Kabeer Ji writes, "O siblings of destiny! do not wander deluded by doubt. The Creator is in the creation and the creation is in the Creator, totally pervading and permeating all places."
The doubt makes us captive in two forms. First, we assume that we are separate from the Lord and He lives in a remote place. Second, we count on this world to bail us out. But the question is, how these doubts assail us? Where from they are born? Read Karta Purush 10 to know the answer.
आदि ग्रंथ में कबीर जी लिखते हैं :
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥ खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥
हे लोगो! हे भाई! किसी भ्रम में मत पड़ो। जगत् की रचना करने वाला रचयिता रचना में है और रचना रचयिता में है, वह परमात्मा सब स्थानों पर भरपूर हो रहा है।भ्रम के दो बड़े रूप हैं। पहला, यह अज्ञानता कि ‘मैं परमात्मा से भिन्न हूँ’। यह अज्ञानता इस विचार में परिणत होती है कि परमात्मा तो दूरस्थ सत्ता है जबकि हम जीव यहाँ अकेले हैं। दूसरा, यह मोह कि घर, परिवार, जाति, देश, धन, सत्ता आदि मेरे अपने हैं। भ्रम के पहले रूप को माया कहा गया है और भ्रम के दूसरे रूप को मोह कहा गया है।माया’ अज्ञानता है, अज्ञानम् । ‘माया’ के भ्रम में पड़ कर जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है। मोह के भ्रम में पड़ कर जीव की प्रीति घर-परिवार से लग जाती है।इन भ्रमों की सृष्टि कैसे होती है? इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 10.

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(हम सत्य स्वरूप परमात्मा सति, उसकी सत्ता नाम, उसकी आध्यात्मिक व त्रिगुणात्मिक -दो प्रकार की शक्तियों व जीवों के बीच संबंधों के सांगोपांग विवेचन के क्रम में आदिग्रंथ में संकलित भक्त कबीर जी के 'अवलि अलह नूरु उपाइआ' शब्द का अध्ययन कर रहे हैं। उस क्रम में अब आगे)
‘रहाउ’ की पंक्ति में कबीर जी लिखते हैं :
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥1॥ रहाउ॥
‘हे लोगो! हे भाई! किसी भ्रम में मत पड़ो। जगत् की रचना करने वाला रचयिता रचना में है और रचना रचयिता में है, वह परमात्मा सब स्थानों पर भरपूर हो रहा है।’ भक्त कबीर द्वारा प्रयुक्त ‘खालिक’ और ‘खलक’ पदों के बाणी में प्रयुक्त निकटतम पर्याय क्रमशः ‘कादर/नाम/शिव’ और ‘कुदरत/शब्द/शक्ति’ हैं। अतएव जब कबीर जी ने कहा कि ‘खालिक खलक में है’ और ‘खलक खालिक में है’ तो इसका आशय है कि ‘कादर कुदरत में है’ और ‘कुदरत कादर में है’, और ये दोनों वक्तव्य जगत् की पारमार्थिक (metaphysical) कोटि के सत्य को इंगित करते हैं। इस सत्य के विपरीत जगत् का व्यावहारिक (empirical) कोटि का सत्य भी है जहां भ्रम की गुंजाइश हो जाती है। यह अंतर क्या है? और क्यों है? इसे जानने के लिये जिस तत्त्वमीमांसा को अब तक हमने समझा है उसे यहां संक्षेप में फिर से समझ लेना आवश्यक होगा। सर्वप्रथम ਓੱ है जो परमसद्वस्तु है लेकिन शाश्वत रूप से रहस्यमय है। दूसरा सति है, यह भी परमसद्वस्तु है और परमधाम सचखंड में सदा विराजमान है। सति ही जगत् की सब सत्ताओं