In the last couplet of his world famous poem Japuji, Guru Nanak Dev Ji writes,
"Air is the Guru. Water is the Father. Earth is the great Mother of all. Day and night are the two nurses in whose lap all the world is at play."
The question is why and in what sense are the Air and Water Guru and Father? Read Karta Purush 16 to know the answer on our behalf.
गुरू नानक देव जी अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना 'जपुजी' के अंतिम श्लोक में लिखते हैं :
पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिवस राति दुई दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥
इस श्लोक में पवन, जल, धरती व दिन-रात के अनवरत चक्र को लेकर एक सांगरूपक बुना गया है। दृश्यमान जगत् प्रभु का खेल है जिसमें जीव खेल रहे हैं। इन जीवों के लिए पवन गुरू है ; महान जल पिता है ; धरती माता के समान है। दिन व रात दोनों ही रात में संभालने वाली दाई व दिन में खेलाने वाले दाया के समान हैं। प्रश्र है कि हवा और पानी को गुरु और पिता क्यों कहा गया है। इस श्लोक के उचित अर्थ निकालने के अनेक प्रयास किए गए हैं। किंतु अभी तक सर्वसम्मत अर्थ नही निकाले जा सके। हमारी राय में इस श्लोक के क्या अर्थ हैं, यह जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 16

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प्रकृति अथवा माया मूलभूत जड़ द्रव्य (substance) है। इसे हम ब्रह्मांडीय भौतिक ऊर्जा कह सकते हैं, जो ऊर्जा से पदार्थ तथा पदार्थ से ऊर्जा में सतत परिवर्तित होती रहती है। यह प्रकृति त्रैगुणी है जिससे यह त्रैगुणात्मक सृष्टि उत्पन्न होती है। जगत् का विकासक्रम प्रकृति/माया का ही विकासक्रम है। इसे ही सांख्य में गुणोत्कर्षवाद या गुणपरिणामवाद कहा गया है। बाल गंगाधर तिलक अपनी पुस्तक 'गीता रहस्य' में लिखते हैं, "जिस तरह मोड़दार पंख को धीरे-धीरे खोलते हैं उसी तरह सत, रज, तम की साम्यावस्था में रहने वाली प्रकृति की तह जब धीरे-धीरे खुलने लगती है तब व्यक्त सृष्टि बनती है। यह किस प्रकार बनती है? सबसे पहले अव्यक्त प्रकृति अपनी साम्यावस्था भंग करके व्यक्त सृष्टि के निर्माण का निश्चय करती है। निश्चय करना बुद्धि का लक्षण है। अतः सबसे पहले निश्चयात्मक बुद्धि ही पैदा होती है। इस बुद्धि को ही महत्, ज्ञान, मति, आसुरी, प्रजा, ख्याति आदि नाम दिए गए हैं।''
महत् अथवा बुद्धि को आदिग्रंथ की सृष्टि रचना प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
पउणै पाणी अगनी का मेलु ॥ चंचल चपल बुधि का खेलु ॥
नउ दरवाजे दसवा दुआरु ॥ बुझु रे गिआनी एहु बीचारु ॥1॥
कथता बकता सुनता सोई ॥ आपु बीचारे सु गिआनी होई ॥(1-152)
इस शब्द में किसी शास्त्रवेत्ता पंडित के प्रति उपदेश दिया गया प्रतीत होता है। पंडित जी का कोई निकट संबंधी मृत्यु को प्राप्त हुआ है जिससे वह शोकाकुल है। गुरु जी ने उसे उपदेश देते हुए कहा कि यह शरीर पाँच तत्त्वों -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। इसके नौ द्वार दो आँखेँ, दो कान, दो नाक के सुराख, मुख, जननेन्द्रिय और त्वचा हैं। ये नौ द्वार सर्वज्ञात हैं। फिर एक दसवां द्वार भी है जिसका रहस्य गुप्त है : …..