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Kartapurush ep22 - कर्तापुरुष ep22

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: May 19, 2023

Back, we mentioned that there are five types of delusion. These delusions cause the origin of the mind and infatuation. There is a deep connection between infatuation and mind. The enchanted creature is called 'obsessed with I-ness', stupid, enchanted, etc. in the Adi Granth. But the basis or reason for this obsession is ego or ignorance. Infatuation gives shape to the ego; Ego provides the basis for infatuation. Infatuation leads to life from ego; Ego gains strength from attachment. These two are two bonds of Maya and are the cause of sansriti. In Srimad Bhagwad Gita (7.15), the organism suffering from these two is called Maya Aphritajnana and Mudhah respectively. To know the relationship between ego, attachment and mind, read Karta Purush 22.


पीछे हमने बताया कि भ्रम के पाँच प्रकार हैं। इनमें से विकार भ्रम से मोह और संग भ्रम से मन की उत्पत्ति होती है। मोह और मन के बीच गूढ़ संबंध हैं। मोहग्रस्त प्राणी को बाणी में ‘आपा भाव से ग्रस्त’, मूढ़, मुग्ध आदि कहा गया है। लेकिन इस ‘आपा भाव’ का आधार या कारण अहं या अज्ञानता है। मोह अहं को आकार प्रदान करता है; अहं मोह को आधार प्रदान करता है। मोह अहं से जीवन पाता है; अहं मोह से शक्ति पाता है। हउमै अहं/अज्ञानता और मम/मोह का सम्मिलित रूप है। ये दोनों माया के दो बंधन हैं और संसृति का कारण हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (7.15) में इन दोनों से ग्रस्त जीव को क्रमशः मायया अपहृतज्ञाना और मूढ़ाः कहा गया है। अहं, मोह और मन के बीच संबंधों को जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 22.

Kartapurush ep22
Kartapurush ep22
 

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हमारे अध्ययन को अग्रसर करने के लिहाज़ से भ्रम के इन पांचों प्रकारों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भ्रम दो हैं। पहला, ‘विकार भ्रम’ जिससे ‘मोह’ की उत्पत्ति होती है और दूसरा, ‘संग भ्रम’ जिसमें आत्मा सत्ता के असीम सागर में एक बिंदू पर केंद्रित होती है और जिससे ‘मन’ की उत्पत्ति आवश्यक हो जाती है। जिस तरह ‘अहं’ और ‘मम’ के बीच गूढ़ संबंध हैं वैसे ही मम/ममता/मोह और मन के बीच गूढ़ संबंध हैं। हम जानते हैं कि नाम सत्य स्वरूप प्रभु सति का अहं/मैं वाला पक्ष है जबकि शब्द उनका मम/मेरा वाला पक्ष है। प्रभु सति के अहं/नाम की गतिशील अवस्था को ही मम/शब्द कहा जाता है। जब प्रभु का अहं/नाम गतिशील होकर मम/शब्द के रूप में परिणत होता है तो जगत् की रचना होती है। प्रभु का अहं/नाम जगत् की कारणावस्था है, हम यह भी कह सकते हैं कि अहं/नाम कारणब्रह्म है; दूसरी ओर मम/शब्द जगत् की कार्यावस्था है, हम यह भी कह सकते हैं कि मम/शब्द कार्यब्रह्म है। शब्द की उत्पत्ति के साथ ही प्रत्येक वस्तु, प्राणी, परिस्थिति, क्रिया, भाव आदि का बीज उत्पन्न हो जाता है, केवल उसका विकास ही देश, काल व कारणता के नियमों के अनुसार होना शेष रह जाता है। ब्रह्मांड की रचना की इसी प्रविधि को पिंड में लागू किया जाता है।


पिंड में अहंग्रस्त बुद्धि जीव के जगत् की कारणावस्था है, इस अहंग्रस्त बुद्धि का कार्य मन है। ब्रह्मर्षि विश्वात्मा बावरा जी लिखते हैं, “अहं के प्रवाह का नाम ही मन है। मन और कोई दूसरी वस्तु नहीं है। अहं का ही कार्य मन है। अहं में जहां मम आया उसी को मन कहते हैं।”(श्रीमद्भगवद्गीता, धर्मविज्ञान भाष्य, 9/19) जिस प्रकार प्रभु द्वारा अपने ‘मम’ पक्ष की रचना से जगत् के मूल की रचना हो जाती है, वैसे ही जीव में उसके ‘मम’ पक्ष के उत्पन्न होते ही जगत् के मूल मोह और मन की रचना हो जाती है। मन के उत्पन्न होते ही जीव की निम्नगामी क्रीड़ा के निमित्त जगत् की उत्पत्ति हो जाती है, अब केवल उसका विकास ही कर्म व कारणता के नियमों के अनुसार होना शेष रह जाता है। अतएव मम/ममता/मोह और मन -इन दोनों का अध्ययन एकसाथ करना ही ठीक रहेगा।


