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Kartapurush ep17 - कर्तापुरुष ep17

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: May 12, 2023

We have learned that Maya is root substance which is always converted from energy to matter and from matter to energy. Whenever Maya is expressed in matter, it will accept the 'name-form', but at what moment it will be expressed in which 'name-form' will be determined by 'karma', which is another aspect of Maya's machine-science. Again, when energy accepts the name-form, that name-form will be ephemeral. There will come a time when that name-form will again change into energy. Therefore, 'root substance', 'energy', 'matter', 'name-form', 'karma', 'kaal' - all these terms represent Maya. Where there will be Maya, there will be everything. For more information on this topic, read Karta Purush 17.


हमने यह जाना है कि माया जड़ द्रव्य है जो ऊर्जा से पदार्थ और पदार्थ से ऊर्जा में सदैव परिवर्तित होता रहता है। माया जब भी पदार्थ में व्यक्त होगी यह ‘नाम-रूप’ को ग्रहण करेगी किन्तु यह किस क्षण में किस ‘नाम-रूप’ में व्यक्त होगी इसका निर्धारण ‘कर्म’ से होगा जो माया के यंत्र-विज्ञान का ही एक पक्ष है। पुनः जब ऊर्जा नाम-रूप को ग्रहण करेगी तो वह नाम-रूप कुछ काल के लिये ही होगा, एक समय ऐसा आएगा जब वह नाम-रूप पुनः ऊर्जा में बदल जायेगा। अतएव ‘जड़ द्रव्य’, ‘ऊर्जा’, ‘पदार्थ’, ‘नाम-रूप’, ‘कर्म’, 'काल' -ये सभी पद माया का ही निरूपण करते हैं। जहां माया होगी, वहाँ यह सब कुछ होगा। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 17.

Kartapurush ep17
Kartapurush ep17
 

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हमने देखा कि मूलभूत पदार्थ माया/प्रकृति के तीनों गुण सत्व, रजस्‌ व तमस्‌ जब भिन्न-भिन्न और पूर्ण संतुलन की स्थिति में होते हैं तो उसे सांख्य दर्शन में प्रकृति कहा गया है जबकि आदिग्रंथ में प्रतीकात्मक रूप से इसको 'पवन' कहा गया है। विकास के अगले चरण में रजोगुण में आई सक्रियता प्रकृति के तईगनों गुणों को मिश्रित कर देती है। इस मिश्रण से प्रकृति के स्वरूप में रूपांतरण होता है, प्रकृति के इस रूपांतरित रूप को महत्‌ कहा गया है। आदिग्रंथ में महत् के लिये 'जल' शब्द का प्रयोग करके इस रूपांतरण को पवने ते जल होये उक्ति द्वारा बयान किया गया है। प्रकृति के तीनों गुणों के मिश्रित होते ही सर्ग या सृष्टि प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ पर हम यह बताना चाहेंगे कि महत् अथवा महान बुद्धि के लिये ‘जल’ के प्रतीक का प्रयोग सनातनी मनीषा वेदों के काल से ही करती चली आ रही है। उदाहरण के लिये हम ऋग्वेद के 10.190 सूक्त को देख सकते हैं। यह ऋग्वेद का अनंतिम सूक्त है, इसके दृष्टा ऋषि का नाम अघमर्शण है जो मधुच्छन्दस का शिष्य था। मधुच्छन्दस विश्वामित्र का शिष्य था। विश्वामित्र के मंत्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलते हैं, उसके शिष्य मधुच्छन्दस के मंत्र ऋग्वेद के पहले मंडल में है, ऋग्वेद का पहला सूक्त इसी ऋषि का है, जबकि यह विचाराधीन सूक्त मधुच्छन्दस के शिष्य अघमर्शण का है। इससे पता चलता है कि इस महान ग्रंथ की रचना कई पीढ़ियों तक चलने वाली प्रतिष्ठित गुरु-शिष्य परंपरा से हुई है। ऋषि लिखता है :

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोsध्यंजायत ।

ततो रात्र्यंजायत ततः समुद्रो अर्णव: ॥1॥

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अंजायत ।

अहोरात्राणि विदधत् विश्वस्य मिषतो वशी ॥2॥

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ॥

दिवं च पृथिवीं चाsन्तरिक्षमधो स्वः ॥3॥(10.190)


