Sat Naam and Karta Purush are two foundational principles in the Adi Granth. The concept of the Sat Naam dwells into the idea of the Lord in His unrelational form. It tells us, 'What is the Lord'. The concept of the Karta Purush conveys the idea of the Lord in His relationship with the world. It tells us, 'What is the relationship between the Lord and the world. Sat is Karta of the world whereas Naam dwells in the world. Thus, Sat Naam and Karta Purush are two mirror image concepts. We have already studied the concept of the Sat Naam. Now, we start the study of the Karta Purush and this is the first part of our journey.
गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं : सचु नामु करता पुरखु एह रतना खाणी ॥(5-319) ‘सचु नामु’ से आशय ‘सतिनाम’ है जबकि ‘करता पुरखु’ से अभिप्राय ‘कर्तापुरुष’ है। आपका अभिप्राय है कि 'सत् नाम' और 'कर्ता पुरुष' यह दोनों रत्नों की खान हैं। बाणी में परमात्मा के लिये प्रयोग किया गया मूलभूत प्रत्यय ‘सतिनाम’ है, यह प्रत्यय ब्रह्म का शुद्ध सत्ता के रूप में आख्यान करता है अर्थात इसके माध्यम से बताया गया है कि परमात्मा क्या है। दूसरी ओर ‘कर्तापुरुष’ पद परमात्मा का रचना से संबंध बताता है। 'सति' जगत का कर्ता है और 'नाम' पुरुष है अर्थात जगतपुरी के पोर-पोर में समाया हुआ है। इस तरह ‘सतिनाम’ व ‘कर्तापुरुष’ समास एक-दूसरे की दर्पण प्रतिच्छवि (mirror image) हैं। सत् नाम का अध्ययन किया जा चुका है अब कर्ता पुरुष का अध्ययन शुरू किया जाएगा और यह उसकी पहली कड़ी है।

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मनुष्य एक विचारशील प्राणी है। युगों-युगों से मनुष्य आश्चर्यजनक सांसारिक दृश्यों को देख-देख कर विचार करता चला आया है कि इस संसार को किसने बनाया? किस तरह बनाया? कब बनाया? संसार का स्वरूप कैसा है? इसे कौन चला रहा है? इत्यादि। 'करता' (कर्ता) व 'पुरखु' (पुरुष) दो स्वतंत्र शब्दों के मेल से बना मूलमंत्र का चौथा समास करतापुरखु (कर्तापुरुष) इन्हीं प्रश्नों के उत्तर देता है। ‘कर्ता’ संस्कृत के ‘करत्री’ पद से बना है। इसके अर्थ हैं - करने वाला, रचने वाला। आदिग्रंथ में यह पद सृष्टि के रचयिता परमात्मा के अर्थों में आया है, यथा : करते की मिति न जानै कीआ ॥(5-285) गुरु रामदास लिखते हैं :
तूँ करता सचिआरु मैडा साईं ॥
जो तउ भावै सोई थीसी जो तूँ देहि सोई हउ पाई ॥ रहाउ ॥
सभ तेरी तूँ सभनी धिआइया ॥ जिस नो कृपा करहि तिनि नाम रतनु पाइया॥
गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइया ॥ तुधु आपि विछोड़िया आपि मिलाइया ॥1॥
तूँ दरिआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥
जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ वीजोगि मिलि विछुड़िया संजोगी मेलु ॥2॥
जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥
जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइया ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥3॥
तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥
तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥4॥(4-11)