नउ दुआरे परगटु कीए दसवा गुपतु रखाइआ ॥(5-922) इन नौ द्वारों से माया के जिस अस्थिर, चपल, खेल का अनुभव होता है वह अस्थिर, चंचल बुद्धि के कारण है। लेकिन दशमद्वार में क्या रहस्य है, यह चंचल बुद्धि उसे नहीं जानती। लेकिन वास्तविक ज्ञानी वही है जो दशमद्वार के रहस्यों को जानता है। रहाउ की पंक्ति में उपदेश का सार प्रस्तुत करते आप लिखते हैं, “ज्ञानी वह है जो (दशमद्वार में चित्त को एकाग्र करके) अपने-आप को जानता है, ऐसे व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है कि परमात्मा ही वास्तविक वक्ता और श्रोता है।” ध्यान रहे कि ‘रहाउ’ की पंक्ति में ‘वक्ता’ के लिये दो पर्यायवाची पदों - कथता बकता - का प्रयोग किया गया है। इन दोनों में बकता अर्थात ‘वक्ता’ पद अस्तित्व के रहस्यों से परिचित ज्ञानी महापुरुष के लिये प्रयोग किया गया है जबकि कथता पद इन रहस्यों से अपरिचित अज्ञानी मनुष्यों जैसे पंडित, काजी आदि के लिये प्रयोग किया गया है। ज्ञानी महापुरुष प्रभु का संदेशवाहक, उसका प्रवक्ता है जबकि अज्ञानी जीव सुनी-सुनाई या पढ़ी-पढ़ाई कथाओं को सुनाने वाला कथावाचक है। लेकिन चाहे कोई ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, सभी में वाक् आदि कर्मेन्द्रियों और कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियों का प्रवर्तन दशमद्वार में विराजमान परमात्म सत्ता करती है। जिसकी बुद्धि दशमद्वार में एकाग्र है उसके लिये मन, इंद्रियों और पाँच महाभूतों का समस्त खेल परमेश्वरी शक्ति के कारण होने वाला दिव्य खेल है; जिसकी बुद्धि चंचलता के कारण दशमद्वार से च्युत और इंद्रियों के नौ द्वारों में भटक रही है उसके लिये यह समस्त खेल माया के कारण होने वाला अदिव्य खेल है।
इस तरह इंद्रियों के नौ द्वारों में होने वाला माया का समस्त खेल बुद्धि के कारण है। सर्वप्रथम बुद्धि परमात्मा के चिदांश से प्रकाशित होती है जिससे उसमें अहं का स्फुरण होता है। यह अहं बुद्धि को चंचल कर देता है जिससे वासना, मेरेपन की उत्पत्ति होती है। इस मेरेपन को ही मन कहते हैं। इस तरह सृष्टि के सभी पदार्थ बुद्धि के ही प्रकाश हैं। यदि बुद्धि अपने प्रकाशक/शब्द की ओर उन्मुख है, उसने सत् शब्द को धारण कर रखा है, उसमें श्रद्धा है तो बुद्धि शुद्ध व स्थिर होगी जिससे अहं और मन भी शुद्ध होंगे।
इसी प्रकार आदिग्रंथ में संकलित कबीर जी के एक शब्द, 'गई बुनावन माहो ॥ घर छोड़िऐ जाइ जुलाहो ॥(कबीर जी -335) की व्याख्या करते हुए भाई वीर सिंह लिखते हैं, ''जीव जन्म-मरण की कैद में है। हर जन्म में नई देह मिलती है। यह नवीन वस्त्रों के समान है। जिस तरह वस्त्र पहनने की लालसा बनी रहती है उसी तरह मनुष्य की बुद्धि शरीर की पकड़ नहीं छोड़ती। जब यह शरीर की तृष्णा छोड़े तब इसकी गति हो। इसीलिए कहा है : मेरी मति बउरी मै राम बिसारिउ ॥ किन विधि रहन रहउ रे ॥(कबीर -482) इस बावरी मति को इस शब्द में 'माहो' कहा है। यदि यह बावरी मति अपने स्वामी आत्मा के विपरीत न जाए और यह समझे कि यह जीवन तो एक अवसर था और इसका एक विशेष प्रयोजन था : इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥(कबीर -1159) तो यह इस अवसर को नहीं गंवायेगी और इसका पूरा लाभ उठायेगी। ......... पर यह होता नहीं। यह 'माहो' अवसर गंवा देती है, अपने पति (आत्मा) के विपरीत चलती है, जिसका नतीजा वासना से बंध कर पुनर्जन्म होता है।''(संथया, खंड 5, पृ -2081)
