Guru Nanak Dev has written that 'The specialty of Sarmakhand is form/shape/body.' We can say on the basis of Plato's 'theory of forms' that these forms that are created in the causal world are universal, non-physical, faultless, unchangeable and permanent. The objects of our visible world are merely imperfect copies of those forms. At the same time, these forms found in Sarmakhand are the link between the 'one form' of God and the infinite forms of our world. Read on Karta Purush 27 for a detailed study of this topic.
गुरु नानक देव ने लिखा है कि ‘सरमखंड की विशेषता रूप/आकृति/शरीर है।’ हम प्लेटो द्वारा दिए गये ‘रूपों के सिद्धांत’ के आधार पर कह सकते हैं कि कारण-जगत् में निर्मित होने वाले ये रूप सामान्य, अ-भौतिक, दोषहीन, अपरिवर्तनीय और स्थाई होते हैं। हमारे दृष्टिमान जगत् की वस्तुएं उन रूपों की अपूर्ण प्रतियां मात्र हैं। साथ ही, सरमखंड में प्राप्त होने वाले ये रूप परमात्मा के ‘एक रूप’ और हमारे जगत् के अनंत रूपों के बीच की कड़ी हैं। इस विषय के विस्तृत अध्ययन के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 27.

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मन की उत्पत्ति के साथ ही पिंड या शरीर की उत्पत्ति हो जाती है। गुरु नानक देव ने लिखा है कि ‘सरमखंड की विशेषता रूप/आकृति है।’ सरमखंड में मिलने वाले इन रूपों की प्रकृति को समझने के लिए हम प्लेटो द्वारा दिए गये ‘रूपों/प्रत्ययों के सिद्धांत’ (Theory of Forms/Ideas) की सहायता ले सकते हैं। इस सिद्धांत का संबंध पाईथागोरस संप्रदाय से है। इसका विकास सुकरात ने किया या प्लेटो ने, यह प्रश्न विवादास्पद है। संभवतः सुकरात ने इसकी शिक्षा प्लेटो को दी जिसने इसे विस्तृत और लिखित रूप दिया। यूनानी शब्द ‘idea’ का अर्थ ‘चित्र’, ‘आदर्श’, ‘प्रतिमान’, ‘रूप’ है। हमारे इस प्रतीयमान जगत् में असंख्य वस्तुएं हैं, ये वस्तुएं परिवर्तनशील, सदोष, विनाशशील और अस्थाई हैं। यह प्रतीयमान जगत् एक सत्य, यथार्थ जगत् का प्रतिरूप है। वह सत्य जगत् शाश्वत, दोषहीन, और स्थाई प्रकृति का एक आदर्श (Ideal) जगत् है। वे आदर्श (Ideas, प्रतिमान या रूप) परमात्मा के मन में सदैव उपस्थित रहते हैं। वे आदर्श/प्रतिमान/रूप अ-भौतिक, दोषहीन, अपरिवर्तनीय और स्थाई होते हैं।
प्लेटो द्वारा गुफा की एक प्रसिद्ध उदाहरण से हम इस सिद्धांत को समझ सकते हैं। एक गुफा है जिसके अंतिम सिरे पर एक खाली दीवार है। उस गुफा में कुछ बंदियों को इस प्रकार से बांध कर रखा हुआ है कि वे मुड़ कर गुफा के खुले हुए मुख की ओर नहीं देख सकते हैं। उन बंदियों के पीछे की ओर आग जल रही है और उनके सामने बनी दीवार एक सिनेमा की स्क्रीन की तरह कार्य करती है जिस पर वे कैदी अपनी परछाइयों को और साथ ही अपने और आग के बीच की वस्तुओं की परछाइयों को देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे परछाइयाँ ही वास्तविक वस्तुएं हैं और गुफा के बाहर उन परछाइयों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उन बंदियों में से एक बंदी किसी प्रकार अपनी जंजीरें तोड़ कर गुफा से बाहर आ जाता है और सूरज की रोशनी व सुंदर प्रकृति को देखता है। तब वह वापस गुफा में जाकर उन बंदियों को जगत् के यथार्थ रूप का वर्णन करता है और उसकी प्राप्ति की विधि बताता है। किन्तु वे बंदी उसे मूर्ख समझते हैं और उसकी बातों पर विश्वास नहीं करते हैं। प्लेटो के अनुसार दर्शन (philosophy) से अज्ञानी लोग वस्तुओं के आभास से ही संतुष्ट गुफा में कैदी बना कर रखे व्यक्तियों के समान बर्ताव करते हैं जबकि एक दार्शनिक (philosopher) तर्क और सत्य के प्रकाश में सच को देखता है। अज्ञानी लोग इस प्रतीयमान जगत् के सदोष रूपों को देखते हैं जबकि ज्ञानी वास्तविक जगत् के निर्दोष रूपों को देखता है और उसी का देखना वास्तविक देखना है। आदिग्रंथ के आधार पर हम कह सकते हैं कि वास्तविक जगत् सरमखंड है, और हमारे अनुभव में आने वाला धर्मखंड उस वास्तविक जगत् की परछाई मात्र है।
‘रूपों/प्रत्ययों के सिद्धांत’ की ही एक उपशाखा ‘सामान्य प्रत्यय और विशिष्ट प्रत्यय’ (Universals and Particulars) का सिद्धांत है। उदाहरण के लिये हम ‘बिल्ली’ (cat) के प्रत्यय को ले सकते हैं। ‘बिल्ली’ का एक सामान्य (universal) प्रत्यय है जो दोषहीन, पूर्ण, अपरिवर्तनीय और स्थाई है। जितनी भी विशिष्ट या व्यक्तिगत बिल्लियाँ हैं वे उस आदर्श या वास्तविक बिल्ली की धुंधली परछाइयाँ मात्र हैं। वे विशिष्ट या व्यक्तिगत बिल्लियाँ सदोष, अपूर्ण हैं; वे जन्म लेती हैं और मर जाती हैं, इस प्रकार वे शाश्वत नहीं हैं। जो तथ्य बिल्ली के बारे में सच है वह जगत् की प्रत्येक सजीव और निर्जीव वस्तु के बारे में सच है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का सामान्य प्रत्यय (universal idea, रूप) है जो आदर्शस्वरूप या सत्व (essence) है; यह एक दोषहीन, अपरिवर्तनीय, अविभाज्य, ज्ञानातीत सत्व है। हमारे दृष्टिमान जगत् की वस्तुएं उन प्रत्ययों/रूपों की अपूर्ण प्रतियां मात्र हैं। ये प्रतियां बहु हैं किंतु रूप एक है। जैसा कि हमने बिल्ली के बारे में देखा है, बिल्लियों के अनेक प्रकार हैं, उनकी अनेक प्रजातियां व रंग हैं तथा बिल्लियों के स्वामी यह दावा कर सकते हैं कि प्रत्येक बिल्ली का एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। किंतु सभी बिल्लियों में एक तत्त्व सामान्य रूप से उपस्थित है, वह है बिल्लीत्व (catness)। प्लेटो के अनुसार अनेक बिल्लियां आदर्श/रूप बिल्ली के प्रतिरूप मात्र हैं। हम जगत् में विविध प्रकार की बिल्लियों को एक ही संज्ञा से संकेतित करते हैं क्योंकि उनमें वह रूप सामान्य रूप से उपस्थित है।
