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Kartapurush ep14 - कर्तापुरुष ep14

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: May 12, 2023

n the Karta Purush 13, we had carried out a study of the Maya from the philosophical point of view. Now, we must have a look on this concept from the scientific point of view. Maya is the most subtle, primary and natural condition of the matter. In its pristine condition, it exists with zero mass, zero density and zero energy having no light, temperature, force, sound, vibration etc. And then, everything ranging from the innumerable gigantic stars to the most subtle particle and wave is born out of this matter. The question is how does it happen? Read Karta Purush 14 to know the answer.


पिछले भाग में माया का दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया गया है। अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इसके स्वरूप को समझ लेना चाहिये। माया पदार्थ की सबसे सूक्ष्म, प्रारम्भिक और स्वाभाविक अवस्था है। इस ब्रह्मांड में विद्यमान असंख्य विशालतम तारों से लेकर सूक्ष्मतम कण, तरंग आदि पदार्थ सभी इस जड़ पदार्थ से ही निर्मित हुए हैं। यह पदार्थ नितांत शून्य द्रव्यमान, शून्य घनत्व एवं सर्वथा ऊर्जारहित होता है अर्थात माया पदार्थ की ऐसी अवस्था है जब ऊर्जा, प्रकाश, ताप, द्रव्यमान, बल, आकाश, ध्वनि, सूक्ष्मातिसूक्ष्म कंपनादि कुछ भी विद्यमान नहीं होता। विज्ञान के अनुसार माया के स्वरूप की समझ के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 14

Kartapurush ep14
Kartapurush ep14
 

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माया का दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन हो चुका। अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इसके स्वरूप को समझ लेना चाहिये। इसके लिये आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक द्वारा लिखित पुस्तक ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ बड़ी महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ का सार विशाल आर्य ने ‘वैदिक भौतिकी (वेदविज्ञान-आलोकः ग्रंथ का सार)’ नाम से लिखा है। इसमें माया/प्रकृति के स्वरूप पर कई महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की गई हैं। ये टिप्पणियाँ ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका का अनुसरण करते हुए की गई हैं और क्योंकि आदिग्रंथ में प्रस्तुत सांख्यदर्शन और ईश्वरकृष्ण के ऐतिहासिक सांख्यदर्शन के मत-वैभिन्न्य की चर्चा भली प्रकार की जा चुकी है, इसलिये वे सभी टिप्पणियाँ हमारे काम की नहीं हैं, फिर भी उनके कुछ बिन्दु गौर करने लायक हैं। इस ग्रंथ के अनुसार माया/प्रकृति पदार्थ की सबसे सूक्ष्म, प्रारम्भिक और स्वाभाविक अवस्था है। इस ब्रह्मांड में विद्यमान असंख्य विशालतम तारों से लेकर सूक्ष्मतम कण, तरंग आदि पदार्थ सभी इस जड़ पदार्थ से ही निर्मित हुए हैं। आचार्य प्रकृति का स्वरूप बताते हुए आगे लिखते हैं, “इस पदार्थ का कभी भी अभाव नहीं होता। सम्पूर्ण सृष्टि बनने के बाद भी यह पदार्थ अभी भी हमारे चारों ओर विद्यमान है।………….ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पूर्व यह पदार्थ सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में सब जगह एकरस भरा रहता है, उसमें कोई भी उतार-चढ़ाव नहीं होता अर्थात कहीं सघन, कहीं विरल ऐसा नहीं होता है। मानों सारा पदार्थ एक ही हो। जैसे समुद्र में जल एकरस भरा हुआ है, वैसे ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड में यह पदार्थ भरा हुआ है। समुद्र में भरे जल के अणुओं के मध्य तो रिक्त स्थान भी होता है………परंतु प्रकृति रूपी पदार्थ में यह कुछ भी नहीं होता। यह जड़ पदार्थ की सबसे सूक्ष्म अवस्था है। इससे सूक्ष्म जड़ पदार्थ की अवस्था इस ब्रह्मांड में कभी भी संभव नहीं है। यह पदार्थ कण, आकाश, तरंग आदि के रूप में नहीं होता है। ………….यह पदार्थ की वह स्थिति है जिसे किसी भी तकनीक से कभी भी जाना वा ग्रहण नहीं किया जा सकता है।(प्रभाव जोड़ा गया) इस सृष्टि में जो भी जड़ पदार्थ विद्यमान था, है या होगा उस सबकी उत्पत्ति का मूल कारण यही जड़ पदार्थ है। ब्रह्मांड में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां यह प्रकृति न हो। सम्पूर्ण सृष्टि इसी पदार्थ से बनी एवं इसी में उत्पन्न भी होती है। इससे बाहर कोई भी उत्पत्ति आदि क्रियाएं कभी नहीं हो सकतीं। यह पदार्थ ऐसे अंधकार रूप में विद्यमान होता है, वैसा अंधकार अन्य किसी भी अवस्था में नहीं हो सकता।…………यह पदार्थ सृष्टि के निर्माण के लिये पूर्ण होता है अर्थात इसके अतिरिक्त अन्य किसी जड़ पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती है। ………(सार रूप में कहें तो) सृष्टि का मूल पदार्थ सर्वत्र अर्थात अनंत आयतन में ऐसी विरल अवस्था में एकरस होकर फैला वा व्याप्त रहता है, जैसा इस सृष्टि में कभी व कहीं नहीं रह सकता। उस समय अनंत अंधकार विद्यमान होता है। वह पदार्थ नितांत शून्य द्रव्यमान, शून्य घनत्व एवं सर्वथा ऊर्जारहित होता है अर्थात उस समय ऊर्जा, प्रकाश, ताप, द्रव्यमान, ……. बल, आकाश, ध्वनि, सूक्ष्मातिसूक्ष्म कंपनादि कुछ भी विद्यमान नहीं होता। (तब) सम्पूर्ण ब्रह्मांड मानों उस अव्यक्त प्रकृति में लीन होकर गहन अंधकार में डूबा हुआ था। (तब) पदार्थ विद्यमान अवश्य होता है परंतु उसकी विद्यमानता का कोई भी लक्षण, क्रिया, बल आदि बिल्कुल भी विद्यमान नहीं होते।“