इससे यह स्पष्ट होता है कि सांख्योक्त पुरुष अथवा आदिग्रंथोक्त जीवात्मा को जगत् प्रपंच में भरमाने वाली बुद्धि है। हम कह सकते हैं कि मनुष्य के अंतःकरण में सर्वप्रथम बुद्धि की उत्पत्ति होती है। बुद्धि हमारे अंतरंगता के करणों में सर्वप्रथम है। यहां ध्यान रहे कि बुद्धि को महत् अर्थात् महान कहने का तात्पर्य यह है कि यह एक वैश्विक तत्त्व है। यह जल, थल व नभ में व्याप्त चैतन्य पुरुष की अभिव्यक्ति है, यह विज्ञानमय पुरुष है। मनुष्य में निश्चय करने वाला तत्त्व व प्रकृति में नैसर्गिक रूप से उपस्थित शक्तियां जैसे पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण, चुंबक में आकर्षण, रसायनशास्त्र के समीकरण इस बुद्धि के उदाहरण हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार बुद्धि की उत्पत्ति प्रकृति/माया से होती है जो मूलभूत जड़ द्रव्य या ब्रह्मांडीय भौतिक ऊर्जा है। लेकिन जहां तक आदिग्रंथ का प्रश्न है उसमें अभी तक हमें त्रिगुणात्मिका माया और बुद्धि के बीच ऐसे किन्हीं संबंधों की सूचना नहीं मिली है। ‘करम खंड’ में हमारा परिचय एक ऐसी चेतना से हुआ है जिसके स्थिर व गतिशील दो पहलू हैं, जिन्हें बाणी में क्रमशः 'राम' व 'सीता' या कादर-कुदरत, शिव-शक्ति आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। ‘सरम खंड’ में आकर हमने जाना कि इस चेतना के गतिशील पहलू से आत्मा की उत्पत्ति होती है। एक चेतन तत्त्व से दूसरे चेतन तत्त्व की उत्पत्ति स्वाभाविक है। फिर हमने यह भी जाना कि इसी चेतन तत्त्व से जड़ माया की भी उत्पत्ति होती है। निश्चित रूप से यह जड़ तत्त्व बुद्धि का स्रोत हो सकता है जो स्वयं जड़ तत्त्व ही है और आगे वैश्विक अज्ञानता का स्रोत बनता है। लेकिन हमें आदिग्रंथ में त्रिगुणात्मिका माया और महान बुद्धि के बीच के संपर्क सूत्र को खोजना ही होगा।
गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
साचे ते पवना भइआ पवने ते जलु होइ ॥
जल ते त्रिभवणु साजिआ घटि घटि जोति समोइ ॥(1-19)
इस उद्धरण में चार वस्तुओं की सूचना है - सच, पवन, जल व त्रिभुवन। 'सच' का अर्थ अविनाशी प्रभु की अविनाशी शक्ति शब्द है। जबकि त्रिभुवन एक द्विगु समास है जिसका अर्थ है - माया के तीन गुणों से निर्मित भवन अर्थात् यह विविधतामय जगत् जो 'हउमै'/अहंकार से निर्मित होता है। अहंकार विविधता का नियम है और नाना रूपों व रंगों का यह त्रिभुवन अहंकारस्वरूप का है। अब शब्द जो चेतन सत्ता और 'एक' है, से अहंकर, जो प्रतीयमान विविधता है, तक की इस यात्रा के मध्य दो पड़ाव और हैं - पवन व जल। आप कहते हैं, 'सच से पवन बनता है, पवन से जल बनता है, जल से यह त्रिलोकी रची गई जिसके कण-कण में प्रभुज्योति अर्थात सच का निवास है।' यह पवन व जल क्या है? सांख्य के अनुसार इस विविधतामय दृश्य जगत् का नियोजन ऊर्जा की एक महान गति से होता है जिसे वहाँ मूल ऊर्जा या मूल प्रकृति कहा गया। यह प्रकृति यांत्रिक, निश्चेतन, सर्वव्यापक व अरूप है। ये सभी गुण पवन में लिखते है, अतः 'पवन' पद से गुरू नानक सांख्य वाली इसी प्रकृति की ओर ही संकेत कर रहे हैं। सांख्य