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Ep13 - Turiyavastha: Awakening to Oneness, Eternal Freedom & God-Realization

Writer: Guru SpakesGuru Spakes

Updated: Feb 13, 2024

Read the complete text to get answers to questions like:

  • Why are we never truly satisfied by our desires? (They miss the mark - true fulfillment lies within.)

  • What is the true source of lasting happiness and peace? (Connecting with the divine "Supreme Principle" within.)

  • How can we overcome inner conflicts and achieve harmonious relationships? (By realizing the oneness of all through focusing on God.)

  • What is the ultimate goal of life, and how can we achieve it? (God-realization, freeing ourselves from limitations and finding true liberation.)


Only the desire of God and the struggle to fulfill it will take us from the finite to the infinite, from form to formless and from time to timeless, thereby freeing us from the slavery of time and death.

Whatever may be the form of desire, the inspiration behind it is the same – the search for infinite joy, power, freedom and existence by the infinite soul. But, this search is done in the wrong area and with the wrong means and, hence, is doomed to failure from the very beginning.


Harmony, peace, joy, freedom and unity are beyond the mind and intellect in the Supreme Principle which is present behind both the eyebrows in our head in the form of divine light and sound. The achievement of this is called the fourth stage of life, Turiyavastha. It is here that we will attain both our individual soul and the Universal Soul together, which on one hand will bring peace to the conflicts present in our physical existence, on the other hand, our relationships with our fellow beings will also be harmonious because then we will know that the individual soul and the Universal Soul are one. Only one God is present everywhere.



This state will be achieved only when we have only the desire to attain God. Only the desire of God and the struggle to fulfill it will take us from the finite to the infinite, from form to formless and from time to timeless, thereby freeing us from the slavery of time and death. Desire for anything other than this would be suicidal. Quote from ‘Nirbhay, Nirvair, Akalmurti’ 13.


Turiyavastha: Awakening to Oneness, Eternal Freedom & God-Realization
Turiyavastha: Awakening to Oneness, Eternal Freedom & God-Realization

Key Highlights:

  • Source of Desire: All desires, regardless of their specific form, stem from the soul's innate yearning for infinite joy, power, freedom, and existence.

  • Error in Seeking: Traditional means of fulfilling desires (external objects, actions) are misguided and lead to inevitable failure.

  • True Fulfillment: Real harmony, peace, and unity lie beyond the mind and intellect, in the "Supreme Principle" within us, experienced as divine light and sound.

  • Fourth Stage of Life: Achieving this state, called "Turiyavastha," unites individual and universal soul, resolving internal conflicts and fostering harmonious relationships.

  • Oneness and Liberation: Recognizing the single, omnipresent God and focusing solely on attaining him releases us from the limitations of time, death, and the "slavery" of finite desires.


What the Text Tells and How it Helps:

The text encourages readers to:

  • Transcend worldly desires: Recognize the limitations of external pursuits and their inability to bring lasting fulfillment.

  • Seek inner reality: Explore the "Supreme Principle" within through meditation or spiritual practices to access true joy, peace, and unity.

  • Unify individual and universal: Integrate personal identity with the larger divine reality, fostering inner and outer harmony.

  • Attain spiritual liberation: Dedicate yourself to God-realization, freeing yourself from the cycle of time, death, and unfulfilled desires.



By offering an alternative path to happiness and liberation, the text empowers readers to:

  • Gain deeper self-understanding: Explore the true nature of desire and its impact on their lives.

  • Cultivate inner peace and harmony: Discover lasting fulfillment beyond external circumstances.

  • Develop empathy and compassion: Recognize the oneness of all beings and foster positive relationships.

  • Embrace spiritual growth: Find guidance and inspiration on their journey towards God-realization.


The text challenges conventional approaches to happiness and offers a profound spiritual perspective that can guide readers towards a more peaceful, meaningful, and liberated life.


