प्रकृति के तीनों गुण मिश्रित और संतुलन की अवस्था में होते हैं जिससे वह तत्त्व सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में एकरस होकर भरा रहता है अर्थात उसमें कोई उतार-चड़ाव नहीं होता, वहीं अहंकार तत्त्व प्रकृति को सत्व, रजस् और तमस् की प्रधानता से क्रमशः सात्विक अहंकार, राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार नाम वाले तीन भागों में बाँट देता है। सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा मन); तामसिक अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध); और अंत में इन पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत -इस प्रकार इक्कीस तत्व उत्पन्न होते हैं।
इस विषय में हमारा सुझाव यह है कि सात्विक अहंकार से केवल मन की ही उत्पत्ति होती होगी। ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों की उत्पत्ति राजसिक अहंकार से होगी। मन और ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों को केवल इनके मध्य गहन संबंधों के आधार पर ही एक संवर्ग में रख दिया जाता है। पीछे मन के अध्ययन के क्रम में हमने देखा है कि मन में तीन महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं, यथा कामना, ज्ञान व कर्म। श्री जे.सी. चटर्जी लिखते हैं, "मन कामनाओं का अधिष्ठान है। ये कामनाएं या तो ज्ञान के पांच तरीकों में से एक या दूसरे तरीके से देखने, बूझने या समझने के लिए होती हैं अर्थात् सुनने, स्पर्श करने, देखने, चखने या सूंघने के लिए होती हैं, या फिर कर्म के पांच तरीकों जैसे बोलने, पकड़ने, हरकत आदि करने में से एक या किसी दूसरे तरीके से कार्य करने की होती हैं। दूसरे शब्दों में कामना का अस्तित्व अपने आप से और अपने आप के लिए नहीं होता। यह कामना या तो जानने की होती है या कर्म करने की। इसलिए ज्यों ही प्रभुशक्ति मन की अवस्था में पहुंचती है उसमें जानने या कार्य करने के साधनस्वरूप इंद्रियां विकसित हो जाती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कामना व मन एकरूप हैं, कामना ही मन है और कामना सदा इन दस रूपों में व्यक्त होती है। अतः दशरूप इंद्रियां कामना या मन के साथ ही उत्पन्न हो जाती हैं जिनके विकास का खेल सदा बाहरी वातावरण के साथ अनुकूलन की क्रिया द्वारा चलता रहता है।''(Kashmir Saivism, पृ -80) इस प्रकार आत्मा की बाहरी वातावरण को जानने व उसे अपने अनुकूल ढालने की कामना को मन कहा गया है। यह कामना दस रूपों में प्रकट होती है जिससे पांच ज्ञान की व पांच कर्म की -कुल दस इंद्रियां उत्पन्न होती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं - श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद व गंध की शक्ति। जबकि पांच कर्मेन्द्रियां हैं – अभिव्यंजन (speech), संचालन (handling), संचलन (locomotion), उत्सर्जन (excretion) व प्रजनन (reproduction) की शक्ति। ध्यान रहे कि यहां इन्हें इंद्रियां नहीं बल्कि इंद्रियों की शक्ति कहा जा रहा है क्योंकि यहां उनकी उत्पत्ति श्रवण, स्पर्श, दृश्य आदि के लिए प्राप्त शारीरिक अंगों के रूप में नहीं होती बल्कि मन की उन क्षमताओं के रूप में होती है जो विकासक्रम में आगे चलकर इन भौतिक अंगों के रूप में या उनके द्वारा कार्य करती हैं। श्री जे.सी. चटर्जी लिखते हैं, "मनुष्य देह में ये कर्मेन्द्रियां क्रमशः मुख, हाथ, पैर, गुदा व यौनांग हैं लेकिन ध्यान रहे कि ये अपने आप में कर्मेन्द्रियां नहीं हैं। ये केवल वे माध्यम हैं जिनके द्वारा सक्रिय शक्तियों का संचालन होता है। वस्तुतः इन्हें पुरुष द्वारा इन पांच विधियों से सक्रिय होने के लिए विकसित किया गया है।''(वही) इसका अर्थ हुआ कि इन्द्रिय का अर्थ शारीरिक अंग नहीं है। इन्द्रिय एक शक्ति है। शारीरिक अंग तो उस शक्ति द्वारा विकसित किया गया है। ठीक इसी तरह पांच ज्ञानेन्द्रियां भिन्न हैं जबकि कान, त्वचा आदि पांच शारीरिक अंग इनसे भिन्न हैं।