श्रीअरविंद लिखते हैं, "एक बार व्यष्टिगत केंद्र को निर्णायक बिंदू के रूप में, ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर लिया जाये तो मानसिक संवेदन, मानसिक बुद्धि और मन की इच्छा, क्रिया और उसके परिणाम आये बिना नहीं रह सकते।"(दिव्य जीवन, पृ -142) यहां आत्मा की स्थिति सागर में एक बुदबुदे के समान होती है। सागर से वह उत्पन्न है, उसके अंदर सागर है, बाहर भी सागर है। उसके अंदर प्रभु का ऐक्य व अनंतता है, बाहर भी वही है। लेकिन उसे अपने अहंकेंद्रित व्यक्तित्व की रक्षा इन दोनों से ही करनी है क्योंकि इस रक्षा के अभाव में वह अपने अहंकेंद्रित व्यक्तित्व की क्रियाओं को आगे नहीं बढ़ा सकती। इस प्रयोजन से चेतना चारों ओर विस्तृत बृहत्तर सत्ता के सत्य से अपने आपको अलग करती है, एक विभाजन की दीवार बनती है। बाणी में इसे 'हउमै की भीति' कहा गया है। श्रीअरविन्द लिखते हैं, "वह यहां विभाजन की दीवार बनाती है और उस सबको बाहर ही बंद कर देती है जो उसके अहं के चारों ओर केंद्रित न हो, उसे अनात्म के रूप में त्याग देती है। लेकिन चूंकि उसे इस अनात्म के साथ रहना है, क्योंकि यह उसी की चीज है, उसी पर निर्भर है, उसके अंदर निवास करती है, इसलिए उसे संचार का कोई साधन रखना पड़ता है। उसे अपनी अहं की दीवार और शरीर के दायरे में अपने आपको बांध रखने वाली दीवार के बाहर जाना पड़ता है ताकि वह उन आवश्यकताओं को पूरा कर सके जिन्हें अनात्मा उसे दे सकती है। उसे किसी प्रकार से उस सबको जानना होता है जो उसके चारों ओर है, ताकि वह उस पर प्रभुत्व जमा सके और जहां तक संभव हो उसे व्यक्तिगत और सामूहिक मानव जीवन और अहं का दास बना सके।"(वही, पृ -524)


जीवात्मा की इन आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मन है। मन ही उपलब्ध साधनों का उपयोग करके और, यदि वे अपर्याप्त हों तो, नयों का आविष्कार करके इस पराए वातावरण को आत्मा के लिए अनुकूल बनाता है। अतः मन की उत्पत्ति भी सरमखंड में ही होनी चाहिए, और गुरू साहिब इसकी साक्षी देते हैं : तिथै घड़िए सुरति मति मनि बुधि ॥(1-7) 'वहां आत्मा (सुरति), बुद्धि, अहंकार (मति) व मन को घड़ा जाता है।' मन के अध्ययन के लिए छह सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं : मोह (अज्ञानता), कामना, विभाजन, गति, कर्म व तल्लीनता।


महर्षि पाणिनी के अनुसार ‘मुह् वैचित्यै’ धातु से मोह शब्द सिद्ध होता है। इसका अर्थ ‘बुद्धि में विपरीत ज्ञान का होना’ है। मोहग्रस्त अवस्था में बुद्धि विपरीत हो जाती है अर्थात वह विपरीत धारणा को स्वीकार कर लेती है। रस्सी को सांप समझ लेना, शरीर को आत्मा समझ लेना, दुख के कारण को सुख का कारण समझ लेना, अनित्य को नित्य और अपवित्र को पवित्र मान लेना ही मोह है। मोहग्रस्त जीव के जीवन का चित्रण करते हुए गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

छोडि जाहि से करहि पराल ॥ कामि न आवहि से जंजाल ॥

संगि न चालहि तिन सिउ हीत ॥ जो बैराई सेई मीत ॥1॥

ऐसे भरमि भुले संसारा ॥ जनमु पदारथु खोइ गवारा ॥ रहाउ॥

साचु धरमु नही भावै डीठा ॥ झूठ धोह सिउ रचिओ मीठा ॥

दाति पिआरी विसरिआ दातारा ॥ जाणै नाही मरणु विचारा ॥2॥

वसतु पराई कउ उठि रोवै ॥ करम धरम सगला ई खोवै ॥

हुकमु न बूझै आवण जाणे ॥ पाप करै ता पछोताणे ॥3॥

जो तुधु भावै सो परवाणु ॥ तेरे भाणे नो कुरबाणु ॥

नानकु गरीबु बंदा जनु तेरा ॥ राखि लेइ साहिबु प्रभु मेरा ॥4॥(5-676)