‘प्रचंड तपस् से ‘सत्य’ और ‘ऋत’ उत्पन्न हुए। तत्पश्चात ‘रात्रि’ उत्पन्न हुई। तत्पश्चात ‘गतिशील सागर’ की उत्पत्ति हुई।’(10.190.1) ऋषि ने यहाँ जिसे ‘सत्य’ और ‘ऋत’ कहा है, उन्हीं को आदिग्रंथ की बाणी में क्रमशः नाम और शब्द कहा गया है। ‘सत्य’ (नाम) निरपेक्ष सत्य को कहा गया है; ‘ऋत’ उस सत्य का देश और काल में प्रक्षेपण है। डा0 आर.एल. कश्यप ऋग्वेद की अपनी टीका में ऋतम्‌ को सकर्मक सत्‌ (Truth-in-Action), गतिशील सत्‌ (Truth-in-Movement) व अभिव्यक्तिगत सत्‌ (Truth-in-Manifestation) कहते हैं। उनके अनुसार यह स्वरूपगत सत्‌ (Truth-in-Being) 'सत्य' का संभूति के धरातल पर, काल व देश के धरातल पर आविर्भाव है। ‘सत्य’ और ‘ऋतं’ -दोनों की उत्पत्ति ‘प्रचंड तपस्’ से बताई गई है। वैदिक प्रणाली में परमात्मा द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति में ‘तप’ को एक उपादान के रूप में प्रयुक्त करने की सूचना कई स्थानों पर दी गई है। मुंडक उपनिषद (1.1.8) में आया पद्यांश ‘तपसा चीयते ब्रह्म’ में ‘तपसा’ का अनुवाद ‘तप के द्वारा’ (by austerity) किया जाता है। इसी तरह बृहदारण्यक (1.2.6), तैत्तिरीय उपनिषद (2.6.1) और प्रश्न उपनिषद (1.4) में आये वाक्य ‘स: तप: अतप्यत’ में भी ‘तप’ का यही अर्थ किया गया है। किन्तु यह व्याख्या गलत है। ‘तपः’ (तपस्) शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘ताप’ (heat) होता है। ‘स: तप: अतप्यत’ का अनुवाद ‘उसने प्रचंड तेज को उत्पन्न किया’ (He put forth His Magnificence) होगा। लक्षणा से इसका अर्थ ‘गहन विचारमग्नता’ (intense brooding) होगा। पीछे हमने लिखा है कि सृष्टि के पारमार्थिक और व्यावहारिक -दोनों रूपों का सृष्टा सत्य स्वरूप प्रभु सति ही है। सृष्टि के पारमार्थिक रूप की रचना में नाम प्रभु सति का संकल्प अथवा विचार है और शब्द उस विचार का परिणाम है; इसी प्रकार सृष्टि के व्यावहारिक रूप की रचना में शब्द प्रभु सति का विचार है और त्रिगुणात्मिका माया उसका परिणाम है। ‘सृष्टा प्रभु सति के प्रचंड तप से सत्य और ऋत उत्पन्न हुए’ ऐसा कहने का अर्थ है कि प्रभु सति ने सृष्टि को उत्पन्न करने का संकल्प किया जिससे प्रभु का निरपेक्ष स्वरूप ‘सत्य’ दृष्टा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और उनका गतिशील रूप ‘ऋत’ जगत् दृश्य के रूप में प्रकट हुआ।


‘सत्य’ और ‘ऋत’ की उत्पत्ति के पश्चात ‘रात्रि’ की उत्पत्ति हुई। यह ‘रात्रि’ कुछ और नहीं अपितु संभूतिगत सत्य ‘ऋत’ का ही प्रतिपक्ष ‘अनृत’ है। हमारे अनुभव में आने वाली प्रत्येक वस्तु के सम्यक् (Right) व चैतन्य रूप की संज्ञा ‘ऋत’ है, ये रूप वस्तुओं के वास्तविक (Real) रूप हैं जिन्हें ‘रात्रि’ संज्ञा से अभिहित ‘ऋत’ की यह प्रतिपक्षी शक्ति असम्यक्, जड़ व आभासी रूप में प्रस्तुत करती है। इस तरह प्रत्येक वस्तु मूलतः ‘ऋत’ है किन्तु उसके जिस विक्षेप को हम देखते हैं वह ‘अनृत’ (माया) है और मानव प्राणी स्वाभाविक सीमाओं के कारण वस्तुओं के इन दोनों रूपों के बीच भेद को जान नहीं पाते जिससे बंधन होता है।