 

माया में भय और वैर के भिन्न-भिन्न रूप 


जगत्‌ का आधार और आरम्भ एक अकालमूर्त प्रभूसत्ता है, दिक्काल वह युक्ति है जिससे एक प्रभू अनेक रूपों को पैदा करते हैं।  उत्पत्ति के क्रम में सबसे पहले जगत्‌ रूपी रंगमंच पर माया के तीन गुणों से उद्भूत तीन वैश्विक तत्त्व उपस्थित होते हैं।  ये हैं - मन, प्राण व जड़।  इन तीनों को ही बाणी में ‘त्रिभुवन’ कहा गया है।  इसके साथ ही इन तीनों के व्यष्टिगत रूप निर्मित होते हैं।  आध्यात्मिक शब्दावली में मन, प्राण और जड़ के समष्टिगत रूप को ब्रह्माण्ड कहा गया है जबकि इनके व्यष्टिगत रूप को पिंड कहा गया है।  सर्ग की प्रक्रिया के दौरान मन व प्राण की उत्पत्ति के पश्चात हमारे जगत्‌ में सर्वप्रथम पिंड का ऐसा भौतिक रूप अस्तित्व में आता है जो अपने अंदर प्राण, मन व चैतन्य सत्ता को छिपाए रखता है तथा जो प्रकट रूप से अपने मूल अध्यात्म तत्त्व का पूर्ण निषेध होता है।  इसके उपरांत विसर्ग की प्रक्रिया के दौरान प्राण और मन उस जड़ में से प्रकट होते हैं।  माया के तीन गुणों से निर्मित ये तीनों तत्त्व आत्मा के तीन मूलभूत विरोध प्रस्तुत करते हैं।  श्रीअरविंद के अनुसार ये विरोध इस प्रकार हैं : 