‘हे भाई! मूर्ख जगत् भ्रम में भूला हुआ है और अपना कीमती जन्म व्यर्थ गंवा रहा है। हे भाई! मायाग्रस्त जीव वही निकम्मे काम करते रहते हैं, जिनको आखिर छोड़ के यहाँ से चले जाना है। उन्हीं जंजालों में उलझे रहते हैं, जो इनके किसी काम नहीं आते। वे उनसे प्यार बनाए रहते हैं, जो (अंत समय) साथ नहीं जाते। उन (विकारों) को मित्र समझते रहते हैं जो (वस्तुतः आत्मिक जीवन के) शत्रु हैं। हे भाई! (मायाग्रस्त मूर्ख मनुष्य को) सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करने वाला धर्म आँखों से देखना भी नहीं भाता। झूठ को, ठगी को मीठा जान के इनमें मस्त रहता है। दाता प्रभु को भुलाए रखता है, उसकी दी हुई दात इसको प्यारी लगती है। (मोह में) बेबस हुआ जीव अपनी मौत को याद नहीं करता। हे भाई! (भ्रम में पड़ा हुआ जीव) उस चीज के लिए दौड़-दौड़ के तरले लेता है जो आखिर बेगानी हो जानी है। अपना इन्सानी फर्ज सारा ही भुला देता है। मनुष्य परमात्मा की रजा को नहीं समझता (जिसके कारण इसके वास्ते) जनम-मरण के चक्कर (बने रहते हैं) नित्य पाप करता रहता है, आखिर में पछताता है। (पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश?) जो तुझे अच्छा लगता है, वही हम जीवों को स्वीकार होता है। हे प्रभु! मैं तेरी मर्जी पर बलिहार हूँ। गरीब नानक तेरा दास है, तेरा गुलाम है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु (अपने दास की इज्जत खुद) रख लेता है।’


‘मोह’ के चित्रण की ऐसी ही एक और उदाहरण राग टोडी में दर्ज बाणी में मिलती है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

हां हां लपटिओ रे मूड़्हे कछू न थोरी ॥ तेरो नही सु जानी मोरी ॥ रहाउ॥

आपन रामु न चीनो खिनूआ ॥ जो पराई सु अपनी मनूआ ॥1॥

नामु संगी सो मनि न बसाइओ ॥ छोडि जाहि वाहू चितु लाइओ ॥2॥

सो संचिओ जितु भूख तिसाइओ ॥ अम्रित नामु तोसा नही पाइओ ॥3॥

काम क्रोधि मोह कूपि परिआ ॥ गुर प्रसादि नानक को तरिआ ॥4॥(5-715)


‘मूढ़’ पद का शाब्दिक अर्थ तो ‘मूर्ख’ है किन्तु इसका पारिभाषिक अर्थ ‘मोहग्रस्त’ है। मन को मूढ़ कहते हुए फ़रमाते हैं कि तू माया के साथ चिपका हुआ है और तेरी उसके साथ प्रीति भी कुछ थोड़ी सी नहीं है। इस मूर्ख मन ने उस माया को अपना समझ लिया है जो वस्तुतः उसकी नहीं है। परमात्मा ही हमारा असल साथी है लेकिन उसके साथ इस मन ने एक क्षण के लिये भी जान-पहचान नहीं बनाई। माया बेगानी है किन्तु उसको इस मन ने अपना समझ रखा है। यह मन उन पदार्थों के प्रति आसक्ति रखता है जो अंततः छूट जाएंगे। यह उन पदार्थों के संग्रह में तल्लीन है जिनसे इसकी तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती।’

तीसरे गुरू अमरदास जी लिखते हैं :

मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ ॥ ममता लाइ भरमि भुलाइआ ॥(3-1128)


'करतार ने जगत्‌ का मूल मोह को बनाया, जीवों में ममत्व डाल कर उन्हें भ्रम में भुला दिया।' यहाँ गुरु जी संसृति का मूल मोह बता रहे हैं। एक तरफ तो बाणी में हउमै को ‘वडा रोग’ अर्थात मूल रोग कहा गया है जिससे संसृति होती है, दूसरी ओर यहाँ संसृति का मूल ‘मोह’ को बताया जा रहा है। इससे हउमै व मोह के स्वरूप के संबंध में भ्रांति होना स्वाभाविक है। इस भ्रांति का निवारण इस तथ्य से होता है कि हउमै केवल अहं अथवा अहंकार नहीं है। अहं+मम से हउमै बना है अर्थात हउमै अविद्या और ममत्व का मेल है। हउमै पद में मोह सम्मिलित है, अतः संसृति का मूल हउमै या फिर मोह को कह देने में अंतर्विरोध नहीं है।