हम जान चुके हैं कि माया/प्रकृति तीन गुणों वाली है। ये हैं - सत्व, रजस व तमस। "तमस्‌ प्रकृति की निर्ज्ञान की शक्ति है, रजस्‌ उसकी कामना और प्रेरणा से आलोकित क्रियाशील अन्वेषी अज्ञान की शक्ति है, सत्व उसके अधिकृत और समन्वित करने वाले ज्ञान की शक्ति है।"(गीता प्रबंध, पृ -398) इनके कार्य क्रमशः लय, गति व प्रकटन हैं। “सत्व वह गुण है जिसके कारण कालांतर में प्रकाश एवं आकर्षण बल आदि की उत्पत्ति होती है तथा प्राणियों के अंदर सुख और शांति की अनुभूति होती है। रजोगुण के कारण ………….गतिशीलता की उत्पत्ति होती है। ………प्राणियों में इसी गुण के कारण चंचलता, क्रियाशीलता, ईर्ष्या-द्वेष आदि गुण उत्पन्न होते हैं। तमोगुण के कारण अंधकार, जड़ता, गुरुता, निष्क्रियता, द्रव्यमान आदि गुणों की उत्पत्ति होती है। इसके कारण प्राणियों में मूर्खता, मोह, अति कामुकता, आलस्य व क्रोध आदि गुण उत्पन्न होते हैं।“(विशाल आर्य कृत ‘वैदिक भौतिकी) ये गुण यद्यपि एक दूसरे के विरोधी हैं फिर भी एक दूसरे से सहयोग करते हैं व सहस्थिति में रहते हैं। संसार की सब वस्तुएं इन तीन गुणों से निर्मित होती हैं। वस्तुओं में अंतर व विविधता का कारण इन गुणों का विविध रूप से संयुक्त होता है। प्रभु की गतिशील, सक्रिय शक्ति से उत्पन्न होने के कारण ये तीनों गुण एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं रहते। परिवर्तन इनका स्वभाव है। यह परिवर्तन दो प्रकार का होता है - समांगी (homogeneous) व विषमांगी (heterogeneous)। प्रथम प्रकार के परिवर्तन में सत्व सत्व में परिवर्तित होता है, रजस्‌ रजस्‌ में व तमस्‌ तमस्‌ में। यह प्रकृति के तीन गुणों की सक्रिय किन्तु साम्य व अमिश्रितावस्था है। इस अवस्था में प्रकृति में तमस् के कारण द्रव्यमान तो होता है किन्तु रजस् के अमिश्रित होने के कारण क्रिया नहीं होती जिससे ऊर्जा शून्य हो जाती है और उसके परिणामस्वरूप द्रव्यमान भी शून्य हो जाता है। इसी प्रकार हमारी परिचित अवस्था में प्रकाश सदैव गतिशील रहता है और उसमें द्रव्यमान नहीं होने के बावजूद गति के कारण ऊर्जा रहती है। इसके विपरीत प्रकृति की साम्यावस्था में सत्वगुण के कारण प्रकाश तो होता है किन्तु गति का जनक रजोगुण और द्रव्यमान का जनक तमोगुण के भिन्न होने के कारण प्रकाश में गति और द्रव्यमान अनुपस्थित हो जाते हैं जिससे प्रकाश भी शून्य हो जाता है। इस कारण समांगी परिवर्तन की अवस्था में माया का संतुलन भंग नहीं होता और जगत्‌ की रचना भी नहीं होती। किंतु रजोगुण के कारण तीनों गुणों में मिश्रण हो जाता है। प्रकृति की इस मिश्रितावस्था में ये तीनों गुण एक दूसरे के साथ जोड़े बनाते, एक दूसरे के आश्रित रहते व एक दूसरे का अनुसरण करते हैं। इससे वर्तमान भौतिकी की यह शर्त पूरी हो जाती है कि “जहां भी द्रव्यमान है, वहाँ बल अवश्य है,………..जहां बल है, वहाँ कोई न कोई क्रिया अवश्य होगी। जहां क्रिया होगी, वहाँ बल अवश्य होगा,……….जहां बल होगा, वहाँ द्रव्यमान भी अवश्य होगा।“(वही)