  1. यहाँ अज्ञान के तत्त्व की पराकाष्ठा है।

  2. यहाँ यान्त्रिक विधान के आगे दासत्व की पराकाष्ठा है।

  3. यहाँ विभाजन और संघर्ष के तत्त्व की पराकाष्ठा है।


जड़ तत्त्व माया के तमोगुण की संतान है और यहां जड़त्व, सीमितता, स्थूलता, कष्ट, अज्ञानता व विभाजन का साम्राज्य है जो वह अपने में से धीरे-धीरे उभरते प्राणिक व मानसिक तत्त्वों पर लादता है और जिनके प्रति प्राण व मन में असंतोष रहता है।  जड़ में से विकसित हुआ प्राण माया के रजोगुण की अभिव्यक्ति है।  प्राण में जड़ के अर्द्धचेतन सीमित जीवन के प्रति विद्रोह का भाव रहता है।  अपनी उन्नत अवस्था में प्राण के लक्षण हैं - “मृत्यु और पारस्परिक भक्षण, क्षुधा और सचेतन कामना, सीमित अवकाश और क्षमता का भाव और वृद्धि, विस्तार, विजय और आधिपत्य के लिए संघर्ष।”(दिव्य जीवन, पृ -200) इस प्रकार प्राण के कारण प्राणियों में मृत्यु, क्षुधा और असमर्थता का जन्म होता है।  ये तीनों परिणाम सृष्टि में वैर-विरोध को, संघर्ष व आपाधापी को पैदा करते हैं।  “मृत्यु का व्यापार जीवित रहने के लिए संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है........ क्षुधा और कामना का व्यापार तृप्ति और सुरक्षा की स्थिति तक पहुंचने के लिए संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है........ सीमित सामर्थ्य का व्यापार विस्तार, प्रभूता और अधिकार के लिए संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है।”(दिव्य जीवन, पृ -200) इसी प्राणिक चेतना में से मानसिक चेतना उत्पन्न होती है।  मन माया के सत्वगुण की संतान है।  मानसिक चेतना अज्ञानता से भरी अवश्य है किंतु उसे अपनी अज्ञानता का बोध होता है और वह अनंत चेतना, ज्ञान और सच्ची सत्ता की संभावना के प्रति सचेत होता है।  जड़ में निहित तमोगुण उसमें अज्ञानता व यान्त्रिकता का गुण पैदा करता है।  जड़ को तामसिक कहने का अर्थ यह नहीं कि यह निष्क्रिय, निष्चेष्ट है।  यह उस माया का गुण है जो धात अर्थात्‌ अनन्त गति है।  हाँ, तमोगुण में यह गति यान्त्रिक व दानवीय होती है।  प्राण में निहित रजोगुण इस अंधी भौतिक शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करता है।  यह अपने आपको बनाये रखने, प्रतिरोधी को नष्ट या बाधित करने, अन्यों को अपने भोजन के रूप में निगलने और अन्यों से अपनी सुरक्षा करने और इस प्रकार भक्षण करने, अधिकार जमाने और शासन करने के सतत संघर्ष में रहता है।  मन में निहित सत्वगुण अपने अंतर में सत्य को पाने और सत्य ही हो जाने, प्रेम व आनंद को प्रतिष्ठित करने और वही हो जाने का वेग रखता है।  इस तरह मन के कारण ही मायिक जगत्‌ में पाप व पुंन के विचार का उदय होता है।  प्राण केवल पाना जानता है, मन अपने आपको दूसरों को देता है और बदले में दूसरों को पाने की कामना करता है।  इस तरह जड़, प्राण व मन के अपने-अपने झुकाव व प्राथमिकताएं होती हैं।  जड़ में सीमितता के प्रति पूर्ण दासत्व का भाव है।  प्राण अनंतता की अभीप्सा रखता है किंतु उसमें दूसरे को निगलकर ही जिन्दा रहने का संकल्प होता है।  इसलिए उपनिषद का कथन है कि प्राण क्षुधा है और इस क्षुधा के द्वारा भौतिक जगत्‌ की रचना की गई है।  मन प्राण से अधिक सूक्ष्म है और वह प्रेम, सहायता, दया, स्नेह, एकता के विधान को विकसित करता है।  इस मायिक जगत्‌ में जब तक केवल जड़ का प्राधान्य रहता है इसकी समस्त विसंगतियां दबी रहती हैं जिससे वहां सुख, शांति का साम्राज्य दिखाई पड़ता है।  ज्यों-ज्यों प्रकृति के रंगमंच पर जीवन की अभिव्यक्ति होती है, त्यों-त्यों उसका विलोम मृत्यु और इसके कारण जैसे असमर्थता व भूख व उससे उत्पन्न होते वैर-विरोध, भय, संघर्ष के तत्त्व चारों ओर दिखाई देने लगते हैं।  इस अवस्था में प्राणियों के जगत्‌ में जंगल का कानून लागू होता है।  जीवन के लिए आपाधापी से भरपूर इस जगत्‌ में मन नेकी व बुराई के विचार द्वारा, नैतिकता के द्वारा सामंजस्य बिठाता है, किंतु यह सामंजस्य अपूर्ण होता है।  मनुष्य में जड़, प्राण व मन का त्रिक पूर्णतः विकसित होता है जिससे सीमित जीवन के समस्त विरोधाभास मनुष्यों में ही प्रकट होते हैं।  ये विरोधाभास क्या हैं?  वे कौन-सी कठिनाईयां हैं जिनसे मनुष्य का आमना-सामना होता है, इस विषय में गुरू नानक देव जी एक स्थान पर लिखते हैं : 

दुखु वेछोड़ा इकु दुखु भूख ॥ इकु दुखु सकतवार जमदूत ॥

इकु दुखु रोगु लगै तनि धाइ ॥ वैद न भोले दारू लाइ ॥(1-1256)