का मूल और सबकी पूजनीय भगवद्सत्ता है। तीसरा नाम है, यह सति की स्थिर, अडोल चेतना है जो सचखंड से नीचे करमखंड में शाश्वत रूप से विराजमान है और सति के जगत् रचना के संकल्प से जगत् में उतरती है। इस प्रकार जगत् के संदर्भ में हमारे पास दो सत्ताएं प्राप्त होती हैं - सति व नाम । गीता में इन दोनों को क्रमशः उत्तम पुरुष व अक्षर पुरुष कहा गया है। तीसरा तत्त्व शब्द है जो सति की ही गतिशील चेतना है। शब्द से ही काल की समस्त गति व वैश्विक कर्म का सूत्रपात होता है। लेकिन शब्द इसे स्वेच्छा से नहीं करता। शब्द के समस्त कर्म का प्रवर्त्तन नाम से होता है, वह कर्म की अनुमति देता है, अतः नाम अनुमंता व प्रवर्त्तक है; नाम इस समस्त गति को आधार प्रदान करता है, इस आधार से उत्पन्न स्थायित्व के बिना शब्द की असाधारण गति सृष्टि की रचना नहीं कर सकती, अतः नाम सृष्टि की समस्त गति को धारण किए रहता है; वह शब्द के कर्म का साक्षी है; यह समस्त कर्म उसके लिए है, यह उसका आनंद-साधन है, इसलिए वह भोक्ता है, भोगणहार ; वह शब्द को नियंत्रण में रखने वाली सत्ता है, हुकम ; वह ज्ञानस्वरूपी है, अपनी शक्ति को जानता है, उसमें आसीन है, उसके संकल्प का स्वामी है। सति, नाम व शब्द के बीच में संबंध गीता में उल्लिखित पुरुषोत्तम, अक्षर पुरुष व क्षर पुरुष, जिसे पराप्रकृति भी कहा गया है, के समान हैं। इस प्रकार जगत् के संदर्भ में हमारे पास तीन सत्ताएं प्राप्त होती हैं। ये तीनों आध्यात्मिक व वैश्विक तत्त्व हैं। इन तीनों में भी सति जगत् से परात्पर (transcendent) है जबकि नाम और शब्द जगत् में अंतःस्थ (immanent) हैं। नाम और शब्द में शब्द जगत् रूप अधिवास है जबकि नाम इसमें निवासी है। दूसरी ओर शब्द नाम में उसी प्रकार अंतर्लीन है जैसे सागर की लवणता सागर में लीन होती है। जगत् और परमात्मा के इसी संबंध को भक्त कबीर ने यहाँ ‘खालिक खलक में है’ और ‘खलक खालिक में है’ -ऐसे कहा है। कठोपनिषद की श्रुति कहती है :
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञचागन्यो ये च त्रिणाचिकेता ।।(1.3.1)
'सुंदर रीति से निर्मित जगत में सत्य का पान करने वाले दो हैं, उनका निवास परम परार्ध में गुप्त स्थान पर है। ब्रह्मविद् उन्हें छाया और आतप की भांति परस्पर भिन्न बताते हैं और जो नाचिकेत अग्नि का चयन करने वाले और पंचाग्नि संपन्न गृहस्थ हैं वे भी ऐसा कहते हैं।' जगत् को ‘सुकृत’ (well made) कहा गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् (2.7.1) में भी ऐसा ही कहा गया है। जगत् को ‘सुकृत’ कहने से पता चलता है कि यहां जगत् के उस पक्ष की ओर संकेत है जिसका स्वरूप पारमार्थिक है। जगत् के इसी स्वरूप को शक्ति/कुदरत/पराप्रकृति/शब्द आदि कहा गया है जिसकी रचना शिव/कादर/अक्षर ब्रह्म/नाम द्वारा की गई है। जगत का यह रूप ब्रह्म का अपना स्वभाव (self becoming) है, यह उसकी आत्म-अभिव्यक्ति है और यह अभिव्यक्ति बहुत सुंदर, 'सुकृत' है। जगत के इस रूप में ब्रह्म व उसकी परम प्रकृति जिन्हें आदिग्रंथ में क्रमशः नाम व शब्द कहा गया है, दोनों सत्य का आनंद लेते हैं। किंतु जगत का यह रूप और उसमें सत्य का पान करने वाली दोनों सत्ताएं 'परम परार्ध' में गुप्त रूप से निवास कर रही हैं। भारतीय गणित विद्या के अनुसार ‘परार्ध’ उच्चतम गणनीय संख्या है जिसमें 1 के बाद 17 ज़ीरो आती हैं। 