हमने यह जाना है कि ब्रह्मांड की रचना के उपादान पदार्थ माया/अपरा प्रकृति में तीन गुण हैं - सत्व, रज और तम। इनमें से सत्वगुण और तमोगुण एक दूसरे के विरोधी गुण हैं। सत्व प्रकाश रूप है तो तम अंधकार रूप है। सत्व में आकर्षण बल है तो तम में प्रतिकर्षण बल है। यदि हम माया को एक तुला के रूप में देखें तो ये दोनों गुण उसके दो पलड़े हैं, रजोगुण इस तुला की बीच की बोदी मात्र है। हमारे जगत् की द्वन्द्वात्मक प्रकृति जिसके कारण हम जीव दुख-सुख, हानि-लाभ, धूप-छाँव, आदि-अंत आदि का अनुभव करते हैं, माया के इन दो गुणों -सत्व और तम के कारण है। रजोगुण तो एक या दूसरे गुण को घनीभूत या द्रवीकृत मात्र करता है। इससे इस समस्या का समाधान होता है कि माया तो त्रैगुणात्मक है लेकिन इससे उत्पन्न जगत् की प्रकृति द्वन्द्वात्मक है।


आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के अनुसार ब्रह्मांड की कुल गुरुत्व ऊर्जा इसकी कुल द्रव्यमान ऊर्जा के समान और विपरीत होती है। ब्रह्मांड के बारे में आधुनिक विज्ञान के इस सिद्धांत की पुष्टि सांख्योक्त माया के उपर्युक्त अध्ययन से होती है। गुरुत्व ऊर्जा का मूल सत्वगुण है जबकि द्रव्यमान ऊर्जा का मूल तमोगुण है। विपरीत स्वभाव वाले ये दोनों गुण ब्रह्मांड के पूर्ववर्ती पदार्थ में समान मात्रा में होते हैं जिससे ब्रह्मांड में गुरुत्व ऊर्जा द्रव्यमान ऊर्जा के समान और विपरीत होती है। ब्रह्मांड का उद्गम पूर्ववर्ती पदार्थ के शून्य भंडार से हुआ। सृष्टि रचना की यह एक सामान्य विशेषता है कि प्राथमिक ऊर्जा तरंगाणुओं (energy quanta) और पदार्थ कणों (matter-particles) की रचना ऐसे युग्मों में हुई जिनके गुणात्मक लक्षण विपरीत और मात्रात्मक लक्षण समान होते हैं। उन युग्मों का कुल योग शून्य होता है। इस सिद्धांत के अनुसार पदार्थ और प्रति-पदार्थ की रचना एक साथ हुई थी और रचना के पहले एक सेकंड के अंत तक ये दोनों एक-दूसरे का नाश करने के लिये संपर्क कर चुके थे। यदि पदार्थ और प्रति-पदार्थ की समान मात्रा में रचना हुई होती तो ब्रह्मांड की रचना नहीं होती। इस कठिनाई से निजात पाने के लिये विधाता ने एक असाधारण इंतजाम किया था और वह यह था कि प्रति-पदार्थ से थोड़ी अधिक मात्रा में पदार्थ की रचना हुई जिससे पदार्थ और प्रति-पदार्थ द्वारा एक-दूसरे के नाश के उपरांत भी पदार्थ के इस अतिरेक के कारण ब्रह्मांड की रचना हो गई। सृष्टि रचना की यह आधुनिक व्याख्या सांख्य दर्शन के इस विचार से सुसंगत है कि सृष्टि के मूल उपादान पदार्थ प्रकृति में सत्व गुण और तमोगुण समान मात्रा किन्तु विपरीत स्वभाव वाले गुण थे और प्रकृति में सृष्टि रचना का आवेग रजोगुण की सक्रियता के कारण हुआ जिससे सत्व गुण और तमोगुण सृष्टि की रचना प्रक्रिया में योगदान दे पाने में समर्थ हो पाते हैं।