‘हे भोले वैद्य! मनुष्य के अस्तित्व को एक रोग, एक दुख लगता है, जिससे अनेक दुख उसे घेर लेते हैं।  इन दुखों की औषधि जगत्‌ में कहीं नहीं।  हे वैद्य! मनुष्य को लगा एक दुख है प्रभू के चरणों से वियोग; दूसरा दुख है माया के पदार्थों की भूख; तीसरा शक्तिशाली यमराज अर्थात्‌ मृत्यु का दुख है।’  इन पंक्तियों में वेछोड़ा अर्थात्‌ वियोग वस्तुतः हउमै है जिसे एक साथ रोग व दुख कहा गया है।  ब्रह्मांड मे प्रत्येक पिंड व्यष्टिगत माया है और एक इकाई है।  इसी तरह ब्रह्मांड भी अनेक पिंडों का समूह नहीं, समष्टिगत माया है, और एक इकाई है।  पुनः पिंड व ब्रह्मांड भी भिन्न-भिन्न नहीं, ये दोनों उस एक माया की अभिव्यक्तियां हैं जो प्रभू की चेतन शक्ति की परछाई है।  हउमैग्रस्त जीवात्मा समग्र में से कतिपय चयनित व विशिष्ट तत्त्वों को स्वायत्त करती है और उस पर अनन्य रूप से स्थिर होती है जिससे वे तमाम परिणाम निकलते हैं जिनकी ओर गुरू साहिब द्वारा संकेत किया गया है।  हउमै जीवात्मा को केवल प्रभू से ही अलग नहीं करती, यह समस्त अस्तित्व को ऊर्ध्वाधर व क्षैतिजीय रूप से खंड-खंड कर देती है।  इसीलिए बाणी में हउमै को दीर्घ रोग व ‘वडा’ (बड़ा) रोग कहा गया है।  जैसे परिवार में सबसे वरिष्ठ व बुज़ुर्ग सदस्य के बारे में हम कहते हैं कि वह हमारा बड़ा (बुज़ुर्ग) है।  हमारा आशय होता है कि वह बुज़ुर्ग परिवार का मूल है, सारा परिवार उससे उत्पन्न हुआ है।  इसीलिए गुरू साहिब हउमै को रोग व दुख एक साथ कह रहे हैं - इकु दुखु रोगु लगे तनि धाइ ॥ कोई गंभीर रोग लग जाये तो पहले तो वह रोग अपने आप में एक दुख है, फिर वह रोग कई और उलझनों, कष्टों को निमंत्रण देता है।  इस तरह जीवात्मा का प्रभू से वियोग व तदन्तर हमारे अस्तित्व की समग्रता का खंड-खंड हो जाना मूल दुख है जिससे दो और दुख पैदा होते हैं - पहला, तृष्णा या कामना और दूसरा, मृत्यु का भय।  बाणी में एक और स्थान पर भी इन तीन प्रकार के दुखों का वर्णन किया गया है : 

हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥(3-603)


‘जगत्‌ को हउमै का रोग, हउमै का दुख लगा हुआ है जिससे यह बार-बार जन्म लेता व मरता है और (तृष्णा से व्याकुल होकर) विलाप करता है।’  इन तीनों मे से हउमै मूलभूत एकता को अनेकता में विभाजित करने वाला तत्त्व है।  जन्म-मरण वह प्रक्रिया है जिससे “अंतरात्मा केंद्रक के नाते अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोषों के तत्त्व को और उनकी अंतर्वस्तूओं को जन्म के लिये अपनी ओर खींचती और उन्हें संहत करती है, काल में उन रूपों को बढ़ाती हैं और जाते समय इन संहत रूपों को फिर से छोड़ देती और विघटित कर देती है।  और ऐसा करते हुए वह अपनी आंतरिक शक्तियों को तब तक के लिए अपने अंदर खींच लेती है जब तक कि नया जन्म लेते समय फिर से इसी मूल प्रक्रिया की पुनरावृत्ति न करने लगे।”(दिव्य जीवन, पृ -168, पादटिप्पणी) जबकि कामना वह मानक है जिसके अनुसार जन्म-मरण की प्रक्रिया के दौरान निर्मित होने वाले रूप का आकार, प्रकार, शक्ति, स्वभाव आदि निश्चित होते हैं।  गुरू नानक देव ने इन तीनों के वर्णन में वियोग, कामना व जन्म-मरण का क्रम रखा है जबकि गुरू अमरदास जी ने वियोग, जन्म-मरण व कामना का।  हमारे मतानुसार गुरू नानक देव जी का वर्णन तर्कसंगत है।  संभव है कि गुरू अमरदास जी ने कविता के अनुरोध से तीनों के क्रम को बदला हो।  वस्तुतः माया के पाश में जकड़ी हुई जीवात्मा की समस्याएं दो ही हैं - हउमै व कामना।  मृत्यु तो इन दोनों का परिणाम है।