यदि हम प्लेटो के इस सिद्धांत को गुरू नानक द्वारा प्रयुक्त पद रूपु पर लागू करें - और हमारी समझ के अनुसार ऐसा करने के पर्याप्त कारण हैं, जिन्हें हम अपने अध्ययन के क्रम में आगे स्पष्ट करते जायेंगे - तो हम कहेंगे कि सरमखंड में निर्मित होने वाले ये रूप संसार में प्रत्येक वस्तु का सार या सत्व (essence) हैं। सांसारिक वस्तुओं की आकृतियां अपने सारवान्, बीज रूप में इसी लोक में निर्मित होती हैं किंतु यह लोक और ये आकृतियां साधारण अवस्था में हमारे लिए ज्ञानातीत हैं, इसीलिए पदार्थ की तुलना में वे परमकोटि की (super-ordinate) हैं। वे सभी वस्तुओं का मूल, अमिश्रित व विशुद्ध आकृतियाँ हैं। देश व काल से अतीत होने के कारण इन रूपों का अस्तित्व किसी कालावधि में नहीं होता। इसके विपरीत वे काल के उद्भव, स्थायित्व और समापन का औपचारिक आधार प्रस्तुत करते हैं। ये रूप न तो शाश्वत हैं और न मर्त्यशील। शाश्वत वस्तु वह होती है जिसका कभी विनाश नहीं होता, जबकि मर्त्यशील वह है जो सीमित अवधि तक ही रहे। लेकिन ये रूप इन दोनों शब्दों के दायरे में नहीं आते। ये रूप स्थान-निरपेक्ष (aspatial) हैं अर्थात् इन्हें किसी स्थान से सीमित या संबंधित नहीं किया जा सकता। उनमें त्रिविमीय आयाम जैसे लंबाई, चौड़ाई आदि नहीं हैं, अतएव वे देश में अभिविन्यस्त नहीं हैं, न ही उनका कोई स्थान-निरूपण किया जा सकता है। इस प्रकार ये रूप अ-भौतिक हैं किंतु हमारे इस जगत् की भौतिक परिस्थितियों से अनुकूलित मन की कल्पनामात्र नहीं हैं। ये रूप वास्तविक किंतु पदार्थेतर (extra-matter) हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सरमखंड हमारे भौतिक जगत् का बीज या कारण खंड (causal world) है।
सरमखंड में प्राप्त होने वाले ये रूप परमात्मा के ‘एक रूप’ और हमारे जगत् के अनंत रूपों के बीच की कड़ी हैं। ऋग्वेद का ऋषि कहता है :
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय इन्द्रो मायाभि: पूरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश ॥(6.47.18)
‘वह (ब्रह्मांड के) प्रत्येक रूप का साँचा (model) बना, हम उसके रूप को (केवल जगत् के रूपों में ही) देख सकते हैं। इन्द्र अपनी माया (अनंत रूप धारण करने की शक्ति), जो भ्रम जाल उत्पन्न कर सकती है, से अनेक रूपों को संचालित करता है क्योंकि उसके जुते अश्व हजारों हैं।’ ऋषि बताता है कि हमारे भौतिक जगत् में प्राप्त प्रत्येक रूप का एक आदर्श रूप, एक साँचा है। यह आदर्श रूप शब्द/ईश्वर ही बना है। फिर उस साँचे के अनुरूप संसार के अनगिनत रूप बने। जगत् के प्रत्येक रूप का आधार वह साँचा है जो परमात्मा स्वयं ही बना है। अतः जगत् का प्रत्येक रूप परमात्मा का ही रूप है। परमात्मा के रथ और अश्व उन रूपों के अनुसार, जिनमें वह स्वयं को अभिव्यक्त करता है, द्विगुणित होते हैं। प्रत्येक रूप मानों एक रथ है जिस पर परमात्मा अपनी शक्ति सहित आसीन है। सरमखंड में यदि कोई एक रूप/रथ है तो धर्मखंड में उससे कई गुणा उसी के जैसे रूप/रथ हैं और सभी पर परमात्मा आसीन है। मूल रूप से एक ही रूप/रथ है जो कारण जगत् सरमखंड में अनेक रूपों में बदलता है और फिर उस प्रत्येक रूप से उन्हीं के जैसे धर्मखंड में अनेक रूप निर्मित होते हैं।