यदि हम ब्रह्मांड को विशाल पैमाने पर देखें, जैसे 1024 मीटर और उससे अधिक बढ़े पैमाने पर, तो पाते हैं कि इसमें पदार्थ का वितरण अत्यधिक सजातीय और आइसोट्रोपिक है। ब्रह्मांड में अंतरिक्ष (space) के सभी बिंदुओं पर समान भौतिक गुण हैं, दूसरे शब्दों में, यह सजातीय है। ब्रह्मांड में सभी दिशाओं में एक ही जैसे गुण-धर्म हैं, दूसरे शब्दों में, यह आइसोट्रोपिक है। अंतरिक्ष के अलग-थलग और दूरस्थ क्षेत्र उल्लेखनीय रूप से समान हैं और इस समानता का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है। यदि हम बिग बैंग विस्फोट को देखें तो यह अराजक नहीं बल्कि सुनियोजित था। विस्तार का प्रारंभिक बल बिल्कुल न्यायसंगत था। यदि विस्तार की दर तेज या धीमी होती तो ब्रह्मांडीय विकास अलग होता और हम नहीं होते। यदि ब्रह्मांड धीमी गति से विस्तारित होता तो जीवन के उत्पन्न होने से पहले ही ब्रह्मांड ढह जाता। दूसरी ओर यदि विस्तार की दर तेज होती तो आकाशगंगाओं का निर्माण नहीं हो पाता। यदि ब्रह्मांड का अराजक रूप से विस्तार हुआ होता, तो यह अलग-अलग दिशाओं में अलग-अलग दरों पर विस्तारित होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। विस्तार की दर सभी दिशाओं में समान है। सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, ब्रह्मांड सजातीय है। प्रत्येक तारे में, प्रत्येक दिशा में, समान परमाणु कार्य करते हैं और वे समान भौतिक नियमों का पालन करते हैं। पृथ्वी के क्वार्क, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन और अन्य लेप्टन, फोटॉन और न्यूट्रिनो की संरचना और कार्य वैसे ही हैं जैसे हमारी आकाशगंगा से अरबों प्रकाश वर्ष दूर स्थित आकाशगंगाओं में हैं। यह इस तथ्य का प्रमाण है कि दूरस्थ अतीत में किसी क्षण परमाणुओं, उप-परमाणु कणों और फोटॉनों के बीच पारस्परिक संचार था जिससे वे सूदूर और भिन्न-भिन्न दिशाओं में होने के बावजूद ब्रह्मांड के किसी भी स्थान पर बिल्कुल समान व्यवहार कर पाते हैं। बिग बैंग विस्फोट का अवशेष, ब्रह्मांडीय पृष्ठभूमि विकिरण आइसोट्रोपिक है अर्थात यह सभी दिशाओं में समान है। हमारे पास यह इंगित करने के लिए अप्रत्यक्ष सबूत हैं कि बिग बैंग के एक सेकंड बाद भी ब्रह्मांडीय विस्तार आइसोट्रोपिक था। यदि ब्रह्मांड आइसोट्रोपिक नहीं होता तो यह विशाल मात्रा में गर्मी पैदा कर सकता है जो मजबूत विकिरण दबाव डालकर आकाशगंगाओं के गठन को रोक देता। यदि ऐसा होता, तो जीवन के उभरने के लिए परिस्थितियां अनुकूल नहीं हो पातीं। ब्रह्मांड में पाए जाने वाले सजातीयता और आइसोट्रोपी के गुण यह सिद्ध करते हैं इसका उपादान पदार्थ एक ही है।