इस शब्द में सत्यस्वरूप परमात्मा सति 'सचिआरु' की स्तुति की गई है। सत्यस्वरूप परमात्मा सति को वैदिक साहित्य में ‘तत्’, जिसका अर्थ ‘वह’ है, कहा गया है, ऐसा हम जानते हैं। बाणी में भी सति के लिये तृतीयपुरुष सर्वनाम ‘ओहु’ अर्थात ‘वह’ आया है। लेकिन, जैसा कि हम इस शब्द में देख सकते हैं, प्रेम व अपनत्व के चलते सति को ‘तू’, ‘तउ’ (तुम्हें), ‘तेरी’, ‘तुधु’, ‘तुझ’, ‘तेरा’ कहकर भी संबोधित किया गया है। सति समस्त जड़-चेतन सृष्टि का कर्ता है और सबका स्वामी है। सृष्टि में वही होता है जो उसे अच्छा लगता है। हम जीवों को वही प्राप्त होता है जो वह हमें देता है। सारी सृष्टि उसकी कृति है। हम कृत हैं, वह कर्ता है। लेकिन सति सृष्टि का ऐसा कर्ता नहीं है जैसे मूर्तिकार मूर्ति का कर्ता है जिसमें मूर्ति भिन्न है और मूर्तिकार भिन्न है। सति अपनी रची हुई सृष्टि से भिन्न नहीं है। सृष्टि के सभी रूपों में वह सति ही रूपायमान हुआ है, इसकी सभी गतियों में वही गतिमान हो रहा है। अतः वह एक परमात्मा सदा ही सबको प्राप्त है, सभ तेरी तूँ सभनी धिआइया, वह सहज रूप से सभी के ज्ञान व ध्यान का विषय है। भगवद्गीता में श्रीभगवान् कहते हैं :
ये अपि अन्यदेवता: भक्ता: यजन्ते श्रद्धया अन्विता: ॥
ते अपि मामेव कौन्तेय यजन्ति अविधिपूर्वकम् ॥(9-23)
‘हे कुंतीनन्दन! जो भक्त श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं पर उनकी वे पूजा अविधिपूर्वक होती है।’ यहाँ पर ‘देवता’ और ‘यज्ञ’ दो पद ध्यान देने योग्य हैं। ‘प्रकृति में उपस्थित शक्ति’ को ‘देवता’ कहा जाता है। प्रकृति में ऐसा कोई भी प्राणी व पदार्थ नहीं है जो अपने आप में विलक्षण व विशेष हो जिससे वह हमारे लिये इष्ट बन सके। प्रकृति में उपस्थित शक्तियों अर्थात देवताओं के कारण ही संसारमात्र की सजीव-निर्जीव वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया हमें हमारे प्रेम के योग्य दीखती है और वह हमारी इष्ट बन जाती है। किन्तु ये अनेक देवशक्तियाँ प्रभु की एक निजशक्ति की अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं। ‘यहाँ जो भी ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी और पदार्थ है वे सब प्रभु के अनंत तेज के एक अंश मात्र से उत्पन्न हुआ है।’(10.41) प्रभु के अनंत तेज को उपनिषदों में तैजस और आदिग्रंथ में नाम कहा गया है जबकि इस अनंत तेज के आंशिक रूप को आदिग्रंथ में शब्द कहा गया है। यह सारा जगत् शब्द का ही विलास है। प्रकृति में जहां भी, जिस किसी रूप में भी, जिस किसी के भी निमित्त, जितना भी ऐश्वर्य, सुख, शोभा, बल आदि उपस्थित है वह प्रभु के अनंत तेज के आंशिक रूप इस शब्द से है। प्रभु के बिना कहीं भी और कुछ भी विलक्षणता नहीं है। पुनः इष्ट की प्राप्ति के निमित्त किये गये कर्म को ‘यज्ञ’ कहते हैं। जब मनुष्य को किसी वस्तु या व्यक्ति में विलक्षणता मालूम होती है तो वह उसकी प्राप्ति के निमित्त कर्म करता है। जब समस्त विलक्षणता प्रभु की ही है और प्रभु से ही है तो स्वाभाविक है कि जीव के कर्म अर्थात यज्ञ का ध्येय भगवान् ही होंगे : ‘सम्पूर्ण यज्ञों और तपों के भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ किन्तु वे मुझे तत्त्व से नहीं जानते इससे उनका पतन हो जाता है।’