इसके प्रमाणस्वरूप राग ‘सिरीरागु’ में सम्मिलित गुरु नानक देव जी के एक शब्द को देखा जा सकता है। यह शब्द किसी संन्यासी के प्रति संबोधित हुआ प्रतीत होता है। संन्यासी जीवन त्याग का जीवन होता है और सनातन धर्म की आश्रम व्यवस्था में संन्यास अंतिम आश्रम है। ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति अध्ययन करता है; गृहस्थ आश्रम में धनोपार्जन करता व परिवार में रहता है; वानप्रस्थ आश्रम में वह लौकिक कर्तव्यों से निवृत होकर वन में निवास करता है; अंतिम आश्रम संन्यास है। ‘संन्यास तपश्चर्य का एक रूप है जिसमें व्यक्ति लौकिक कामनाओं और पूर्वाग्रहों का त्याग कर देता है। यह लौकिक जीवन के प्रति उदासीनता और अनासक्ति की अवस्था है।‘(विकीपीडिया) संन्यासी किसी भी एक स्थान पर निवास न करके निरंतर भ्रमण की वृति को अपनाता है ताकि उसके मन में किसी भी स्थान या व्यक्ति के प्रति मोह उत्पन्न न हो पाये। इससे जनजीवन में यह कहावत बन गई कि ‘पानी बहते भले और संन्यासी चलते भले’। लेकिन गुरु जी लिखते हैं :

भरमे भाहि न विझवै जे भवै दिसंतरु देसु ॥

अंतरि मैलु न उतरै ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वेसु ॥

होरु कितै भगति न होवई बिनु सतिगुर के उपदेस ॥1॥


‘यदि कोई मनुष्य देश-देशान्तर में निरंतर भ्रमण करता रहे तो भी भ्रमण करने से उसकी (मोह) अग्नि नहीं बुझती और न ही अंतःकरण से (मोह से उत्पन्न विकारों की) मैल उतरती है। ऐसे में संन्यासी की जीवनचर्या व उसके द्वारा पहने गये श्वेत, पीले, गेरुए आदि वस्त्र व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं। वस्तुतः उस जीवनचर्या व उन वस्त्रों पर धिक्कार ही है। (मोह से छुटकारा तो प्रभु के प्रेम व उसकी भक्ति से होता है और) सद्गुरु के उपदेश के बिना किसी और साधन से प्रभु की भक्ति होती नहीं है (जिससे मोह भी समाप्त नहीं होता है।)‘

मन रे गुरमुखि अगनि नीवारि ॥

गुर का कहिया मनि वसै हउमै त्रिसना मारि ॥रहाउ॥


‘हे मेरे मन ! गुरमुखों की शरण में आकर (मोह) अग्नि का निवारण कर लो। यदि तू गुरु के उपदेश को चित्त में बसा ले तो तू हउमै व तृष्णा दोनों को मार लेगा।‘


संन्यासी द्वारा घुमंतू जीवनशैली को अपनाने का उद्देश्य मोह और उससे उत्पन्न तृष्णा आदि के रोग को समाप्त करना होता है न कि हउमै अर्थात अहं, अज्ञानता के रोग को समाप्त करना होता है। यह संन्यासी भी जानता है कि अज्ञानता देशाटन से नहीं जाती, वस्तुतः देशाटन का उद्देश्य मोह को समाप्त करना होता है जिससे किसी भी वस्तु, व्यक्ति या स्थान के प्रति राग के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव को भी निर्मूल करके बंधन की संभावना को शून्य किया जा सके। फिर गुरु जी यहाँ पर हउमै के विषय को लेकर क्यों आये हैं? मोह और तृष्णा के बीच निश्चित रूप से कारण-कार्य संबंध हैं। क्या कुछ ऐसे ही संबंध हउमै और मोह के बीच भी हैं? इसका उत्तर ‘हाँ’ में है। यदि हम हउमै को अहं+मम/मोह के रूप में लेते हैं तब तो हउमै और मोह के बीच निश्चित रूप से संबंध हैं। लेकिन बाणी में कहीं-कहीं ‘हउमै ममता’ पदों का सामासिक प्रयोग भी प्राप्त होता है जिससे पता चलता है कि बाणीकार महात्माओं ने ‘हउमै’ पद का प्रयोग ऐसे स्थानों पर ‘अहं’ के लिये ही किया है। ऐसे में यदि हम हउमै को केवल अहं के रूप में ग्रहण करें तो भी अहं का मम/मोह से संबंध सुपस्पष्ट है। अहं अज्ञानता है, मम/मोह मूढ़ता है और ये दोनों लक्षण मनमुख जीवों में पाये जाते हैं, ऐसे जीव काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार जैसे विकारों से ग्रस्त रहते हैं और कल्याणस्वरूप सत्ता को भुला देते हैं :