मन व इन्द्रियों के संबंधों को स्पष्ट करते हुए श्री अरविंद लिखते हैं, "इंद्रिय क्या है? यह पदार्थ के किसी न किसी रूप, चाहे वह गंध हो, रस हो, रंग हो, के साथ मन का स्पर्श है, लेकिन मन का पदार्थ के साथ संपर्क प्राण के माध्यम से होता है। यह प्राण कोई भौतिक तत्त्व नहीं है, हममें यह एक तंत्रिका ऊर्जा के रूप में स्थित है, यह पदार्थ को केवल रूप (form) के तंत्रिका चिह्नों (nervous impressions) के माध्यम से ग्रहण कर सकता है। इससे प्राण में तद्नुरूप मूल्य निर्मित होते हैं, मन इन्हें ग्रहण करता है और तद्नुरूप मानसिक मूल्य निर्मित करता है। इस तरह वस्तु का ज्ञान तिहरी प्रक्रिया से प्राप्त होता है, भौतिक रूप या छाया, तंत्रिका छाया और मानसिक छाया। इसका कारण यह है कि हममें सदा ही चेतना के तीन कोश होते हैं - अन्नमय कोश, जिसमें भौतिक स्पर्श होता है और छवि को ग्रहण किया जाता है; प्राणमय कोश, जिसमें तंत्रिका स्पर्श व निर्माण होता है; और मनोनय कोश, जहां मानसिक स्पर्श व बिंब निर्माण होता है।''
''इस प्रकार इन्द्रिय का आधार स्पर्श है और मूलभूत स्पर्श मानसिक है। यदि यह मानसिक स्पर्श नहीं होगा तो इन्द्रियां होंगी ही नहीं। जैसे पौधा तंत्रिका प्रणाली के माध्यम से महसूस करता है किंतु मन के अभाव के कारण इन प्रभावों व उनके प्रति प्रतिक्रियाओं के बारे में सचेत नहीं है। इस प्रकार इन्द्रिय की परिभाषा यही दी जा सकती है कि यह एक विषय के साथ मानसिक स्पर्श और उसके प्रतिरूप की मानसिक प्रतिकृति है। (Sense may be described as mental contact with an object and the mental reproduction of the image)”(Kena and other Upanishads)
त्रिलोकी के तीनों खंड माया के तीन गुणों से बने हैं। माया के सत्व गुण से मानसिक सृष्टि सरमखंड का निर्माण हुआ है; रजोगुण से प्राणिक सृष्टि ज्ञानखंड का निर्माण हुआ है; जबकि तमोगुण से धर्मखंड बना है। लेकिन त्रिलोकी में कहीं भी कोई भी एक गुण शुद्ध, अमिश्रित रूप में नहीं है। एक गुण दूसरों को दबा सकता है लेकिन समाप्त नहीं कर सकता। सरमखंड मानसिक सृष्टि है, इसका आधार पदार्थ नहीं है। लेकिन पदार्थ व इन्द्रिय वहां अनुपस्थित नहीं हैं। वहां इन्द्रिय का रूप व कार्यकरण भिन्न होगा। वस्तुतः प्रत्येक खंड में मन की तुलना में इन्द्रिय का रूप व कार्यकरण भिन्न होगा। इस सम्बन्ध में मेहर बाबा द्वारा किया गया वर्णन बड़ा ज्ञानगर्भित है। आप लिखते हैं, ''स्थूल संस्कारों वाली आत्माएं स्थूल शरीर के माध्यम से स्थूल मंडल का अनुभव करती हैं; अर्थात् वे भिन्न-भिन्न व विविध अनुभवों जैसे दृष्टिबोध, श्रव्यता, घ्राण, भक्षण, नींद, मल व मूत्र त्याग आदि को अनुभव करती हैं। ये समस्त अनुभव स्थूल मंडल (अर्थात् धर्मखंड) में होते हैं।''
''सूक्ष्म संस्कारों वाली आत्माएं सूक्ष्म शरीर के माध्यम से सूक्ष्म मंडल के तीन तलों (अर्थात् ज्ञानखंड) को अनुभव करती हैं और इन तीन तलों पर उन्हें केवल दृष्टिबोध, सूंघने की क्रिया और श्रवण का अनुभव होगा।''
''मानसिक संस्कारों वाली आत्माएं मानसिक शरीर या मन के माध्यम से मानसिक मंडल को केवल देखती भर हैं और यह देखना प्रभु को देखना है।''(God Speaks, पृ -31)