(9.24) जीव जो भी कर्म कर रहा होता है सब भगवान् के लिये ही कर रहा होता है किन्तु उसमें भगवद्बुद्धि नहीं होती। उसमें ‘सब कुछ भगवान् हैं’ -ऐसा भाव नहीं होता जिससे वह यज्ञ भ्रष्ट हो जाता है। वह यज्ञ ‘योग’ का नहीं अपितु ‘भोग’ का साधन बन जाता है। ‘यह सब कुछ भगवान् ही हैं’ -यह रहस्य केवल उन्हीं जीवों के समक्ष खुलता है जिन पर प्रभु की कृपा होती है। ऐसे जीवों को सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाले श्रेष्ठ नाम की प्राप्ति होती है, जिस नो कृपा करहि तिनि नाम रतनु पाइया । इस तरह गुरमुख जीवों को परमात्मा की प्राप्ति होती है जबकि मनमुख जीव परमात्मा के नाम से खाली ही रह जाते हैं, गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइया । लेकिन यह हम जीवों के वश में नहीं है कि हम गुरु के पास जाकर नाम प्राप्त करें और परमात्मा से मिल लें। गुरु से संयोग अथवा वियोग भी परमात्मा सति की इच्छा से ही होता है, तुधु आपि विछोड़िया आपि मिलाइया ।
प्रभु सति, मानों, अस्तित्व का एक विशाल दरिया हैं, उनसे बाहर कुछ नहीं है। जो कुछ भी अस्तित्वमान है वह सति से, सति के कारण, सति के लिये और वस्तुतः सति ही है। जीव-जंतुओं की प्रत्यक्ष दीखती यह विविधता, उनमें पारस्परिक वैर-भाव, उनके द्वारा नित्यप्रति झेला जाता जरा-मरण का दंश तो एक पार्श्व क्रीडा-मात्र (side show) है। अस्तित्व का वास्तविक रहस्य ‘संयोग’ और ‘वियोग’ के स्तर पर खुलता है। ‘संयोग’ वह है जहां प्रभु सति के तीन प्रकार के अनंत गुण - सत्, चित् व आनंद - घनीभूत व संयुक्त अवस्था में हैं; ‘वियोग’ वह है जहां प्रभु सति के तीन प्रकार के अनंत गुण - सत्, चित् व आनंद - वियुक्त, चारों ओर पसरी हुई अवस्था में हैं। पहली अवस्था को सच्चिदानंदघन कहा गया है; दूसरी अवस्था को सत्, चित्, आनंद कहा गया है। पहली अवस्था प्रभु सति की प्रशांत व निष्क्रिय अवस्था है; दूसरी अवस्था में वह अनंत शक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। पहली अवस्था शुद्ध ज्ञान की है; दूसरी ज्ञानमय कर्म की है। इस तरह संयोगावस्था ज्ञानावस्था है, इसको प्राप्त जीव भवचक्र से मुक्त हो जाते हैं, संजोगी मेलु । दूसरी ओर वियोगावस्था सकर्मक अवस्था है, इसको प्राप्त जीवों के कर्म अहं और कामना से रहित, प्रभु-शक्ति से सशक्त और निष्कलुष व पावन हो जाते हैं। ऐसे जीव प्रभु की शक्ति से मिले हुए किन्तु प्रभु से बिछुड़े हुए होते हैं। ‘संयोग’ प्रभु सति का पूर्ण व समग्र रूप है; ‘वियोग’ उसी का आंशिक रूप है। ‘संयोग’ में प्रभु से पूर्ण मिलाप है; ‘वियोग’ में उससे आंशिक मिलाप है, और, उसके साथ ही, आंशिक वियोग भी है। तीसरी अवस्था हम मायाग्रस्त जीवों की है जो प्रभु की सत्ता और शक्ति दोनों से वंचित हैं। यदि हम जीव प्रभु की सेवा करें अर्थात अपने समस्त कर्मों को प्रभु की सेवा के भाव से करें, तो हम पर भी प्रभु की कृपा हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप हम भी प्रभु की अक्षर सत्ता नाम में लीन हो सकते हैं।
अंतिम पंक्ति में गुरु जी लिखते हैं, ‘हे प्रभु! तूँ आप ही सारी सृष्टि का कर्ता हैं, यह सारी जड़-चेतन सृष्टि तुम्हारी कृति है। किन्तु तुम ऐसे कृतिकार हो जो अपनी कृति के पोर-पोर में समाए हुए हो, यह तुझसे कदापि भिन्न नहीं है।‘ गुरु जी जगत व इसके कर्ता सति के बीच संबंधों को दर्शाते हुए लिखते हैं, ‘तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ’। ‘तू’ पद सति के लिये आया है जबकि ‘सोइ’ पद जगत के लिये है। इन दोनों के मध्यवर्ती पद हैं – ‘करि करि’ व ‘वेखहि जाणहि’। ‘करि करि’ का समास प्रभु सति द्वारा नाम व शब्द के द्वारा सृष्टि की रचना का द्योतक है। नाम प्रभु सति की सत्ता है, वे नाम के रूप में जगत के दृष्टा हैं, वेखहि ; शब्द प्रभु सति की सार्वभौम शक्ति है, शब्द वह शक्ति जहां प्रभु सति स्वयं को जगत् के रूप में जानते हैं, जाणहि (He cognizes Himself as the world.)