'परम परार्ध' का अर्थ है 'उससे भी परे'। अर्थात ऋषि जगत के उस पक्ष की बात कर रहा है जो हमारी कल्पना और बुद्धि से बिल्कुल परे है। कादर/अक्षर ब्रह्म/नाम/शिव और कुदरत/पराप्रकृति/शब्द/शक्ति -दोनों सत्य के भोक्ता हैं अर्थात सच रूप हैं लेकिन छाया और धूप के समान विरोधी स्वभाव वाले हैं। सतिनाम अध्याय में हम पढ़ चुके हैं कि यह विरोध निवृत्ति व प्रवृत्ति, स्थिरता व गति, अकाल व काल, निराकार व आकार, अक्षर व क्षर इत्यादि का है।
दूसरी ओर जगत का एक व्यावहारिक (empirical) पक्ष भी है। जगत के इस पक्ष के लक्षणों के बारे में लिखते हुए पांचवें गुरू अर्जुन देव जी लिखते हैं :
जह आपि रचिउ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥
पाप पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥
आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥
दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीउ बखान ॥(5-290)
जगत का यह रूप माया के तीन गुणों के मध्य उत्थान-पत्न का अनवरत खेल है जो जीव के लिए हउमै, मोह, भ्रम व भय में, माया के जंजालों में, पाप-पुण्य में और उनके कारण दुख-सुख, नर्क-स्वर्ग व मान-अपमान आदि में अनूदित होता है। सृष्टि का यह खेल चेतना व जड़त्व के मध्य खेला जाता है। इसके लिए बहुलता, पृथकत्व, व्यक्तिगत वैशिष्ट्य, सीमितता, सांतता की उपस्थिति और साथ ही, धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो, सीमितता व सांतता को जय करके अनंतता में प्रवेश करने की संभावना अति आवश्यक है। ये समस्त तथ्य उन दो तत्त्वों से संभव होते हैं जिन्हें आदिग्रंथ में जीवात्मा व माया कहा गया है। इन्हीं दोनों के युग्म को भगवद्गीता में जीव व अपरा प्रकृति कहा गया है, जबकि सांख्य दर्शन में पुरुष व प्रकृति कहा गया है। सांख्य के पुरुष के समान ही जीवात्माएं अनेक हैं, और वे चेतन, अकर्ता, अक्षय व अविकारी हैं। दूसरी ओर सांख्य की प्रकृति के समान ही त्रैगुणात्मिका माया स्वयं जड़ है किंतु पुरुष के सान्निध्य से सचेतन हो जाती है। चेतन आत्मा में आभासित होने पर ही त्रैगुणी जड़ माया अपने कर्म में चैतन्य का रूप धारण करती है और इस प्रकार जन्म, जीवन, अज्ञान, कर्म और अकर्म, दुख, सुख ये सब घटनाएं उत्पन्न होती हैं और आत्मा सुख-दुख, जन्म-मरण, हानि-लाभ के समस्त द्वैत को अनुभव करती है। जीवात्मा व त्रैगुणी माया, इन दोनों के मेल से सृष्टि की वह सारी क्रीड़ा होती है जो हमारे नित्यप्रति के अनुभव की वस्तु है। इस प्रकार हमारे पास पांच सत्ताएं प्राप्त होती हैं - सति, नाम, शब्द, जीवात्मा व त्रैगुणी माया। इनमें सति या भगवद्गीतोक्त पुरुषोत्तम जगत् से परे सचखंड में विराजमान है जबकि शेष चारों का निवास जगत् में है। आदिग्रंथ में जगत् में इन चारों की उपस्थिति व इनके कारण जगत् की दोहरी अवस्था की स्वीकृति निम्नलिखित पंक्तियों में है :
जह देखा तह रव रहे सिव सकति का मेलु ॥
त्रिह गुण बंधी देहुरी जो आइआ जगि सो खेलु ॥(1-20)