‘रात्रि’ के पश्चात ‘गतिशील सागर’ की उत्पत्ति हुई। ऋषि ने इसके लिये समुद्रो अर्णव: पदावली का नियोजन किया है। श्री आर. एल. कश्यप लिखते हैं, “अर्णव’ शब्द का सामान्य अर्थ ‘सागर’ है। किन्तु इसके साथ ‘समुद्र’ पद के प्रयोग के कारण यह अर्थ समीचीन नहीं है। वेद में ‘अर’ का संबंध ‘ऋ’ के साथ है। ‘अर्णव’ का अर्थ ‘गति’ है।” आपका यह सुझाव बड़ा महत्वपूर्ण है। ‘समुद्रो अर्णव:’ का अर्थ ‘गतिशील सागर’ है और यह पद महान बुद्धि के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। बुद्धि का स्वरूप सागर के समान विराट और जलीय है जिसमें सद्वस्तु के आभासी प्रतिबिंब बनते हैं जिनसे जीव ठगे जाते हैं।


‘गतिशील सागर से संवत्सर (वर्ष = ब्रह्मा का वर्ष = काल) की उत्पत्ति हुई जिसने दिवस और रात्रि को प्रत्येक क्षण के शासक के रूप में विधिवत् रूप से नियत किया।’(10.190.2) ‘रात्रि’ शब्द माया के लिये प्रयुक्त हुआ है। माया जड़ द्रव्य है जो ऊर्जा से पदार्थ और पदार्थ से ऊर्जा में सदैव परिवर्तित होता रहता है। माया जब भी पदार्थ में व्यक्त होगी यह ‘नाम-रूप’ को ग्रहण करेगी किन्तु यह किस क्षण में किस ‘नाम-रूप’ में व्यक्त होगी इसका निर्धारण ‘कर्म’ से होगा जो माया के यंत्र-विज्ञान का ही एक पक्ष है। अतएव ‘जड़ द्रव्य’, ‘ऊर्जा’, ‘नाम-रूप’, ‘कर्म’ -ये सभी पद माया का ही निरूपण करते हैं। जहां माया होगी, वहाँ यह सब कुछ होगा। अब हम ‘कर्म’ (action) और ‘ऊर्जा’ के बीच संबंधों को देखें। विज्ञान हमें बताता है कि ‘ऊर्जा’ और ‘काल’ का गुणनफल ‘कर्म’ है। ऊर्जा काल से गुणित होने पर ही कर्म बनती है। कर्म के अभाव में काल की संकल्पना नहीं की जा सकती और काल के अभाव में कर्म नहीं हो सकता। कर्म का प्रत्यय परिवर्तन अथवा गति के प्रत्यय से जुड़ा हुआ है। परिवर्तन अथवा गति घटनाओं के बिना नहीं होती और घटनाओं के साथ ही काल का प्रत्यय मन में उत्पन्न हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि काल मायाशक्ति का ही एक आयाम है जिसके कारण माया में निहित शक्यता यथार्थता में रूपांतरित होती है। यहाँ ऋषि ने काल को महान बुद्धि से उत्पन्न बता कर जगत् के शासक के रूप में चित्रित किया है। हम जानते हैं कि महान बुद्धि माया/प्रकृति का परिणाम है, अतएव यदि काल महान बुद्धि में होगा तो उसके स्रोत माया में भी होगा। माया में ‘काल’, ‘कर्म’, ‘नाम-रूप’, ‘पदार्थ’ आदि सब कुछ है किन्तु वहाँ यह अव्यक्त अवस्था में, एक संभावना के रूप में है, बुद्धि में यह संभावना वास्तविकता में प्रकट होती है।