लोभ विकार जिना मनु लागा हरि विसरिआ पुरखु चंगेरा ॥

ओइ मनमुख मूड़ अगिआनी कहीअहि तिन मसतकि भागु मंदेरा ॥(4-711)


हउमै (अहं) निज-स्वरूप संबंधी अज्ञानता अथवा विस्मृति है। ज्ञान की स्थिति में आत्मा को यह स्मरण होता है कि वह और प्रभु-सत्ता एक ही हैं। यह ‘मैं वही हूँ’ (अहं सः) अथवा ‘वह मैं हूँ’ (सः अहं) की दशा है। हम इसे ‘I am That’ कहेंगे। लेकिन ‘I am …….’ ज्ञानभाव की, असमंजस या संशय की अवस्था है जिसका विकसित रूप हउमै (अहं) ‘I am this’ है। हम पहले ही बता चुके हैं कि अहंता और ममता में गूढ़ संबंध हैं। अहंता से ममता का उत्पन्न होना उतना ही स्वाभाविक है जितना उपजाऊ भूमि में पड़े बीज का अंकुर बनना स्वाभाविक है। अहं को मम से अलगाने के लिये हम इतना कह सकते हैं कि अहं सार्वभौम आत्मिक तत्त्व के लिये व्यष्टिगत पिंड का बीज तैयार करता है जबकि मम/मोह उस पिंड का मूर्त रूप है जिसके प्रति अज्ञानी जीव में गहन अनुराग हो जाता है। जब हमने कहा कि हउमै ‘अहं+मम’ (जिसे हम ‘अहंता+ममता’ अथवा अज्ञानता+मोह भी कह सकते हैं) है तो उसमें यह स्वीकारोक्ति है कि ‘मैं क्या हूँ’ (I am …..) की संशयग्रस्त अवस्था से लेकर ‘मैं यह हूँ’ (I am This) की निश्चयात्मक किन्तु विस्मृतिपूर्ण अवस्था और फिर उसके भी विकसित रूप ‘मैं और यह’ (I and This) की विक्षिप्त अवस्था तक के समस्त विकास को ‘हउमै’ पद में सम्मिलित कर दिया गया है। संशयग्रस्त आत्मा को यह स्मृति नहीं रहती कि ‘मैं कौन हूँ?’ ‘I am …….’। इस खालीपन को अहं अथवा अहंकार (I-maker) भरता है और जीव कहता है कि ‘I am writer (or shopkeeper, athlete, Hindu, etc.)। तीसरा मोह है जिसके कारण जीव ‘मेरी पहचान’ और ‘मैं’ दोनों को गड्डमड्ड कर देता है। मोहग्रस्त प्राणी को बाणी में ‘आपा भाव से ग्रस्त’, मूढ़, मुग्ध आदि कहा गया है। लेकिन इस ‘आपा भाव’ का आधार या कारण अहं या अहंता/अज्ञानता है। अहं/अहंता/अज्ञानता से जीवत्व होता है, मम/ममता/मोह से देह का बंधन होता है जिससे कामना, लोभ व अनेक प्रकार के रोग पैदा होते हैं :

मोह रोग सोग तनु बाधिउ बहु जोनी भरमाईए ॥(5-532)


मोह अहं को आकार प्रदान करता है; अहं मोह को आधार प्रदान करता है। मोह अहं से जीवन पाता है; अहं मोह से शक्ति पाता है। हउमै अहं/अज्ञानता और मम/मोह का सम्मिलित रूप है। ये दोनों माया के दो बंधन हैं और संसृति का कारण हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (7.15) में इन दोनों से ग्रस्त जीव को क्रमशः मायया अपहृतज्ञाना और मूढ़ाः कहा गया है। अहंग्रस्त प्राणी की ‘सुधि’ अर्थात स्मृति समाप्त होती है। यह उसके ज्ञान के अपहरण की दशा है, मायया अपहृतज्ञाना । मोहग्रस्त प्राणी की ‘मति’ मारी जाती है अर्थात उसकी बुद्धि में विपर्यय भाव आ जाता है, ऐसे जीव को मूढ़ा: कहा गया है :

लोभि लहरि सुधि मति गई सचि न लगे पिआरो ॥(3-1250)

मनमुख मूलहि भुलाइअनु विचि लबु लोभु अहंकारु ॥

X x x x x

सुधि मति करतै हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥(3-548)


राग बिहागड़ा में सम्मिलित एक शब्द में गुरु जी लिखते हैं :