'जिधर देखता हूं शिव-शक्ति का जोड़ा ही आनंदमग्न दिखाई पड़ता है किंतु देहस्थ आत्मा, देहुरी, माया के तीन गुणों के बंधन में है, अतः जो भी इस त्रैगुणी जगत् में आया वह माया के खेल में मग्न रहता है।' इस प्रकार यह जगत् एक ओर शिव-शक्ति का मेल है तो दूसरी ओर देहस्थ आत्मा व त्रैगुणी माया का खेल है। ध्यान रहे कि शक्ति शिव की है, यह शिव से है और उस पर आश्रित है। दूसरी ओर सांख्य दर्शन वाली त्रिगुणात्मिका माया भी शिव की ही शक्ति है। यह जीव की शक्ति नहीं है और उससे स्वतंत्र है। मन, बुद्धि, इंद्रियां आदि जीव की इच्छा से नहीं चलतीं, उन्हें हमारी कोई परवाह नहीं है, वे केवल प्रभु की इच्छा का पालन करती हैं, हां, उन्हें पता नहीं है कि वे किसकी इच्छा से प्रवृत्त होती हैं। शिव की पराशक्ति जगत का मूल है और अपने परिणामों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है जबकि उसकी अपरा शक्ति उस मूल का विकास (evolute) है और यही विकसित रूप हमारे सामने अभिव्यक्त होता है। जगत का मूल दिव्य है और सदा-सदा दिव्य है; इस मूल का विकास अपने मूल के विपरीत अदिव्य है, हां, यदि जीवात्मा आत्मसंयम और प्रभु के शब्द के अभ्यास द्वारा मूल को संभाल ले, उसे जान ले तो इस अदिव्य प्रकृति में भी दिव्यता का स्पर्श आ जाता है :
आतम उपदेश भेसु संजम को जापु सु अजपा जापे ॥
सदा रहै कंचन सी काया काल न कबहूँ बयापे ॥ (दशम ग्रंथ, रामकली)
इन परस्पर विरोधी स्वभाव वाले जगत के दोनों रूपों के बीच की कड़ी प्रभु की अपनी चेतन शक्ति है। यह शक्ति एक ओर प्रभु से संयुक्त और उसकी यथार्थ स्थिति में विद्यमान रहती है, दूसरी ओर यह तीन गुणों वाली माया को उत्पन्न करती है। यह माया अंधकार रूप है और भ्रम व बंधन को पैदा करती है।
भक्त कबीर जी लिखते हैं, “‘हे लोगो! हे भाई! किसी भ्रम में मत पड़ो।” भ्रम क्या है? यह प्रश्न अत्यंत जटिल है और इसकी विस्तृत विवेचना अन्यत्र यथास्थान की गई है। यहाँ पर इतना ही कहा जा सकता है कि भ्रम के दो बड़े रूप हैं। पहला, यह अज्ञानता कि ‘मैं परमात्मा से भिन्न हूँ’। यह अज्ञानता इस विचार में परिणत होती है कि परमात्मा तो दूरस्थ सत्ता है जबकि हम जीव यहाँ अकेले हैं। दूसरा, यह मोह कि घर, परिवार, जाति, देश, धन, सत्ता आदि मेरे अपने हैं। गुरुघर की बाणी है :
हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई ॥
माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई॥(सवैये महले चौथे के कवि बल्य -1406)
‘माया’ अज्ञानता है, अज्ञानम् । ‘माया’ के भ्रम में पड़ कर जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है, माया……भरम पै भूले । ‘मोह’ इस मूल रोग से उत्पन्न भ्रम का दूसरा रूप है। मोह के भ्रम में पड़ कर जीव की प्रीति घर-परिवार से लग जाती है, मोह भरम पै…….सुत दारा सिउ प्रीति लगाई । भ्रम के ये दोनों रूप जीव के नैतिक ताने-बाने को तहस-नहस कर देते हैं जिससे समस्त बंधन और दुख पैदा होते हैं। इन भ्रमों की सृष्टि कैसे होती है? श्री गुरु तेग बहादुर लिखते हैं :
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई।।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजो भाई।। (9-684)