ब्रह्मांड पदार्थ और ऊर्जा से बना है, और ये दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हैं, ऊर्जा के पैकेट को ही पदार्थ कहते हैं। यदि हम पदार्थ का विश्लेषण करें तो हमें कण, सूक्ष्म कण, तरंगाणु और क्वार्क मिल जाते हैं। यह हमारे ज्ञान की वर्तमान सीमा है। इसके आगे क्या है, हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। ज्ञानी पुरुष हमें बताते हैं कि इस दृष्टिमान ब्रह्मांड का निर्माण करने वाली ईंटें असत् (not-Real) हैं, जब भी हम सत्य की खोज इस जगत् में करेंगे हमारे हाथ असत् ही लगेगा : इह जु दुनिआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥(कबीर जी, पृ -727) लेकिन वे हमें यह भी बता देते हैं कि इसी असत् में सत् पदार्थ भी प्रच्छन्न रूप से है और ऐसा कोई स्वरूप नहीं है जो श्याम का अर्थात प्रभु का स्वरूप नहीं है : हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥(वही) उस सत् वस्तु के ज्ञान के लिये ज्ञान-नेत्रों की आवश्यकता है, जब ऐसे नेत्र सुलभ हो जाते हैं तो सर्वत्र उस परमात्मा की उपस्थिति का ज्ञान हो जाता है : करि फकरु दाइम लाइ चसमें जह तह मऊजूद ॥(वही) लेकिन यदि कोई उस सद्वस्तु का वर्णन करना चाहेगा तो वह ऐसा नहीं कर पाएगा, क्योंकि वाणी आदि इंद्रियाँ तो माया हैं जबकि वह परमात्मा माया से बेदाग है : अलाह पाकं पाक है ……..॥(वही) उसके वर्णन के लिये तो ‘नेति-नेति’ ही कहना पड़ेगा। यदि इस असत् माया में उपस्थित सद्वस्तु के वर्णन के लिये ‘नेति-नेति’ की विधि ही युक्तियुक्त विधि है तो इस असत् माया के वर्णन के लिये भी सर्वश्रेष्ठ विधि ‘नेति-नेति’ ही होगी क्योंकि यह भी तो उसी सद्वस्तु का आभास ही है। जे. आर. ओपेनहीमेर जगत् के वर्णन के लिये ऐसी ही नकारात्मक शब्दावली का प्रयोग करते हैं : “If we ask, for instance, whether the position of the electron remains the same, we must say ‘no’; if we ask whether the electron’s position changes with time, we must say ‘no’; if we ask whether the electron is at rest, we must say ‘no’; if we ask whether it is in motion, we must ‘no’.”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe में उद्धरत, पृ -771)


हमने बार-बार लिखा है कि जिस भी संज्ञापद का प्रयोग प्रभु की चेतन शक्ति शब्द के लिये होगा, उसका प्रयोग बेझिझक रूप से प्रभु की जड़ शक्ति के लिये भी किया जा सकेगा लेकिन उसके अर्थ दोनों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न होंगे। यदि प्रभु की चेतन शक्ति का वर्णन ‘नेति-नेति’ विधि से होगा तो उसकी जड़ शक्ति का वर्णन भी ‘नेति-नेति’ विधि से ही होगा किन्तु प्रभु की चेतन शक्ति के लिये ‘नेति-नेति’ संज्ञा के प्रयोग का अर्थ है कि वह अपरोक्षानुभूति का विषय है जबकि प्रभु की जड़ शक्ति के लिये ‘नेति-नेति’ संज्ञा के प्रयोग का अर्थ है कि वह मृग-मरीचिका मात्र है। वेदान्त की भ्रमवादी संकल्पना से सुर में सुर मिलाकर सर आर्थर ऐडिंगटिन लिखते हैं : In the world of physics, we watch a shadowgraph performance of familiar life. The shadow of my elbow rests on the shadow table as the shadow ink flows over the shadow paper ………. The frank realization that physical science is concerned with a world of shadows is one of the most significant of recent advances.”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe में उद्धरत, पृ -771)


(शेष आगे)

 

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