‘यथापूर्व रीति से सृष्टा (धाता) ने सूर्य और चंद्र, देवलोक, इहलोक, मध्यलोक और स्वः लोक (world of Light) का निर्माण किया।’(10.190.3) यहाँ पर ‘धाता’ सत्य स्वरूप परमात्मा सति को कहा गया है। सूर्य और चंद्र पदों का प्रयोग क्रमशः प्रभु की सत्ता और महत्ता, जिन्हें प्रथम मंत्र में ऋषि ने सत्य और ऋत कहा है, के लिये हुआ है। प्रभु की सत्ता सूर्य के समान स्थिर, शाश्वत और अविकारी है; प्रभु की महत्ता चंद्र के समान सूर्य रूप प्रभु की सत्ता पर आश्रित व विकारी है। सृष्टि के तीनों लोकों का निर्माण - जिसे यहाँ ऋषि ने ‘दिवं’ अर्थात देवलोक, ‘इहलोक’ और ‘अंतरिक्ष’ कहा है - प्रभु की सत्ता अर्थात ‘सत्य’ और उनकी महत्ता अर्थात ‘ऋत’ से होता है, गुरु नानक ने इन मंडलों को क्रमशः सरमखंड, धर्मखंड और ज्ञानखंड कहा है। धर्मखंड माया के तमोगुण से निर्मित यह पार्थिव जगत् है; सरमखंड माया के सत्वगुण से निर्मित सात्विक, दिव्य सृष्टि है; ज्ञानखंड माया के रजोगुण से निर्मित उपर्युक्त दोनों के मध्य स्थित लोक है। इन तीन मंडलों के अतिरिक्त एक ‘तुरीय’ अर्थात चौथा मंडल भी है जिसे ऋषि ने ‘स्वः’ कहा है, गुरु नानक ने इसे करमखंड कहा है।


इसी प्रकार हम वैष्णव संप्रदाय के मिथकों को देख सकते हैं। इस संप्रदाय में प्रचलित एक कथा के अनुसार ‘नर-नारायण’ नामक दो भाई हैं जिनका निवास हिमालय के ऊंचे शिखरों पर है। ये दोनों कोई और नहीं अपितु परमात्मा के दो पार्श्व हैं जिनकी पहचान हमने परमात्मा की सत्ता और शक्ति के रूप में की है और जिन्हें ऋग्वेद से लेकर आदिग्रंथ तक भिन्न-भिन्न सद्ग्रंथों में भिन्न-भिन्न नाम दिए गये हैं। ‘नर’ शब्द का धातु ‘नृ’ है और इसका अर्थ ‘नेता’, ‘मुखिया’ होता है। परमात्मा की शक्ति मायाग्रस्त सभी जीवों का नेतृत्व करती है, इसीलिए बाणी में परमात्मा की शक्ति शब्द को ‘गुरु’ अर्थात नेता, मुखिया कहा गया है। दूसरी ओर ‘नारायण’ माया के समस्त कर्म से न्यारा रहता है। नार+अयन से नारायण शब्द बना है। ‘नार’ शब्द का अर्थ ‘जल’ है जबकि ‘अयन’ का अर्थ ‘विश्राम स्थल’ है। अतः नारायण वह है जो जलों के ऊपर विश्राम करता है। इसी प्रकार वैष्णव संप्रदाय में भगवान विष्णु को सागर में ‘शेष-शैया’ पर निश्चिंत विश्राम करते हुए बताया गया है। ‘शेष’ का शाब्दिक अर्थ ‘बाकी’ है। सारी सृष्टि अशेष अर्थात विनाशशील है किन्तु सारी सृष्टि के लय हो जाने के उपरांत जो शेष रहता है वह प्रभु की शक्ति है, शब्दब्रह्म है। वैष्णव संप्रदाय में बताया गया है कि शेषनाग के सहस्र मुख हैं और इन मुखों से वह सदैव प्रभु की स्तुति करता रहता है। पुनः शेषनाग ने अपने फन पर ही सृष्टि को धारण कर रखा है। ‘सहस्र’ शब्द से ‘अनंत’ का अर्थ लेना चाहिये। प्रभु की शक्ति अनंत है और बहुलतामय है। यह शक्ति त्रिगुणात्मिका माया वाले इस संसार सागर का निर्माण करती है, इसे संभाले रखती है और इससे ऊपर व अतिरिक्त भी रहती है। अनंतशायी भगवान विष्णु प्रभु की अक्षर सत्ता हैं जो माया से निर्लेप हैं। शेषनाग द्वारा अपने अनंत मुखों से प्रभु की निरंतर स्तुति किए जाने का अर्थ यह है कि शक्ति द्वारा अनंत रूपों को प्रकट करने का प्रयोजन उसके द्वारा प्रभु की वंदना करना है।


(शेष आगे)

 

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