के अनुसार यह प्रकृति अकृत (uncreated) और अपने आप से आप (self-created) है। इसी विचार के कारण सांख्य दर्शन द्वैतवादी सिद्धांत है। किंतु आदिग्रंथ में, भगवद्गीता की तरह ही, सांख्य के द्वैतवादी सिद्धांत से एक महान विचलन दिखाई देता है क्योंकि यहां पवन अर्थात् प्रकृति को अकृत व अपने आप से आप नहीं कहा गया अपितु इसे 'सच' अर्थात् परमात्मा से निर्मित कहा गया है, यह ‘सच’ पर ही आश्रित है। विकास की अगली अवस्था में पवन से जल बनता है। यह ‘जल’ कुछ और नहीं बल्कि सांख्य में वर्णित महत् है। अपने मूल पदार्थ के समान यह तत्त्व भी जड़, यांत्रिक, निश्चेतन व अरूप है किंतु सृजन के लिए पवन की अपेक्षा अधिक नमनशील व अनुकुलनशील पदार्थ है मानों पवन ही घनीभूत होकर मूर्त रूप ले चुका हो। महत् ही वह माध्यम या दर्पण है जिसमें सद्वस्तु के मिथ्या रूप या प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं। इस माध्यम के प्रतिबिंबित करने के तथ्य से पता चलता है कि इसका स्वरूप तरंगों वाला और चंचल जल के जैसा है जिससे हमें सद्वस्तु के खंडित व विकृत बिंब प्राप्त होते हैं। इसलिए इस तत्त्व को जल से संकेतित करना युक्तियुक्त है। यह जड़ प्रकृति में हुआ प्रथम विक्षोभ, भौतिक गति का प्रथम सूत्रपात है जिससे आगे त्रिलोकी के विविध रूपों की सृष्टि होती है। त्रिलोकी में उत्पन्न हुई यह विविधता ही अहंकार या हउमै है जिससे यह विविधतामय सृष्टि का निर्माण होता है जिसे गुरू साहिब ने त्रिभवणु पद द्वारा संकेतित किया है।
यही सिद्धांत हमें गुरू नानक देव जी की विश्व प्रसिद्ध रचना 'जपुजी' के अंतिम श्लोक में भी प्राप्त होता है। आप लिखते हैं :
पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥
दिवस राति दुई दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥(1-8)
इस श्लोक में पवन, जल, धरती व दिन-रात के अनवरत चक्र को लेकर एक सांगरूपक बुना गया है। दृश्यमान जगत् प्रभु का खेल है जिसमें जीव खेल रहे हैं। इन जीवों के लिए पवन गुरू है, पवणु गुरू ; महान जल पिता है, महतु पाणी पिता ; धरती माता के समान है, माता धरति । दिन व रात दोनों ही रात में संभालने वाली दाई व दिन में खेलाने वाले दाया के समान हैं। खेल के लिए देश (space) की आवश्यकता होती है। ‘धरती’ पद से ब्रह्मांड के समस्त विस्तार को इंगित किया गया है। अंश (part) के द्वारा सम्पूर्ण (whole) को इंगित करना काव्यजगत् में सर्वमान्य पद्धति है। लेकिन केवल ब्रह्मांड का समस्त विस्तार ही धरती नहीं है, ब्रह्मांड का आंशिक रूप पिंड भी धरती ही है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :
करम धरती सरीरु जुग अंतरि जो बोवै सो खाति ॥(5-77)
यहाँ शब्द ‘जुग’ का अर्थ दो अर्थात द्वैत है। ‘जुग अंतरि’ का अर्थ ‘द्वैतावस्था में’ है। जीवात्मा का प्रकृति के जगत् में आना वस्तुतः द्वैतावस्था में आना है। द्वैतावस्था में प्रत्येक विचार का एक विरोधी विचार होता है जो उसे प्रति-संतुलित करता है। कर्म के प्रत्यय का संतुलन फल से होता है। प्रकृति की इस द्वैतावस्था में, जुग अंतरि, जीवों के शरीर मानों कर्मभूमि हैं, करम धरती सरीरु, जबकि उनके कर्म मानों बीज हैं। यदि बीज बोया गया है तो उसकी फसल भी काटनी पड़ेगी। कर्म के फल की प्राप्ति