दूतन संगरीआ ॥ भुइअंगनि बसरीआ ॥ अनिक ऊपरीआ ॥1॥

मिथन मोहरीआ ॥ अनि कउ मेरीआ ॥ विचि घुमन घिरिआ ॥2॥

सगल बटरीआ ॥ बिरख इक तरीआ ॥ बहु बंधहि परीआ ॥3॥(5-537)


‘(काम आदि) शत्रुओं का (जो) साथी है (वह समझो कि) सांपों के साथ निवास करने वाला है। (इनसे) अनेकों का विनाश हुआ है। (जो) मिथ्यात्व के मोह (-पाश में बंधा हुआ) पराई वस्तु को मेरी-मेरी कहने वाला है (वह समझो कि) चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। समस्त जीव मुसाफिर हैं, (वे संसार-) वृक्ष के नीचे एकत्र हुए (पक्षियों के समान हैं), पर (माया के) अनेक बंधनों में पड़ जाते हैं।‘ भाई वीर सिंह लिखते हैं कि इस शब्द में जीव के बंधन के तीन रूप बताए गये हैं। पहला, कामादि विकारों में मग्न, दूतन संगरीआ ; दूसरा, रिश्तेदारों-मित्रों का मोह, मिथन मोहरीआ ; तीसरा, मुसाफिर होते हुए भी स्वयं को मालिक समझ बैठना, सगल बटरीआ ॥ बिरख इक तरीआ ॥ बहु बंधहि परीआ ॥ किन्तु हमारे मतानुसार इसमें बंधन के दो ही रूप बताए गये हैं। जीव एक यात्री है किन्तु वह अपने स्वरूप को भूल जाता है, यह उसके ज्ञान के अपहरण अथवा अज्ञानता या अहंता की स्थिति है और यह बंधन का पहला या मूल रूप है। फिर, माया उसके स्वरूप से अन्य अर्थात पराई है और वह इस पराई वस्तु को मेरी कहता है, यह ममता/मोह का बंधन है। इन दोनों बंधनों के सम्मिलित परिणाम हैं – जन्म-मरण का चक्रव्यूह, अनेक प्रकार के बंधन, कामादि शत्रुओं के मध्य निवास इत्यादि। अहं के कारण जीव को अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप की सुध नहीं रहती। निज-स्वरूप का यह विस्मरण ही उसके जीवत्व का कारण बनता है। यह विस्मृति अल्पबुद्धि के कारण है अतः अहं बुद्धि का रोग है। ममता/मोह के कारण बुद्धि मानों उलटी हो जाती है। बुद्धि की यह विक्षिप्तावस्था ही मन को उत्पन्न करती है, अतः मोह मन का रोग है। इनसे आगे तृष्णा, लोभ आदि प्राणिक रोग होते हैं जिनसे अनेक प्रकार के शारीरिक रोग होते हैं। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

साधसंगि चिंत बिरानी छाडी ॥

अह्मबुधि मोह मन बासन दे करि गडहा गाडी ॥ (5-671)


यहाँ आपने स्पष्ट रूप से अहं का वर्णन बुद्धि के साथ और मोह का वर्णन मन के साथ किया है। इससे पता चलता है कि अहं बुद्धि का रोग है। अहं के कारण ही बुद्धि महान के स्थान पर लघु हो जाती है। मोह मन का रोग है। मोहग्रस्त मन को गंवार, अचेत, मूढ़ आदि कहा गया है। इसके पश्चात वासना आदि प्राण के रोग हैं।


लेकिन यह वर्गीकरण केवल स्पष्टीकरण के नाते से ही लेना चाहिये। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तृष्णा आदि केवल प्राण में ही होती है और मन या बुद्धि में नहीं होती अथवा मोह केवल मन में होता है और बुद्धि में नहीं होता है। मनुष्य एक इकाई है जिसमें बुद्धि, मन, इंद्रियाँ आदि भिन्न-भिन्न अवयव हैं। ये एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। मन और इंद्रियाँ बुद्धि की ही अभिव्यक्तियाँ हैं, जो रोग बुद्धि का है वह मन को भी जकड़ लेता है। दूसरी ओर बुद्धिगत रजोगुण से वासना उत्पन्न होती है जो बुद्धि से अभिव्यक्त हुए अहं व मन में कामना का रूप धारण कर लेती है। इंद्रियों के द्वारा विषयों का संसर्ग पाकर वह तृष्णा या लोभ के रूप में प्रकट होती है। गुरु नानक देव जी एक स्थान पर मन को संबोधित करते हुए लिखते हैं : सुणि मन भूले बावरे गुर की चरणी लागि ॥(1-57) यहाँ मन को ‘भूला हुआ’ कहने का अभिप्राय है कि यह अहंग्रस्त है, और ‘बावरा’ कहने का अभिप्राय है कि इसकी मति मारी गई है, इसकी बुद्धि विपरीत हो गई है और यह मोहग्रस्त है। मन के पीछे लगने वाले मनुष्य का वर्णन करते हुए गुरु अमरदास लिखते हैं : मनमुख भूले अंध गावार ॥ (3-665) मनमुख जीव को ‘भूला’ कहने का अर्थ है कि वह अहंग्रस्त है; ‘अंधा’ कहने का अर्थ है कि वह मोहग्रस्त है; ‘गंवार’ कहने का अर्थ है कि वह माया के पदार्थों का तृष्णालु है।