हरि अंत:स्थ हैं, इस सत्य को सिद्ध करने के लिए आपने दो उदाहरणें दी हैं। किंतु ये दोनों उदाहरणें परमात्मा के शब्द स्वरूप के बारे में बताती हैं। साथ ही, ये दोनों उदाहरणें उन दो विधियों को दर्शाती हैं जो प्रभु की शक्ति शब्द ने प्रभु की सत्ता नाम और उसकी अपरा शक्ति माया के साथ रहने के लिए निर्धारित की हैं। प्रभु की शक्ति शब्द का प्रभु की सत्ता नाम के साथ वही संबंध है जो पुष्प व सुगंध का होता है। जैसे सुगंध पुष्प में निवास करती है और पुष्प के आश्रित रहते हुए उससे निकल कर चारों और बिखर जाती है वैसे ही शब्द नाम में लीन रहता है और प्रभु की इच्छा के अनुसार उससे उत्पन्न होकर चारों और पसर जाता है। श्री आर के काव अपनी पुस्तक The Doctrine of Recognition में लिखते हैं कि 'पसारा, प्रसर:, प्रसृत आदि का अर्थ चारों ओर फैल जाना ही नहीं है। यह प्रभुशक्ति का स्वत: स्फुर्त (spontaneous), अबाधित (unrestricted) प्रवाह है।' प्रभु की शक्ति प्रभु का अपना रूप, उसकी उन्मुक्त व निरपेक्ष संप्रभुता, उसका स्वातंत्र्य (free will) है जो उसके संकल्पों को मूर्तिमान करती है। यह स्वतंत्र व निरपेक्ष है क्योंकि यह किसी पर आश्रित नहीं, किसी भी वस्तु को उत्पन्न करने, रूप को निर्मित करने में सक्षम है। यह काल, दिक्, कारणता आदि से परे है और उन्हें जन्म देने वाली सत्ता है। चूंकि शब्द-शक्ति का यह प्रसरण ही जगत का पसारा बनता है और यह शक्ति प्रभु के दिव्य संकल्प की निरंकुश अभिव्यक्ति है, इसलिए कश्मीरी शैव-दर्शन में जगत रचना को ‘स्वातंत्र्यवाद’ कहा गया है। किंतु जगत का यह स्वरूप हमारे अस्तित्व के परम आकाश, 'परम परार्धे', में है। दूसरी ओर यह प्रभुशक्ति अस्तित्व के अपर आकाश में, 'अपरार्धे', माया के साथ ऐसे रहती है जैसे दर्पण में कोई आभास हो, इसीलिए कश्मीरी शैव-दर्शन में जगत रचना को ‘आभासवाद’ कहा जाता है। सुधी पाठक समझ सकते हैं कि कादर/अक्षर ब्रह्म/नाम/शिव और कुदरत/पराप्रकृति/शब्द/शक्ति के बीच जिन संबंधों का संप्रेषण पुष्प और सुगंध के उदाहरण द्वारा हो रहा है उन्हीं संबंधों का संप्रेषण आदिग्रंथ की वाणी में अन्यत्र दिए गए ज्योति (lamp) और ज्योत्स्ना (light), सूर्य और किरण की उदाहरणों से भी होता है :
आपे सूरु किरणि बिसथारु।।(5-387)
सभ महि जोति जोति है सोई।।
तिस दै चानणु सभ महि चानणु होई।।(1-13)
दूसरी ओर प्रभु का दर्पण में आभासित होने वाला उदाहरण नया है और हमारे प्रस्तुत संदर्भ में इसका विस्तृत अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
'आभास' पद के कई अर्थ हैं, जैसे - प्रतिबिंब (reflection), प्रतीति (appearance), प्रकाश या दीप्ति (light, lustre), भ्रम (fallacy) आदि। जब हम 'आभास' पद को बहुवचन में लेंगे तो इसका अर्थ 'भ्रम' होगा लेकिन जब हम इसे एकवचन में लेंगे तो इसका अर्थ प्रतिबिंब या दीप्ति होगा। हमारे प्रस्तुत संदर्भ में इसे एकवचन में ही लिया जायेगा क्योंकि प्रभु की पराशक्ति एक है तो अपराशक्ति भी एक है। हमने कहा कि प्रभुशक्ति माया के साथ ऐसे रहती है जैसे दर्पण में कोई आभास हो। इसका अर्थ हुआ कि त्रिगुणात्मिका शक्ति प्रभुशक्ति का आभास है। अब हम जानते हैं कि जिस संज्ञा का प्रयोग त्रिगुणात्मिका शक्ति के लिए किया जायेगा उसी संज्ञा