मिथ्यात्व का जीवन - अज्ञानता, मोह, कामना व जन्म-मृत्यु का दुख

    

यहाँ ध्यान रहे कि हउमै ‘अहं+मम’ (मैं+मेरा, अज्ञानता+मोह, कर्तापन+भोक्तापन) का मेल है, कामना हउमै का परिणाम है, मृत्यु इन दोनों का परिणाम है।  ये सभी माया के परिवार के सदस्य हैं।  ‘यदि कोई पूछे कि माया का स्वरूप क्या है?  माया आवेष्टित जीवों के कर्म कैसे होते हैं?  तो उत्तर यह है कि माया के प्रभाव से यह जीव दुख की निवृत्ति व सुख की लालसा में बंधा रहता है और ‘मैं कर्ता हूं’, ‘मैं भोक्ता हूं’ की भावना से कर्म करता है’ : 

माइआ किस नो आखीऐ किआ माइआ करम कमाइ ॥

दुखि सुखि एहु जीउ बधु है हउमै करम कमाइ ॥ (3-66)


यहाँ जीव का दुख की निवृत्ति व सुख की लालसा में बंधा रहना ‘कामना’ है और स्वयं में कर्ताभाव व भोक्ताभाव की अज्ञानता को हउमै कहा जाएगा।  इसी प्रकार गुरू नानक देव जी लिखते हैं : 

भरमे भाहे न विझवै जे भवै दिसंतरु देसु ॥

अंतरि मैलु न उतरै धरिगु जीवणु धरिगु वेसु ॥

होरु कितै भगति न होवई बिनु सतिगुर के उपदेसु ॥1॥

मन रे गुरमुखि अगनि निवारि ॥

गुर का कहिआ मनि वसै हउमै त्रिसना मारि ॥ 1॥ रहाउ ॥(1-22)


पहली पंक्ति में आप किसी ‘अग्नि’ की बात करते हैं जो देश-देशांतरों में भ्रमण करते रहने से नहीं बुझती।  दूसरी पंक्ति में ‘अग्नि’ के स्थान पर ‘मैल’ पद का प्रयोग किया गया है।  कहते हैं कि ऐसे घुमक्क्ड़ों वाले जीवन पर और इस प्रयोजन से धारण किए गये भगवे, हरे, पीले या श्वेत आदि रंगों के पहरावों पर धिक्कार है क्योंकि उससे आंतरिक मैल धुलती नहीं।  तीसरी पंक्ति में कहते हैं कि उस मैल का धुलना या अग्नि का बुझना प्रभू की भक्ति से संभव होता है और यह भक्ति सद्गुरु के उपदेश से होती है।  इसके पश्चात्‌ रहाउ की कड़ी में इस अग्नि तथा मैल का स्वरूप बयान किया गया है कि ये क्रमशः हउमै व तृष्णा है जिनका निवारण सद्गुरु के उपदेश को मन में बसाने से होगा।  

हालांकि बाणी में अन्यत्र माया की परिभाषा जन्म-मरण के रूप में भी दी गई प्रतीत होती है, यथा :  

इह संसार ते तब ही छूटउ जउ माइआ नह लपटावउ ॥ 

माइआ नामु गरभ जोनि का तिह तजि दरसनु पावउ ॥(भक्त नामदेव, पृ -693)