इसका भाव हुआ कि स्थूल जगत् में स्थूल शरीर में आबद्ध होने पर ही कर्मेन्द्रियों जैसे खाना-पीना, मलत्याग, चलना, उठाना (lifting) आदि की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म जगत् में न तो भोजन की आवश्यकता होती है न मलत्याग की। वहां गमनागमन के लिए या काम करने के लिए केवल संकल्प (will) की ही आवश्यकता होती है। कारण जगत् में कर्मेन्द्रियों की तो आवश्यकता ही नहीं होती, ज्ञानेन्द्रियों की विविधता भी एकता में बदल जाती है। वहां शुद्ध मन का अस्तित्व है जिसे जानने के लिए इन्द्रियों की कोई जरूरत नहीं। इन्द्रियां वहां होंगी अवश्य, क्योंकि इन्द्रियां विषय के साथ मानसिक स्पर्श और उसके प्रतिबिम्ब का मानसिक रूपांतरण हैं। सरमखंड में मानसिक चेतना में स्पर्श व बिंब निर्माण है, अतः इन्द्रिय भी है। मन वहां वस्तु के मानसिक रूप को महसूस करेगा और अधिक से अधिक स्थूल पदार्थ के रूप में निर्मित करेगा। दूसरी ओर जो भी स्थूल संरचनाएं वहां होंगी वे मन के प्रति सहज व निःसंकोच भाव से अनुकूल होंगी और उसके संकल्पों के प्रति वशवर्ती होंगी। वहां पदार्थ सुनम्य दशा में व मन के प्रति दासत्व के भाव से होगा। इसीलिए कई बार मन को प्रधान इन्द्रिय और कई बार एकमात्र इन्द्रिय भी कहा गया है।
अतएव मन के साथ ही ज्ञान व कर्म की दस इन्द्रियों का वर्णन गलत नहीं है, किन्तु इस आधार पर हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि जैसे मन की उत्पत्ति सात्विक अहंकार से होती है, वैसे ही ज्ञान व कर्म की दस इन्द्रियों की उत्पत्ति भी सात्विक अहंकार से होती है। वस्तुतः मन की उत्पत्ति सत्व गुण प्रधान अहंकार से होती है जबकि ज्ञान और कर्म की दस इंद्रियों की उत्पत्ति रजोगुण प्रधान अहंकार से होती है। सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति के साथ ही ज्ञान व कर्म की दस इन्द्रियों का बीज वपन (semination) होता है लेकिन इस बीज का विकास और फैलाव आगे के मंडलों में होता है। सरमखंड से अगले खंड ज्ञानखंड में राजसिक अहंकार से उत्पन्न प्राणशक्ति सक्रिय होती है। रजोगुण सक्रियता का मूल है। प्राण भी सदैव सक्रिय रहता है। वैदिक प्रणाली में प्राण को अश्व कहा गया है जबकि मन को इन अश्वों की लगाम कहा गया है। अश्व ‘असु’ धातु से निर्मित शब्द है। ‘असु’ संज्ञा प्राण की भी है और अश्व की भी है। अश्व कहे जाने से प्राण के ऊर्जावान, सदैव गतिशील स्वरूप की व्यंजना होती है। प्राण ही ज्ञान और कर्म की उन दस शक्तियों अथवा अश्वों के मूल में है जो शरीर रूपी रथ को मन द्वारा निश्चित पथ, मनोरथ, की ओर लेकर जाते हैं।
अहंकार के सात्विक और राजसिक रूप से क्रमशः मन और प्राण की उत्पत्ति के साथ-साथ अहंकार के तामसिक रूप से शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध -इन पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। बहुत सारे लेखकों ने संस्कृत शब्द ‘तन्मात्र’ का संधि विच्छेद तत्+मात्र करके ‘मात्र’ का अर्थ ‘केवल’ लेकर ‘तन्मात्र’ शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘That Only’ कर दिया है। दूसरी ओर कुछ अन्य लेखक ‘तन्मात्र’ शब्द में ‘मात्र’ शब्द को ‘मात्रा’ और ‘माप’ से जोड़कर ‘तन्मात्र’ शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘That Measure’ या ‘Its own Measure’ करते हैं। हमारे विचार में ‘तन्मात्र’ शब्द का ‘That Only’ अनुवाद हमें किसी भी निष्कर्ष की ओर लेकर नहीं जाता है जबकि इस शब्द का ‘That Measure’ या ‘Its own Measure’ अनुवाद अपने गर्भ में गंभीर निहितार्थों को छिपाये हुए है।
(इसका अध्ययन आगे किया जायेगा।)
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