का प्रयोग प्रभु शक्ति के लिए भी किया जा सकता है यद्यपि उस संज्ञा के अर्थ दोनों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न हो जाएंगे। अतएव त्रिगुणात्मिका शक्ति पराशक्ति का आभास है तो पराशक्ति शिव का आभास है। किंतु जब हम प्रभु की पराशक्ति को शिव का आभास करेंगे तो इसका अर्थ ज्योति या दीप्ति होगा, 'आसमन्तात् भासते इति आभास:' (illuminating in all sides, the pure light)। दूसरी ओर जब हम त्रिगुणात्मिका शक्ति को प्रभु की पराशक्ति का आभास कहेंगे तो इसका अर्थ प्रतिबिंब या परछाई (reflection) होगा। त्रैगुणात्मिका माया को परमात्मा की परछाई बाणी में और भी कई स्थानों पर कहा गया है, यथा :
रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥(1-1037)
महा माइआ ता की है छाइआ ॥(5-868)
जब हम अपने आप को दर्पण में देखते हैं तब दर्पण में निर्मित होने वाले दर्पण प्रतिबिंब में हमारे शरीर का दायाँ भाग बाईं ओर तथा हमारा बायाँ भाग दाईं ओर होता है। इसी प्रकार जब किसी आकृति का जल में प्रतिबिंब बनता है तो उस जल प्रतिबिंब में आकृति का ऊपर का भाग नीचे तथा नीचे का भाग ऊपर दिखता है। दूसरे, प्रतिबिंब सदैव मूल आकृति के गुणों, लक्षणों को सच्चाई से दिखाता है, किन्तु यह दिखाना ‘प्रतीति’ (appearance) मात्र है अर्थात ऐसा केवल प्रतीत होता है कि मूल आकृति अपने समस्त लक्षणों सहित प्रतिबिंब में विद्यमान है, वास्तव में वह वहाँ नहीं है। प्रतिबिंब के ये दो नियम प्रभु की पराशक्ति और उसकी अपराशक्ति के बीच के संबंधों को समझने की कुंजी है। प्रभु की पराशक्ति सत् है, उसकी अपराशक्ति मिथ्या है; प्रभु की पराशक्ति चित् अथवा चेतन है, उसकी अपराशक्ति जड़ है; प्रभु की पराशक्ति आनंद है, उसकी अपराशक्ति दुख रूप है; प्रभु की पराशक्ति प्रकाश अथवा ज्ञानरूप है, उसकी अपराशक्ति अंधकार अथवा अज्ञानरूप है। जिस किसी मनुष्य ने प्रभु की अपराशक्ति को यत्नपूर्वक पकड़ा, उसने यही पाया कि यह उसके हाथ नहीं आई, इस माया की प्रीत निभती नहीं :
गहु करि पकरी न आई हाथि ॥ प्रीति करी चाली नही साथि ॥(5-891)
दूसरी ओर जिस किसी मनुष्य ने प्रभु की पराशक्ति से चित्त को जोड़ा, उसका प्रेम स्थाई सिद्ध हुआ :
सेवक की ओड़कि निबही प्रीति ॥
जीवत साहिबु सेविउ अपना चलते राखिउ चीति ॥(5-1000)
प्रभु की पराशक्ति प्रभु का निज प्रेम है, जिस हृदय में इसका निवास होता है वह प्रभु के प्रेम से भरपूर व शील, उत्तम आचरण जैसे गुणों से संपन्न हो जाता है :
निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥(5-371)
दूसरी ओर प्रभु ने अपराशक्ति का निर्माण कर मानों एक ऐसी स्त्री को उत्पन्न कर दिया जिसके मस्तक पर सदा त्योरी पड़ी रहती है, जिसकी दृष्टि में क्रूरता है, जिसकी वाणी कड़ुवाहट से भरी हुई रहती है और जिसके बोलने का ढंग अशिष्ट है :
माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि ॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि ॥
सदा भूखी पिरु जानै दूरि ॥ ऐसी इसत्री इक रामि उपाई ॥
उनि सभु जगु खाइआ हम गुरि राखे मेरे भाई ॥(5-394)
प्रभु की पराशक्ति प्रभु का ऐश्वर्य है और यह जीव की समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली मानों चिंतामणि है :
इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥(5-371)
दूसरी ओर माया निस्सार, छूछी, है, जो माया को माँगता है वह सदा भूखा, अतृप्त रहता है :
जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥(5-891)
प्रभु की पराशक्ति एक ऐसी खेती के समान है जिसके लिये संतों की संगति मानों जल है जिसे पाकर यह और भी लहलहाने लगती है :
करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥
गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥(5-371)
दूसरी ओर प्रभु की अपराशक्ति ऐसी खेती है जिसके लिए संतों की संगति मानों सूर्य की चिलचिलाती धूप है जिसके तेज से यह सूखने, मुरझाने लगती है :
इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥(5-891)
लेकिन जैसा कि अभी पहले हमने देखा है प्रभु की अपराशक्ति उसकी पराशक्ति से केवल विपरीत स्वभाव वाली ही नहीं है, इसमें पराशक्ति के समस्त गुणों की प्रतीति (appearance) उत्पन्न करने और जीव को भ्रमित करने की क्षमता भी है। प्रभु की पराशक्ति सत् है, इससे उत्पन्न होने वाली अपराशक्ति भी जीवों को सत् व सारवान् प्रतीत होती है जबकि वस्तुतः यह मिथ्या (nothingness) व निस्सार है :
छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥ लिखिआ किरतु धुरे परवाना ॥
छीजै जोबनु जरूआ सिरि कालु ॥ काइआ छीजै भई सिबालु ॥(1-929)
प्रभु की पराशक्ति प्रभु का निज बल है, यह किसी भी वस्तु को उत्पन्न करने, रूप को निर्मित करने में सक्षम है। प्रभु की अपराशक्ति के बारे में भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह अत्यंत बलशाली है :
सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥
जिनि ब्रह्म बिसनु महादेउ छलीआ ॥(कबीर जी - 480)
लेकिन असल में यह अत्यंत निर्बल है :
स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥ स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥(वही)
प्रभु की पराशक्ति आनंद रूप है। प्रभु की अपराशक्ति भी सुखप्रद व आनंदरूप प्रतीत होती है लेकिन वास्तव में यह दुखरूप है। जीवों द्वारा माया में सुख की खोज करने की तुलना श्वान द्वारा तृप्ति की आशा से हड्डी को चबाने से की गई है, उसे हड्डी से तो कुछ प्राप्त नहीं होता लेकिन उसके कारण अपने ही मुख से निकलते रक्त को पी कर उसे सुख का आभास होता है। माया मानों बिना दांतों के ही समस्त जगत को खा लेती है, जीव इसका आखेट बनते हैं, अपार दुख भोगते हैं लेकिन कोई शिकायत नहीं करते अपितु इसी से प्यार करते हैं : माइआ ममता मोहणी जिनि विणु दंता जगु खाइया ॥(3-643)
कबीर जी ने लिखा, ‘हे लोगो! हे भाई! किसी भ्रम में मत पड़ो। जगत् की रचना करने वाला रचयिता रचना में है और रचना रचयिता में है, वह परमात्मा सब स्थानों पर भरपूर हो रहा है।’ ‘रचयिता रचना में है और रचना रचयिता में है’, यह सत्य हमारा नहीं है, यह कबीर जी द्वारा अनुभूत सत्य है। हमारे लिए रचना का सत्य भूख, अभाव, रोग, निर्बलता, मृत्यु आदि के एक के बाद एक होने वाले अनुभव हैं जिनमें बीच-बीच में सुख की बूंदें भी इधर-उधर बिखरी हुई रहती हैं। हम जान चुके हैं कि अनुभव के ये दोनों रूप परमात्मा की दो शक्तियों - परा और अपरा - के कारण हैं जिनमें से पराशक्ति हमारे अस्तित्व के परम आकाश, कठोपनिषद के शब्दों में ‘परम परार्धे’, में है जिसके अनुकरण में हमने यह कहा कि अपराशक्ति हमारे अस्तित्व के निम्न आकाश, ‘अपरार्धे’, में है। यदि हम ‘परम परार्धे’ अभिव्यक्ति को आदिग्रंथ की सरल और साधनात्मक भाषा में अनूदित करें तो कहेंगे कि परमात्मा की पराशक्ति हमारे भ्रूमध्य में है। जगत की प्रकृति के संबंध में समस्त भ्रम व भ्रांति तभी तक है जब तक हमारी चेतन भ्रूमध्य से नीचे है और संसार में बर्हिमुखी हो रही है। ज्यों ही हमारा ध्यान भ्रू-मध्य में एकाग्र होता है, अनेकता का भ्रम नष्ट हो जाता है :
जह देखा तह पिरु है भाई ॥ खोल्हिओ कपाटु ता मनु ठहराई ॥(5-738)
इसका अर्थ यह नहीं है कि भ्रूमध्य से नीचे हमारे सामान्य अनुभव वाले जगत में यह पराशक्ति नहीं है, यह यहाँ भी है किन्तु यहाँ हमारा निवास अपराशक्ति में है जो अंधकार रूप है, अज्ञानम्, इसे पराशक्ति का ज्ञान नहीं है जिससे हम जीव भी इसके प्रति अचेत व गाफिल रहते हैं, मानों यह है ही नहीं, इसी कारण से यहाँ परमात्मा की अपराशक्ति का एकछत्र साम्राज्य है। जब हम चेतना को भ्रूमध्य में एकाग्र कर लेते हैं तो हम निजस्वरूप में आसीन होने की ओर अग्रसर होते हैं, बाणी के अनुसार तब हम ‘घर’ में तो नहीं, हाँ, घर के द्वार, ‘दर’ पर होते हैं जिससे हमें जगत के एक ऐसे यथार्थ का साक्षात्कार होता है जिसका प्रत्येक अनुभव सत्य, शिव और सुंदर है। निस्संदेह परमात्मा की अपराशक्ति वहाँ भी है, किन्तु वहाँ परमात्मा की पराशक्ति की प्रत्यक्ष उपस्थिति के कारण यह अपराशक्ति न केवल गौण हो जाती है अपितु पराशक्ति के सान्निध्य से यह शुद्ध व निर्मल भी हो जाती है। ध्यान रहे कि कठोपनिषद की श्रुति के अनुसार परम परार्द्ध में, अर्थात भ्रूमध्य में परमात्मा की शक्ति व सत्ता अर्थात नाम और शब्द दोनों हैं जबकि बाणी के अनुसार नाम त्रिलोकी से परे करमखंड में ही प्राप्त होता है, त्रिलोकी में नाम गुप्त है जबकि शब्द प्रकट है। इस विरोधाभास का कारण यह है कि परमात्मा की पराशक्ति या शब्द ज्ञान रूप है, इसे ज्ञान है कि वह सदैव प्रभु की उपस्थिति में है, प्रभु उसे देख रहे हैं और उसके माध्यम से सृष्टि का समस्त कार्य कर रहे हैं। जब मुमुक्षु इस पराशक्ति से संयुक्त हो जाता है तो उसे भी यह ज्ञान हो जाता है कि यद्यपि वह प्रभु को नहीं देख पा रहा है तथापि प्रभु उसे सदैव देखते हैं, वह सदैव उनकी उपस्थिति में है, उसके माध्यम से प्रभु ही समस्त कर्म कर रहे हैं और उसे सुख-दुख के सभी अनुभव प्रभु की इच्छा से हो रहे हैं : है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥(1-352)
रहाउ की पंक्ति में जगत के इदम् पक्ष का वर्णन करते हुए नाम-रूप (name and form) में ढलने वाली जड़ शक्ति, इस जड़ शक्ति को उत्पन्न करके इसमें तत्त्व रूप से व्याप्त हो रही प्रभु की चेतन शक्ति और इसके परमतत्त्व परमात्मा का वर्णन करने के पश्चात भक्त कबीर जी अब अगली पंक्ति में जगत के अहम् पक्ष का वर्णन करते हैं।
(लेकिन उसका अध्ययन आगे किया जायेगा।)
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