‘इस संसार से छुटकारा तो तभी होगा जब माया में लिप्त नही होओगे।  यदि कोई पूछे कि माया क्या है?  तो उत्तर यह है कि माया संज्ञा गर्भयोनि की है।  इस माया का त्याग करो तभी प्रभू के दर्शन होंगे।’  यहाँ प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि जन्म-मरण को ही माया कहा जा रहा है।  किन्तु भक्त जी का यह निश्चयात्मक कथन कि ‘इस माया का त्याग करो तभी प्रभू के दर्शन होंगे’, माया को जन्म-मरण की प्रक्रिया से भिन्न रूप में देखने का सुझाव देता प्रतीत होता है।  ‘माया’ ‘मा’ धातु से बना शब्द है, इसी धातु से ‘माप’ शब्द बना है।  जगत् के पदार्थों को मापा व तोला जा सकता है।  अतः माया के त्याग का अर्थ है कि साधक का परमात्मा के प्रति समर्पण माप-तोल कर न हो, अपितु पूर्ण व सर्वस्व हो।  पुनः वह इस समर्पण के बदले जगत् के किसी भी पदार्थ की कामना न करे अपितु वह पूर्णरूपेण, बिना किसी शर्त के स्वयं को समर्पित करे।  परमात्मा के दर्शनों के लिए पूर्ण व बिना शर्त समर्पण - प्रपत्ति - की आवश्यकता है।  यहाँ माया के त्याग के अर्थ यही है।


इस प्रकार जीवात्मा की मूल समस्या हउमै - अज्ञानता और मोह - है, यह ‘वडा’ अर्थात्‌ मूल रोग है जिससे हमारे अस्तित्व की समग्रता खंड-खंड होती है।  कामना इस रोग का लक्षण है जबकि मृत्यु इसका परिणाम है।  हउमैग्रस्त जीवात्मा का तृष्णालू होना स्वाभाविक है।  आत्मा का निजस्वरूप असीम सत्ता, चेतना, शक्ति व आनंद है।  हउमै हमें सीमाबन्धन में डालता है।  हममें कामना होती है कि हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से कार्य करें क्योंकि हमारा वास्तविक स्वरूप परम स्वतंत्र है।  लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।  ‘मनुष्य पश्चिम को जाने की सलाह बनाता है परमात्मा इसे पूरब की ओर ले जाता है।  परमात्मा एक क्षण में पैदा करके नाश कर देने की ताकत रखता है।  हरेक फैसला उसने अपने हाथ में रखा है।  मनुष्य की चतुराई किसी काम नहीं आती।  जो कुछ प्रभू ने निर्धारित कर दिया वही होकर रहता है।  मनुष्य के प्राण इसी कामना में निकल जाते हैं कि दूसरे देशों पर कब्जा करूं, और ज्यादा धन एकत्र करूं।  फौजें, अहिलकार, चोबदार आदि सबको छोड़ कर अंततः वह परलोक चला जाता है’ : 

मता करै पछम कै ताईं पूरब ही लै जात ॥

खिन महि थापि उथापनहारा आपन हाथि मतात ॥ 1॥

सिआनप काहू कामि न आत ॥

जो अनरूपिउ ठाकुरि मेरै होइ रही ओह बात ॥ 1॥ रहाउ ।

देसु कमावन धन जोरन की मनसा बीचे निकसे सास ॥

लसकर नेब खवास सभ तिआगे जम पुरि उठि सिधास ॥ 2॥(5-496)


मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार अपने भाग्य का निर्धारण क्यों नहीं कर पाता, इसका कारण बताते हुए गुरू साहिब लिखते हैं : 

जेहा कीतोनु तेहा होआ जेहे करम कमाइ ॥(3-32)