। शब्द प्रभु सति की ज्ञानमय कर्म की शक्ति है। कर्ता सति नाम व शब्द के माध्यम से सृष्टि की रचना करते हैं। नाम से समस्त सृष्टि अस्तित्व ग्रहण करती है। शब्द से सृष्टि की प्रत्येक सत्ता को विशिष्टता व व्यक्तित्व मिलता है। माया इस समस्त अस्तित्व और विशिष्टता के नाम-रुप प्रदान करती है। नाम समस्त सृष्टि का दृष्टा है, वेखहि, और इसका समस्त सृष्टि पर दृष्टिपात सूर्य की भांति भेद-रहित व निर्विकार भाव से होता है। शब्द स्वयं को भेद-प्रभेदमय सृष्टि के रूप में जानता है, जाणहि, और यह सृष्टि के प्रत्येक जीव को वही विशिष्टता व व्यक्तित्व प्रदान करता है जिसका वह पात्र है। नाम समस्त सृष्टि का तात्विक सत्य है; शब्द यह चराचर सृष्टि है; माया इसका बाहरी आकार मात्र है। हम जिस सीमा तक शब्द को जानते हैं उसी सीमा तक अपने-आपको और अपने स्रोत प्रभु को जान सकते हैं। कठोपनिषद की श्रुति लिखती है :
अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयो ।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥(2.3.13)
‘प्रभु का ज्ञान दो स्तरों पर होता है, इति एव उपलब्धव्यः। प्रथम, यहाँ जो कुछ भी अस्तित्वमान है वह सब कुछ परमात्मा ही है, अस्ति । दूसरा, यहाँ जो कुछ भी है, परमात्मा उसका तात्त्विक सत्य है, तत्त्वभावेन । इन दोनों में से, चोभयो, जो परमात्मा को ऐसे जान लेता है कि यहाँ जो कुछ भी है वह सब परमात्मा ही है, अस्ति इति एव, उसे परमात्मा का तात्त्विक सत्य, तत्त्वभावः, प्रभु के प्रसाद से अपने-आप ज्ञात हो जाता है, प्रसीदति ।’ गुरु जी पंक्ति के अंतिम चरण में लिखते हैं कि प्रभु के ज्ञान के ये दोनों चरण गुरु के सेवक के समक्ष गुरु के प्रसाद से उजागर होते हैं।
‘कर्तापुरुष’ समास में दूसरा समस्त पद ‘पुरुष’ है। बाणी में इसका प्रयोग निम्नलिखित तीन अर्थों में हुआ है :
1. साधारण मनुष्य के अर्थ में :
पुरखां बिरखां तीरथां तटां मेघां खेतांह ॥(1-467)
2. महान व्यक्ति भाव सद्गुरु के अर्थ में :
सतिगुरू पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥(4-607)
3. सर्वव्यापक परमात्मा के लिये :
ओहु अबिनासी पुरखु है सभ महि रहिआ समाइ ॥(4-758)
‘कर्तापुरुष’ समास में 'पुरुष' पद से तीसरा अर्थ ही अभिप्रेत है। इस दृष्टि से 'पुरुष' शब्द से परमात्मा के उस स्वरूप की व्यंजना होती है 'जो कण-कण में व्याप्क है'। ‘पुरुष’ शब्द का अर्थ ‘रचना में समाया हुआ’ करने से यह भाव नहीं लेना चाहिए कि यह शब्द अनन्य रूप से अंतःस्थ (immanent) सत्ता के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा के लिए 'पुरुष' शब्द के प्रयोग की परंपरा ऋग्वेद से चली आ रही है और इस शब्द का प्रयोग परमात्मा के भिन्न-भिन्न रूपों को दर्शाने के लिए किया जाता रहा है। ऋगवेद के ‘पुरुष सूक्त’ में कहा गया है कि पुरुष एक है और उसके चार पाद अर्थात अवस्थाएं हैं। इनमें से तीन पाद तो दिव्य व अमृत हैं जबकि चौथा पाद बार-बार जगत के रूप में प्रकट होता है। उपनिषदों में इन चार पादों को क्रमशः तुरीय, आनंद, विद्या और अविद्या पाद कहा गया है। आदिग्रंथ में पुरुष अथवा परमात्मा के इन्हीं चार रूपों को ਓੱ, सति, नाम व शब्द कहा गया है। ਓੱ तुरीय है; सति आनंदपाद है; नाम विद्यापाद है; और शब्द अविद्यापाद है। शब्द को अविद्या क्यों कहेंगे? न विद्यते इति अविद्या। शब्द एक रूप में नहीं रहता, यह क्षरणशील है और निरंतर परिवर्तित होता रहता है, इसीलिए भगवद्गीता में इसे 'क्षर पुरुष' कहा गया है। स्थिर को विद्यमान कहेंगे, अस्थिर को अविद्यमान कहेंगे। त्रिगुणात्मिका माया भी अविद्यमान है। किन्तु शब्द व माया में अंतर यह है कि शब्द कभी छीजता नहीं है। वह निरंतर परिवर्तन के माध्यम से निरंतर नया होता जाता है। दूसरी ओर माया निरंतर परिवर्तन के माध्यम से निरंतर पुरानी होती जाती है।