भी प्रकृति की इसी द्वैतावस्था में शरीर रूपी कर्मभूमि के माध्यम से होगी। प्रकृति के अधिकार-क्षेत्र में शरीर में रहकर जिस प्रकार के कर्म हम करते हैं उनके फल को प्राप्त करने के लिये प्रकृति के अधिकार-क्षेत्र में ही समुचित प्रकार के शरीर हमें आगे प्राप्त हो जाते हैं। अतः ‘धरती’ का अर्थ देश (space) है और जगत् व शरीर अथवा ब्रह्मांड व पिंड इस देश के दो पहलू हैं जिसमें जीव वैसे ही खेलते हैं जैसे माता की गोद में बालक। धरती मां की तरह प्रत्येक जीव का उस समुचित रीति से पालन-पोषण करती है जिसका वह पात्र है।
लेकिन यह खेल शाश्वत नहीं है, एक कालावधि में खेला जाता है। खेल प्रारम्भ हुआ है, इसी में इस बात की ध्वनि है कि वह कभी समाप्त भी होगा। अतः खेलै पद से देश व काल दोनों की जानकारी दे दी गई है। देश व काल में खेलते जीवों का पिता जल है। यह जल कुछ और नहीं बल्कि बुद्धि है जिसके लिए गुरु जी ने महत् विशेषण का प्रयोग किया है। भाई वीर सिंह के अनुसार संस्कृत में महत् तीनों लिंगों में प्रयुक्त होता है किंतु यहां इसके साथ छोटे 'उ' (ु) की मात्रा लगने के कारण यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह पुलिंग जल के लिए प्रयुक्त किया गया है न कि स्त्रीलिंग धरती के लिए। जल को महत् कह देने से साफ संकेत मिलता है कि यह महान बुद्धि है जो विविधता की इस क्रीड़ा का जनक अर्थात पिता है। जैसे पिता संतान में स्वयं को ही अभिव्यक्त करता है वैसे ही बुद्धि ही भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिये विकृत हो नाना प्रकार के रूप धारण करती है। बुद्धि ही अहं के रूप में अभिव्यक्त होती है। अहं की गति ही मन कहलाती है। इस तरह अहंकार बुद्धि की उत्तेजित अवस्था है और मन अहंकार की उत्तेजित अवस्था है। ज्ञानेन्द्रियों के रूप में भी बुद्धि ही अभिव्यक्त होती है। गुरु नानक देव जी के अनुसार सृष्टि का समस्त खेल ‘चंचल चपल बुद्धि का खेल’ है। ब्रह्मर्षि विश्वात्मा बावरा लिखते हैं, “बुद्धि ही जीव का स्वरूप है। जीव शब्द का अर्थ होता है सीमित व छोटा। सीमा बुद्धि के नाते है, आत्मा के नाते तो सीमा हो ही नहीं सकती।………अनंत को जब हम किसी सीमा में देखते हैं तो किसी माध्यम के द्वारा ही देखते हैं। …………बुद्धि ही माध्यम है, बुद्धि से ही अहं का और अहं से ही मन का आविर्भाव होता है। आगे सारी इसकी ही संताने हैं।“(श्रीमद्भगवद्गीता-धर्मविज्ञान भाष्य-16/162)
इस तर्कपद्धति से पवन का साम्य सांख्य वाली प्रकृति/माया से हो जाता है। ‘पवन’ को ‘गुरू’ कहा गया है। प्राचीन काल में बच्चे पैतृक आवास को छोड़ कर गुरू के आश्रम में जाते थे ताकि वे वहां शिक्षा-दीक्षा हासिल करें और फिर माता-पिता के पास लौट आएं। इस प्रकार गुरू अपने शिष्यों को तब तक धारण किए रहता है जब तक वे वयस्क न हो जायें और उन्हें जीवन का प्रयोजन समझ में न आ जाये। जगत् के जीवों का पैतृक आवास 'सच' है। 'सच' ने उन्हें प्रकृति/माया के क्षेत्र में भेजा है जो उनके लिए ‘गुरू’ रूप है और ये उन्हें तब तक धारण किए रखेगी जब तक ये जीव वयस्क होकर अपने पैतृक आवास पहुंचने के योग्य नहीं हो जाते। 'पवन' या माया/प्रकृति इसी अर्थ में ‘गुरू’ है।
(शेष आगे)
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