इस प्रकार अहं/अज्ञानता+मम/ममता/मोह ही हउमै है अतः हउमै को ‘वडा’ अर्थात मूल रोग कहने और फिर मोह को संसृति का मूल कहने में परस्पर विरोध नहीं है। हउमै में अहं और मोह दोनों सम्मिलित हैं। हउमै में उपस्थित अहं मोह का कारण है जबकि मोह अहं का कार्य है। कार्य कारण में अनाभिव्यक्त अवस्था में और कारण कार्य में अभिव्यक्त अवस्था में उपस्थित रहता है। ऐसे में ब्रह्मर्षि विश्वात्मा बावरा जी का यह कथन युक्तिसंगत है कि, “मोह के दो रूप हैं – एक कार्य रूप में और दूसरा कारण रूप में। कारण रूप में जो मोह है उसका नाम है अविद्या और कार्य रूप में जो अविद्या है उसका नाम होता है मोह।“(श्रीमद्भगवद्गीता, धर्मविज्ञानभाष्य, अध्याय 11, पृष्ठ-22) यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिँ बहु सूला ॥‘ कहकर मोह को माया का ‘बड़ा पुत्र’ कहा है।


बावरा जी द्वारा मोह के कारण-रूप को अविद्या (अज्ञानता) कहना बड़ा महत्वपूर्ण है। इस सुझाव के अनुसार अविद्या और मोह दोनों में कारण-कार्य संबंध हैं और ये दोनों बंधन के दो रूप हैं। बाणी में ‘अविद्या’ पद का प्रयोग माया के अर्थ में हुआ है और बावरा जी ने जो संबंध अविद्या और मोह के बीच बताया है, आदिग्रंथ में ठीक वही संबंध माया और मोह में बताए गये प्रतीत होते हैं। इसके समर्थन में निम्नलिखित उद्धरणों को देखा जा सकता है :

माइआ मोहु भवजल है अवधू सबदि तरै कुल तारी ॥(1-908)


माया और मोह दोनों संसृति-रूप हैं, शब्द का अभ्यास दोनों से उद्धार का साधन है।

माइआ मोहु गुबारु है गुर बिन गिआनु न होई ॥(3-559)


माया और मोह दोनों अंधकार-रूप हैं, ज्ञान अर्थात नाम का प्रकाश गुरु से होता है।

माइआ मोहि मनु रंगिआ मोहि सुधि न काई राम ॥(3-571)


छूटसि नाही ऊभ पइआलि ॥ मोहि बिआपहि माइआ जालि ॥(5-266)

मायाजाल में पड़े जीव को मोह व्यापता है।


हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई ॥


माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई॥(सवैये महले चौथे के कवि बल्य -1406)

‘माया’ और ‘मोह’ दोनों भ्रम रूप हैं। ‘माया’ के भ्रम में पड़ कर जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है, माया……भरम पै भूले ; ‘मोह’ के भ्रम में पड़ कर जीव की प्रीति घर-परिवार से लग जाती है, मोह भरम पै…….सुत दारा सिउ प्रीति लगाई


चौथे गुरु रामदास जी लिखते हैं :

मनमुखि हउमै विछुड़े मेरी जिंदुड़ीए बिखु बाधे हउमै जाले राम ॥

जिउ पंखी कपोति आपु बन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए

तिउ मनमुख सभि वसि काले राम ॥

जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से मनमुख मूड़ बिताले राम ॥

जन त्राहि त्राहि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए

गुर नानक हरि रखवाले राम ॥(4-538)