मनुष्य ने अतीत में जैसे कर्म किए, जेहा कीतोनु, वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है, तेहा होआ, फिर उस स्वभाव व क्षमता के अनुसार ही कर्म करने लग जाता है, (ओहो) जेहे करम कमाइ ।  हमने अतीत जीवन में जो भी कर्म किए, जो भी विचार, मनोभाव, कामनाएं अंदर उठीं, उनके संस्कार अवचेतन व अन्तस्तलीय भागों में बने रहते हैं।  प्रत्येक संस्कार ऊर्जा का बंडल है जो उचित समय पर उत्सादित होता है और हमारे जीवन को एक विशेष ढर्रे पर ठेल देता है।  यह अवचेतन हमारे अस्तित्व का अधिक बड़ा व अधिक समर्थ भाग है अतएव स्वाभाविक रूप को यह हमारे छोटे व कम समर्थ भाग को नियंत्रित करेगा।  अतः हमारा स्वेच्छा से काम करना एक भ्रम, अज्ञानता मात्र है।  यही वह मायाजाल है जिसमें हम सभी जीव फंसे हुए हैं।  फिर हमारी कामना होती है कि परिवार व समुदाय के अन्य सदस्य हमारी बात मानें लेकिन जिस तरह हम माया के वश में हैं उसी तरह वे भी माया के अधीन हैं।  और, माया प्रभू की दासी है, उसे प्रभू के आदेश की पालना करनी है न कि हमारे आदेश की।  और, जिस तरह माया प्रभू की दासी है उसी तरह प्रभू के भक्तों की भी दासी है : 

माइआ दासी भगता की कार कमावै ॥(3-231) 


यदि जीव प्रभू के हुक्म से मुख न मोड़ें तो उसके हुक्म से भी कोई मुख नहीं मोड़ेगा : 

फरीदा जे तूं मेरा होइ रहहि सभु जगु तेरा होइ ॥(शेख फ़रीद, पृ -1382)


जब यह जीव प्रभू को भूल जाता है तो जगत्‌ का हर जीव इसका वैरी बन जाता है, जब प्रभू का निवास चित्त में हो जाता है तो हर कोई इसका आदर-सत्कार करता है : 

तूं विसरहि तां सभु को लागू चिति आवहि तां सेवा ॥(5-383)


कामना के संबंध में हमारी एक अन्य समस्या यह है कि हमें पता ही नहीं होता कि हम चाहते क्या हैं?  हमारे प्राकृतिक अस्तित्व के तीनों घटकों - जड़, प्राण व मन - के काम करने के तरीके व लक्ष्य भिन्न-भिन्न होते हैं जिससे हमारे व्यक्तित्व में सामंजस्य व स्वरैक्य का अभाव रहता है।  श्री अरविंद लिखते हैं, ''प्राण शरीर के साथ लड़ता रहता है, वह उसे बाधित करके अपनी सीमित सामर्थ्य से जीवन की कामनाओं, आवेगों, तुष्टियों और मांगों की तृप्ति करने की कोशिश करता है, लेकिन यह किसी अमर दिव्य शरीर के लिये ही संभव है।  और शरीर अत्याचार पीड़ित और दास बना हुआ शरीर, कष्ट पाता और सदा प्राण की मांगों के विरुद्ध मूक विद्रोह करता रहता है।  मन बाकी दोनों के साथ युद्ध करता है और कभी प्राणिक अनुरोधों पर लगाम लगाता और शरीर के ढांचे को प्राण की कामनाओं, आवेगों और हांक-हांककर थका देने वाली ऊर्जाओं से बचाने की कोशिश करता है।  वह प्राण पर भी अधिकार करने की कोशिश करता है और उसकी ऊर्जा का उपयोग अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिये, मन की अपनी क्रियाओं के अधिकाधिक उल्लास के लिये, मानसिक, सौंदर्यग्राही, भावमय उद्देश्यों की पूर्ति के लिये और मानव जीवन में उन्हें चरितार्थ करने के लिये करता है।  प्राण भी देखता है कि वह दास बन गया है और उसका दुरुपयोग हो रहा है।  वह अपने ऊपर डटे हुए अज्ञानी अर्द्ध बुद्धिमान अत्याचारी के विरुद्ध प्रायः ही विद्रोह करता रहता है।  यह हमारे अंगों का ऐसा संघर्ष है जिसका सन्तोषजनक समाधान मन के बस का नहीं है क्योंकि उसे एक ऐसी समस्या से पाला पड़ता है जो उसके लिये असाध्य है, वह है मर्त्य प्राण और शरीर में अमरता पाने की अभीप्सा ........ सच्चा समाधान है मन के परे ऐसे तत्त्व को पाने में जिसका धर्म है अमरता और उसके द्वारा अपने जीवन की मर्त्यता पर विजय पाना।''(दिव्य जीवन, पृ -216-217)