संस्कृत शब्द ‘पुरुष’ के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ दो हैं। पहला, ‘पूर्णं अनेन सर्वं इति पुरुषः’ अर्थात ‘जिससे यह चराचर जगत परिपूर्ण है’ और दूसरा, ‘पुरि शयनात् वा पुरुषः’ अर्थात ‘जो पुरी में शयन करता है’। प्रकृति के प्रत्येक कार्य को पूर्ण करने के नाते परमेश्वर सति को पुरुष कहते हैं। दूसरी ओर जगत् रूपी विराट पुरी में विश्राम करने के नाते सति की अक्षर सत्ता नाम को भी पुरुष कहेंगे। इस तरह सतिनाम पद में सति और नाम दोनों पुरुष हैं, हाँ, इन दोनों के स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं। पुनः इसी जगत् रूपी विराट पुरी में शब्द भी है जो प्रतिपल परिवर्तित होकर इस जगत् में परिवर्तन को सुनिश्चित करता है, अतः शब्द को भी पुरुष कहेंगे। भगवद्गीता में शब्द, नाम व सति को क्रमशः क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और उत्तम पुरुष कहा ही गया है। पुनः सति ਓੱ से भिन्न नहीं है। जहां सति है वहाँ ਓੱ भी है। इस तरह परमात्मा के दोनों अंतःस्थ और दोनों परात्पर रूपों अर्थात् चारों रूपों को पुरुष ही कहा गया है। इसी तथ्य के निरूपण के लिए आदिग्रंथ में ‘पुरख’ शब्द के साथ कुछ अन्य शब्द जोड़ कर नये शब्द भी बनाये गये और उनसे परमात्मा के भिन्न-भिन्न रूपों की सूचना दी गई है, यथा :
1. आदिपुरुष - अपरंपरु सत्ता ਓੱ के लिए;
2. सत्पुरुष या परमपुरुष - सचखंड निवासी सति के लिए;
3. अकालपुरुष
या पुरुष निरंजन - अंतःस्थ सत्ता नाम के लिए;
4. विधाता पुरुष - शब्द के लिये।
‘कर्तापुरुष’ समास में ‘पुरुष’ पद अनन्य रूप से करमखंड निवासी सत्ता नाम के लिये आया है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं : सचु नामु करता पुरखु एह रतना खाणी ॥(5-319) ‘सचु नामु’ से आशय ‘सतिनाम’ है जबकि ‘करता पुरखु’ से अभिप्राय ‘कर्तापुरुष’ है। बाणी में परमात्मा के लिये प्रयोग किया गया मूलभूत प्रत्यय ‘सतिनाम’ है, यह प्रत्यय ब्रह्म का शुद्ध सत्ता के रूप में आख्यान करता है अर्थात इसके माध्यम से बताया गया है कि परमात्मा क्या है। दूसरी ओर ‘कर्तापुरुष’ पद परमात्मा का रचना से संबंध बताता है। सति जगत का कर्ता है और नाम पुरुष है अर्थात जगतपुरी के पोर-पोर में समाया हुआ है। इस तरह ‘सतिनाम’ व ‘कर्तापुरुष’ समास एक-दूसरे की दर्पण प्रतिच्छवि (mirror image) हैं। पुनः जिस तरह ‘सतिनाम’ में नाम से नाम व शब्द दोनों का संकेत होता है, उसी प्रकार ‘कर्तापुरुष’ में 'पुरुष' से दो तत्त्वों का अवबोधन होता है – पुरी और शेते अर्थात ‘पुरुष’ शब्द से जगतपुरी व इसमें निवास कर रही चैतन्य सत्ता –दोनों का अवबोधन किया गया है। शब्द यह समस्त जगतपुरी है और नाम इसमें निवास कर रही चैतन्य सत्ता है। जिस प्रकार ‘सतिनाम’ समास के अंतर्गत सत्य स्वरूप परमात्मा सति, उसकी अक्षर सत्ता नाम व क्षर शक्ति शब्द तीनों सम्मिलित हैं उसी प्रकार ‘कर्तापुरुष’ समास के अंतर्गत जगत का कर्ता (सति), जगत में निवास कर रही चैतन्य सत्ता (नाम) व जगत (शब्द) तीनों का अध्ययन सम्मिलित है।
(शेष आगे)
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