अब हमें सरमखंड के उपर्युक्त अध्ययन को सार रूप में जान लेना चाहिए। हमने सरमखंड को मानसिक जगत् कहा है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि सरमखंड में पर्याप्त विविधता है और अगर हम बहुत ज्यादा सूक्ष्मता पर बल न भी दें तो भी इस मंडल में दो मुख्य उपविभाग अथवा उपमंडल हैं। हम देख चुके हैं कि सरमखंड में प्रकृति के क्रमविकास के पहले चरण में ही बुद्धि तत्त्व की उत्पत्ति हो जाती है। यह बुद्धि सिद्ध व बुद्ध पुरुषों, देवों को सुलभ होने वाली बुद्धि है, इसमें ज्ञान का अभाव किञ्चित मात्र भी नहीं है। दूसरी ओर प्रकृति के पर्याप्त क्रमविकास के बाद ही आगे चलकर मन की उत्पत्ति होती है और मन की अवस्था ‘मोह’, ज्ञान के अभाव की, विपरीत ज्ञान की अवस्था है। लेकिन यदि इस प्रत्यक्ष भेद के बावजूद गुरु नानक देव ने इन्हें एक ही मंडल में रखा है तो इसमें अवश्य ही कुछ न्यायोचित होगा। बुद्धि और मन के संबंधों पर हमने ऊपर कुछ विचार किया है। इन दोनों में कारण-कार्य संबंध हैं। बुद्धि मन की कारणावस्था है जबकि मन बुद्धि की कार्यावस्था है। कार्य कारण में और कारण कार्य में उपस्थित रहता है। बुद्धि मन की परमावस्था है, मन बुद्धि की अ-परमावस्था है। हम बुद्धि को ‘अति-मन’ (supermind) कह सकते हैं और निश्चित रूप से श्रीअरविंद द्वारा दिये गये ‘अति-मन’ के प्रत्यय और महान बुद्धि में अत्यंत निकटता है लेकिन इस संज्ञा में भी मन की उपस्थिति बनी रहती है। अतएव सरमखंड को मानसिक प्रकृति का मंडल कहना उचित है।
‘सरमखंड’ में पद ‘सरम’ संस्कृत के ‘श्रमन’ से बना है जिसका अर्थ है - आनंद। दूसरी ओर हमने यह बार-बार लिखा है कि सरमखंड हमारे भौतिक जगत् का कारण अथवा बीज है। यहाँ ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके बीज सरमखंड में न हों। हमारे जगत् में दुख की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता। गुरु नानक देव जी ने कहा है : नानक दुखीआ सभु संसारू ॥(1-954) दुख का बीज अहं और मोह है और इनके बीज सरमखंड में ही हैं। सरमखंड में ही हुए क्रमविकास के परिणामस्वरूप अहं की अवस्था में जीव की चेतना का केंद्र वैश्विक (All-this) न रहकर व्यक्तिगत हो जाता है, और तदुपरांत मोह की अवस्था में उसका वास्तविकता का ज्ञान भी भ्रामक हो जाता है। किन्तु ये सूचनाएं इस मंडल में क्रमविकास के तथ्यों की सूचना-मात्र देती हैं, ये इससे अधिक कुछ नहीं हैं। यहाँ पर संशय, अहं, मोह, कामना आदि सब कुछ है किन्तु यह सब कुछ बीज के रूप में है और इन बीजों का पुष्पन-पल्लवन आगे के मंडलों में होता है। चेतन से जड़ की ओर यात्रा के क्रम में सरमखंड पहला खंड/मंडल/लोक है जबकि जड़ से चेतन की ओर यात्रा के क्रम में यह अंतिम खंड है। यहां परम सत् से एकता व विभाजन -दोनों के तत्त्व समान