 कामना का कोई भी रूप हो उसके पीछे प्रेरणा एक ही है - असीमा आत्मा द्वारा असीम आनंद, शक्ति, स्वतंत्रता व अस्तित्व की तलाश।  लेकिन यह तलाश गलत क्षेत्र में व गलत साधनों द्वारा की जाती है अतः शुरू से ही असफल होने के लिए अभिशप्त है।  सामंजस्य, शान्ति, आनन्द, स्वतंत्रता व एकत्व मन व बुद्धि के परे उस प्रभू तत्त्व में हैं जो दिव्य ज्योति व ध्वनि के रूप में हमारे मस्तक में दोनों भौहों के पीछे विराजमान है, इसी की उपलब्धि को जीवन की चौथी अवस्था, तुरीयावस्था, कहा गया है।  यहीं हमें अपनी व्यष्टिगत आत्मा व वैश्वात्मा दोनों की एक साथ प्राप्ति होगी जिससे एक ओर तो हमारे मायिक अस्तित्व में उपस्थित द्वन्द्वों की शांति होगी, दूसरी ओर अपने साथी प्राणियों के साथ हमारे संबंध भी सौहार्दपूर्ण होंगे क्योंकि तब हम जान लेंगे कि व्यष्टिगत आत्मा व वैश्वात्मा एक ही हैं, एक शब्द ही चहुं ओर उपस्थित है।  इस अवस्था की प्राप्ति तभी होगी जब हममें केवल शब्द की प्राप्ति की कामना हो।  एकमात्र शब्द की कामना व इसकी पूर्ति के लिए की जाने वाली जद्दोजहद ही हमें सांत से अनन्त, रूप से अरूप व काल से अकाल की ओर लेकर जायेगी जिससे हम काल व मृत्यु की पराधीनता से मुक्त होंगे।  इसके अलावा किसी भी वस्तू की कामना आत्मघाती होगी : 

विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा के दुख ॥

देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख ॥(5-958)


'हे प्रभू! तेरे नाम के बिना तुझसे कुछ और मांगना भारी दुख मांगने के समान है; मुझे अपना नाम दे ताकि मुझे संतोष आ जाए और मेरे मन की तृष्णा समाप्त हो जाए।'  यहां जिस ‘भारी दुख' की बात कही गई है, वह जन्म-मरण है।  नाम के इलावा अन्य पदार्थों की कामना से जीवात्मा का जन्म-मरण के दुष्चक्र में फंसना तय है।  क्योंकि नामरूपमय संसार संबंधी कामनाओं की पूर्ति नाम-रूप के माध्यम से ही होगी।  अतः जीवात्मा को एक के बाद एक शरीर धारण करना पड़ेगा।  और, जब शरीर का निर्माण होगा तो उसका विघटन भी अवश्य होगा।  श्री अरविंद लिखते हैं, “यह विघटन भौतिक विश्व में सर्वप्राण के विधान और उसकी बाध्यता के अधीन होता है, रूप के लिए द्रव्यपूर्ति और उस द्रव्य पर की जाने वाली मांग का जो विधान है उसके और एक दूसरे को हड़पने वाले जगत्‌ में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए शरीरस्थ प्राण के पारस्परिक सतत आघात-प्रतिघात और संघर्ष का जो सिद्धांत है उसके अधीन होता है, और यही मृत्यु का विधान है।''(दिव्य जीवन, पृ -194)


(शेष आगे)

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Chaitanya Sabharwal
Chaitanya Sabharwal
Feb 27, 2024
Rated 5 out of 5 stars.

Very good🕉️

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RK25
RK25
Feb 08, 2024
Rated 5 out of 5 stars.

Excellent.

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