‘मनमुख जीव हउमै के कारण परमात्मा से बिछुड़े रहते हैं। हउमै के जाल में फंसे ये जीव विषय-विकारों रूप विष से त्रस्त रहते हैं। इसका अर्थ हुआ कि जीव हउमै (अहं + मम; अहंता + ममता; मैं + मेरी) के कारण परमात्मा से बिछुड़ता है और विष-रूप विषय-विकारों की कामना के कारण इसमें बंधा रहता है। पर इसके लिये परमात्मा जिम्मेदार नहीं है जैसे आकाश का पक्षी (कपोत = क + पोत; आकाश का जहाज या पंछी) धरती पर बिछे जाल में जा कर फँसता है वैसे ही जीव खुद ही हउमै कारण कामना रूपी जाल में फंस जाता है। तीसरी पंक्ति में अहं और मम को आप माया और मोह के रूप में वर्णित करते हैं। जो जीव गुरु की शरण आते हैं, और प्रार्थना करते हैं : हे सद्गुरु! हमें बचा ले, बचा ले। परमात्मा उनके रक्षक बनते हैं।’


माया ‘मैं’/अहं/अज्ञानता है, अहं के कारण माया का फंदा आत्मा के गले में पड़ता है और वह जीवत्व को ग्रहण करती है; मोह ‘मेरा’/मम/ममत्व है और मोह के कारण इस जीव के पैरों में बेड़ियाँ पड़ती हैं और यह नाना प्रकार की योनिओं में घुमाया जाता है : तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥ तू घर घर रमइऐ फेरी ॥(कबीर जी -655) बाणी में इसके प्रमाण मिल जाते हैं :

माइआ मोहु बहु चितवदे बहु आसा लोभु विकार ॥

मनमुखि असथिरु ना थिए मरि बिनसि जाइ खिन वार ॥

वडभागु होवै सतिगुरु मिलै हउमै तजै विकारु ॥(3-1413)


मनमुख की अवस्था का बयान करते हुए लिखते हैं कि वह माया और मोह के कारण अनेक प्रकार की आशाओं, लोभ आदि विकृतियों का अहेर बना जन्म-मरण में पड़ा रहता है किन्तु यदि वह सद्गुरु से मिले तो समस्त विकारों सहित हउमै को त्याग देता है। इससे माया और मोह तथा हउमै की समता सिद्ध होती है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

गरबि गहिलड़ो मूड़ड़ो हीओ रे ॥

हीओ महराज री माइओ ॥ डीहर निआई मोहि फाकिओ रे ॥(5-715)


‘यह मूर्ख जीव अहंकार के कारण बावला हुआ फिरता है, इसे प्रभु की माया ने मोह में ऐसे फंसा रखा है जैसे मछली को कुंडी में फंसा लिया जाता है।’ माया अहं है, यहाँ व्यष्टि भाव (individuation) की स्वीकृति है; मोह उस व्यष्टि भाव के प्रति ममत्व है : मोह कुटंबु मोहु सभ कार ॥(1-356)


इस तरह बंधन के दो कारण या रूप सिद्ध हुए – माया/अहं और मोह/मम। माया/अहं मोह/मम का कारण है; मोह/मम माया/अहं का कार्य है। अहं ‘मैं’-पन है; ममता ‘मेरा’-पन है। “यह स्वयं (Self) जिन-जिन चीजों में अपने को रखता चला जाता है उन-उन चीजों में ‘मैं’-पन होता ही चला जाता है; जैसे - अपने को धन में रख दिया तो ‘मैं धनी हूँ’; अपने को राज्य में रख दिया तो ‘मैं राजा हूँ’;........अपने को शरीर में रख दिया तो ‘मैं शरीर हूँ’; आदि-आदि।” …….“यह स्वयं जिन-जिन चीजों को अपने में रखता चला जाता है उन-उन चीजों में ‘मेरा’-पन होता ही जाता है; जैसे धन को अपने में रख दिया तो ‘धन मेरा है’; राज्य को अपने में रख दिया तो ‘राज्य मेरा है’;......शरीर को अपने में रख दिया तो ‘शरीर मेरा है’ आदि-आदि।”(साधक संजीवनी, पृ -93) यही हउमै/अहं-मम/हउमै-ममता/माया-ममता/मैं-मेरी है। जीव का हउमैग्रस्त होने का आशय होता है कि जीव का निवास मिथ्यात्व में होता है और मिथ्यात्व का निवास जीव में होता है। ऐसे में संन्यासी द्वारा मोह को समाप्त करने के लिये अपनायी गई घुमंतू जीवनशैली अपर्याप्त व व्यर्थ सिद्ध होती है। वस्तुतः संन्यासी द्वारा किया गया प्रयास संसृति-रूप वृक्ष की ऊपरी कांट-छाँट से अधिक नहीं है। इससे बंधन का बीज जस-का-तस कायम रहता है और परिश्रम व्यर्थ ही चला जाता है। इसके विपरीत यदि जिज्ञासु सद्गुरु के उपदेश को मन में बसा ले तो बंधन के दोनों रूप, अहं और मम, और उनसे उत्पन्न तृष्णा भी समाप्त हो जाती है।


(शेष आगे)

 

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