रूप से उपस्थित हैं। सचखंड में सत्ता का अनुभव शुद्ध 'मैं' (I) के रूप में था, जो करमखंड में 'मैं वहीं हूं' (I am That) के अनुभव में बदला। अर्थात् करमखंड में चेतना का विषयी व विषय में विभाजन अवश्य होता है किंतु यह विभाजन ऐसे है कि अहम् (Self) अपनी ही चेतना को निहार रहा होता है। दूसरी ओर सरमखंड की विशेषता रूपों का निर्माण है। शिव, जो तत्त्व (Essence or Being) है, में रूप (form) को रचने की इच्छा (will) यहां प्रधान होती है। यह वह चरण है जहां आत्म (Self) अनात्म (Not-self) की ओर प्रवृत्त होता है। इसलिये यहां सत्ता का अनुभव 'मैं यह हूं' (I am this) होगा। लेकिन चूंकि ये अनात्म रूप अकाल व अदेशीय हैं, अतः यहां अरूप रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः ‘I am this’ में ‘I’, ‘this’ से, ‘अहम्’ ‘इदम्’ से अधिक महत्त्वपूर्ण है। जीवात्मा रूप के बंधन में तो होती है किन्तु उस रूप को ज्ञान होता है कि वह और ईश्वर सखा और समान हैं, सखाया, समानम् ; जीवात्मा देश (space) और काल (time) के बंधन में होती है किन्तु उसमें अनंत विस्तार में मन की गति से चल सकने की क्षमता होती है और उसका रूप प्रभु की रूपग्रहण करने की शक्ति के सहवर्ती (co-terminus) होता है जिससे उसमें मृत्यु का भय भी नहीं होता है; यहाँ जीव में कामना होती है किन्तु उसे अल्पता या अभाव की अनुभूति नहीं होती है। कारण, वह समस्त लोक मानसिक पदार्थ से निर्मित है, वहाँ ज्यों ही मन में किसी पदार्थ की कामना होती है वह पदार्थ तत्क्षण उसे उपलब्ध हो जाता है। सरमखंड प्रभु की पराशक्ति के अनंत वैभव का लालित्यपूर्ण प्रकाशन है, जीव उस वैभव के अवयवभूत अंश हैं और उन्हें इस अंशांशी संबंध का ज्ञान है। हम जानते हैं कि शक्ति के तीन रूप हैं, जिन्हें हम यहाँ पर ज्ञान, बल और क्रिया कह सकते हैं, इनसे त्रिलोकी के तीन मंडलों की रचना होती है। गुरु नानक ने जिसे सरमखंड - आनंद का खंड - कहा है वह त्रिलोकी का पहला लोक है और इसकी रचना प्रभु की पराशक्ति के ज्ञान वाले पक्ष से होती है। अर्थात प्रभु की पराशक्ति यहाँ अपने एक रूप का अनंत रूपों में संज्ञान लेती (Though One, She cognizes herself as many.) और उस ऐश्वर्य पर हर्षित होती है। इस तरह सरमखंड में आनंद है किन्तु इस लोक का आनंद सचखण्ड अथवा करमखंड में स्थित प्रभु तत्त्व में निहित आनंद से इस अर्थ में भिन्न है कि प्रभु तत्त्व में पूर्ण शांति, स्थिरता व अडोलता है और उसमें निहित आनंद इसी शांति व अक्रियता से उत्पन्न है। दूसरी ओर सरमखंड में गति व प्रयत्न है लेकिन चूंकि यहाँ प्रत्येक प्रयत्न सफल प्रयत्न होता है इसलिए सरमखंड अबाध सिद्धि व समृद्धि का खंड है। सरमखंड का आनंद इसी सिद्धि, समृद्धि व संतुष्टि का परिणाम है। प्रभु तत्त्व में आनंद की विपुलता है; शक्ति तत्त्व में विपुलता का आनंद है।
(शेष आगे)
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Very deep analysis.